तीन दिनों के लिए संस्थान की ओर से महाकुम्भ की कवरेज के लिए हरिद्वार में था....दिन भर खबरें तलाशने के बाद जब सब सो रहे होते थे....मैं कुम्भ के तिलिस्म....देश की संस्कृति और जनजीवन के रहस्य टटोलने....या शायद खुद का भी वजूद तलाशने हरिद्वार की गलियों...घाटों....और नागाओं के साथ साथ आम आदमी के शिविरों को घूमा करता था.....ऐसे में ही एक दिन दो घाटों के बीच दोनो ओर देखते हुए कुछ सवाल उठे जो कविता बन गए......
देवापगा की
इस सतत प्रवाहमयी
प्रबल धारा के साथ
बह रहे हैं
पुष्प
बह रहे हैं
चमक बिखेरते दीप
स्नान कर
पापों से निवृत्त होने का
भ्रम पालते लोग
अगले घाट पर
उसी धारा में
बह रहे हैं
शव
प्रवाहित हैं अस्थियां
तट पर उठ रही हैं
चिताओं से ज्वाला
दोनों घाटों के बीच
रात के तीसरे पहर
मैं
बैठा हूं
सोचता हूं
क्या है आखिर
मार्ग निर्वाण का?
पहले घाट पर
जीवन के उत्सव में...
दूसरे घाट पर
मृत्यु के नीरव में....?
या फिर
इन दोनों के बीच
कहीं
जहां मैं बैठा हूं.....
मयंक सक्सेना -12-02-2010, हर की पैड़ी, हरिद्वार
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दुई घाटन के बीच...जी सही लिखा बहुत गहरे भाव लिये है आप की यह रचना.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
padhane ke bad kuchh sochane laga hun.Thank You. Wish You all the Bestt
जवाब देंहटाएंदोनों ही सत्य हैं.
जवाब देंहटाएंbhut hi behtreen likha
जवाब देंहटाएंsaadar
praveen pathik
9971969084
सत्य को प्रतिबिम्बित करती रचना के लिये हार्दिक आभार्।
जवाब देंहटाएंsunder rchna athak prayas...
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