बारूद के ढेर में खोया बचपन
Posted on by rashmi ravija in
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दीवाली बस दस्तक देने ही वाली है.सबकी तरह हमारी भी शौपिंग लिस्ट तैयार है.पर एक चीज़ कुछ बरस पहले हमारी लिस्ट से गायब हो चुकी है और वह है--'पटाखे'. मेरे बेटे को भी हर बच्चे की तरह पटाखे का बहुत शौक था.दस दिन पहले से उसकी लिस्ट बननी शुरू हो जाती.पटाखे ख़रीदे जाते.दो दिन पहले से उन्हें धूप दिखाना,गिनती करना,सहेजना...जैसा सारे बच्चे करते हैं.दिवाली के दिन वह शाम से ही बैग में सारे पटाखे डाले,एक कमर पर हाथ रखे मुझे एकटक घूरता रहता क्यूंकि मैं लक्ष्मी पूजा हुए बिना, उसे नीचे जाकर पटाखे चलाने की इजाज़त नहीं देती थी.जैसे ही पूजा ख़त्म हुई,वह बैग संभाले नीचे भागता.मुझे जबरदस्ती उसे पकड़, प्रसाद का एक टुकडा मुहँ में डालना पड़ता.लेकिन जब वह ९-१० साल का था, उसके स्कूल में एक डॉक्युमेंटरी दिखाई गयी,जिसमे दिखाया गया कि 'सिवकासी' में किस अमानवीय स्थिति में रहते हुए छोटे छोटे बच्चे, पटाखे तैयार करते हैं.इसका उसके कोमल मन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसने और उसके कुछ दोस्तों ने कभी भी पटाखे न चलाने का प्रण ले लिया.इनलोगों ने छोटे छोटे बैच भी बनाये SAY NO TO CRACKERS वह दिन है और आज का दिन है इन बच्चों ने पटाखों को हाथ नहीं लगाया.
'सिवकासी' चेन्नई से करीब 650 km दूर स्थित है.भारत में जितने पटाखों की खपत होती है,उसका 90 % सिवकासी में तैयार किया जाता है.और इसे तैयार करने में सहयोग देते हैं, 100000 बाल मजदूर.करीब 1000 करोड़ का बिजनेस होता है,यहाँ.
8 साल की उम्र से ये बच्चे फैक्ट्रियों में काम करना शुरू कर देते हैं.दीवाली के समय काम बढ़ जाने पर पास के गाँवों से बच्चों को लाया जाता है.फैक्ट्री के एजेंट सुबह सुबह ही हर घर के दरवाजे को लाठी से ठकठकाते हैं और करीब सुबह ३ बजे ही इन बच्चों को बस में बिठा देते हैं.करीब २,३, घंटे की रोज यात्रा कर ये बच्चे रात के १० बजे घर लौटते हैं.और बस भरी होने की वजह से अक्सर इन्हें खड़े खड़े ही यात्रा करनी पड़ती है.
रोज के इन्हें १५-१८ रुपये मिलते हैं.सिवकासी की गलियों में कई फैक्ट्रियां बिना लाइसेंस के चलती हैं और वे लोग सिर्फ ८-१५ रुपये ही मजदूरी में देते हैं.ये बच्चे पेपर डाई करना,छोटे पटाखे बनाना,पटाखों में गन पाउडर भरना, पटाखों पर कागज़ चिपकाना,पैक करना जैसे काम करते हैं.
जब भरपेट दो जून रोटी नहीं मिलती तो पीने का पानी,बाथरूम की व्यवस्था की तो कल्पना ही बेकार है.बच्चे हमेशा सर दर्द और पीठ दर्द की शिकायत करते हैं.उनमे कुपोषण की वजह से टी.बी.और खतरनाक केमिकल्स के संपर्क में आने की वजह से त्वचा के रोग होना आम बात है.
गंभीर दुर्घटनाएं तो घटती ही रहती हैं.अक्सर खतरनाक केमिकल्स आस पास बिखरे होते हैं और बच्चों को उनके बीच बैठकर काम करना पड़ता है.कई बार ज्वलनशील पदार्थ आस पास बिखरे होने की वजह से आग लग जाती है.कोई घायल हुआ तो उसे ७० कम दूर मदुरै के अस्पताल में ले जाना पड़ता है.बाकी बच्चे आग बुझाकर वापस वहीँ काम में लग जाते हैं.
कुछ समाजसेवी इन बच्चों के लिए काम कर रहें हैं और इनके शोषण की कहानी ये दुनिया के सामने लाना चाहते थे.पर कोई भारतीय NGO या भारतीय फिल्मनिर्माता इन बच्चों की दशा शूट करने को तैयर नहीं हुए.मजबूरन उन्हें एक कोरियाई फिल्मनिर्माता की सहायता लेनी पड़ी.25 मिनट की डॉक्युमेंटरी 'Tragedy Buried in Happiness कोरियन भाषा में है जिसे अंग्रेजी और तमिल में डब किया गया है.इसमें कुछ बच्चों की जीवन-कथा दिखाई गयी है जो हजारों बच्चों का प्रतिनिधित्व करती है.
12 साल की चित्रा का चेहरा और पूरा शरीर जल गया है.वह चार साल से घर की चारदीवारी में क़ैद है,किसी के सामने नहीं आती.पूरा शरीर चादर से ढँक कर रखती है,पर उसकी दो बोलती आँखे ही सारी व्यथा कह देती हैं.
14 वर्षीया करप्पुस्वामी के भी हाथ और शरीर जल गए हैं.फैक्ट्री मालिक ने क्षतिपूर्ति के तौर पर कुछ पैसे दिए पर बदले में उसके पिता को इस कथन पर हस्ताक्षर करने पड़े कि यह हादसा उनकी फैक्ट्री में नहीं हुआ.
10 साल की मुनिस्वारी के हाथ बिलकुल पीले पड़ गए हैं पर मेहंदी रचने की वजह से नहीं बल्कि गोंद में मिले सायनाइड के कारण.भूख से बिलबिलाते ये बच्चे गोंद खा लिया करते थे इसलिए क्रूर फैक्ट्री मालिकों ने गोंद में सायनाइड मिलाना शुरू कर दिया.चिपकाने का काम करनेवाले सारे बच्चों के हाथ पीले पड़ गए हैं.
10 साल की कविता से जब पूछा गया कि वह स्कूल जाना मिस नहीं करती?? तो उसका जबाब था,"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यह पूछने पर कि उसे कौन सा खेल आता है.उसने मासूमियत से कहा--"दौड़ना" उसने कभी कोई खेल खेला ही नही.
जितने बाल मजदूर काम करते हैं उसमे 80 % लड़कियां होती हैं.लड़कों को फिर भी कभी कभी पिता स्कूल भेजते हैं और पार्ट टाइम मजदूरी करवाते हैं.पर सारी लड़कियां फुलटाईम काम करती हैं.13 वर्षीया सुहासिनी सुबह 8 बजे से 5 बजे तक 4000 माचिस बनाती है और उसे रोज के 40 रुपये मिलते हैं (अगली बार एक माचिस सुलगाते समय एक बार सुहासिनी के चेहरे की कल्पना जरूर कर लें)
सिवकासी के लोग कहते हैं साल में 300 दिन काम करके जो पटाखे वे बनाते हैं वे सब दीवाली के दिन 3 घंटे में राख हो जाते हैं.दीवाली के दिन इन बाल मजदूरों की छुट्टी होती है. पर उन्हें एक पटाखा भी मयस्सर नहीं होता क्यूंकि बाकी लोगों की तरह उन्हें भी पटाखे खरीदने पड़ते हैं.और जो वे अफोर्ड नहीं कर पाते.
हम बड़े लोग ऐसी खबरे रोजाना पढ़ते हैं और नज़रंदाज़ कर देते हैं.पर बच्चों के मस्तिष्क पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है.यही सब देखा होगा,उस डॉक्युमेंटरी में, अंकुर और उसके दोस्तों ने और पटाखे न चलाने की कसम खाई जिसे अभी तक निभा रहें हैं.सिवकासी के फैक्ट्रीमालिकों ने सिर्फ उन बच्चों का बचपन ही नहीं छीना बल्कि अंकुर और उसके दोस्तों से बचपन की एक खूबसूरत याद भी छीन ली.देखनेवाले बहुत प्रभावित होते हैं और तारीफ़ करते हैं पर जब मैं दीवाली के दिन अपने बेटे को पटाखे चलाते सारे बच्चों से दूर एक तरफ पीछे हाथ बांधे खड़े देखती हूँ तो देश की एक जागरूक नागरिक की जगह सिर्फ एक माँ रह जाती हूँ.कभी कभी यह भी कह देती हूँ"तुम्हारे अकेले के करने से क्या बदलेगा' और वह बड़े बूढों की तरह कहता है "किसी को तो शुरू करना पड़ेगा,न"
(आप सब को दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं. मुझे आपकी दीपावली का मजा किरिकिरा करने का कोई इरादा नहीं था....पर सच से आँखें कैसे और कब तक चुराएं?
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maine kal hi apne office ke through kuchh crackers khariden hain jo shivkashi me bane huye hain.. ab itna padhne ke bad unhe chalaane ka man nahi kar raha hai,.. bahut asahay mahsoos kar raha hun..
जवाब देंहटाएंपढकर तो सन्न रह गयी .. खेलने और खाने की उम्र में बच्चों के साथ ऐसी नाइंसाफी .. ये व्यवसायी इतने पैसों का करेगे क्या .. सरकार और अन्यों की उपेक्षा का मतलब भी साफ ही है .. जिन पटाखों के निर्माण में इतने बच्चों की सिसकियां जुडी हों .. ऐसे पटाखों के उपयोग का ही हमें विरोध करना चाहिए !!
जवाब देंहटाएंदिवाली पर बाल शोषण को सार्थक रूप में उजागर किया है.
जवाब देंहटाएंइसे पढ़कर अब किसी को पटाखे या बमों का उपयोग करना, अमानवीय लगेगा.
अच्छे लेख के लिए बधाई.
अरे बाप रे इन कम्पनी वालो के अपने बच्चे नही? क्या इन्हे ऎसे पेसा कमाना अच्छा लगता है, हम क्या किसी को भी ऎसे पटाखे नही चलाने चाहिये, काश आप इस का विडियो लिंक भी दे देते.
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सिवाकासी की पटाखा फक्टरियों में काम करने वाले बच्चों की कथा मैने बचपन में ही पढ़ ली थी .शायद धर्मयुग या साप्ताहिक हिन्दुस्तान मे बस तभी से पटाखों को हाथ लगाना बन्द कर दिया । मेरी बेटी ने भी कभी पटाखे नहीं छुड़ाये । वैसे भी हम लोग इसका सम्बन्ध वैभव के झूठे प्रदर्शन से जोड़ते हैं और दीपावली ही नहीं अन्य अवसरों पर भी इसकी भर्त्सना करते हैं । मुख्य बात यह है कि इस का विरोध सिर्फ कागज़ों में होता है । हर कारखाने के दरवाज़े पर यह लिखा है कि हमारे यहाँ 14 साल से कम उम्र के बच्चे काम नही करते लेकिन वास्तविकता सभी जानते हैं । आपके बच्चे जो काम कर रहे है इस अमानवीयता के खिलाफ उसकी प्रशंसा के लिये मेरे पास शब्द नहीं हैं ।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी ;
जवाब देंहटाएंमैं क्या कहूँ जी , पढ़कर रोंगटे खड़े हो गए है .. मुझे मालुम तो था की वहां बच्चो से काम करवाया जाता है पर इन स्थितियों में और इतनी ख़राब हालत में ... मेरा मन बैचेन हो गया है , अभी मैंने मदुरै में अपने एक मित्र से इस बारे में बात की ,उसका कहना है ये सालो से चला आ रहा है , सरकार को मुनाफा होता है [ पहुँचाया जाता है ] शिवकाशी से सिर्फ फटाको के बल पर revenue ,generate होता है ..और वहां के गाँव और तालुका के पदाधिकारी सब इस दारुण कथा को जानते है ...गरीबी एक बहुत बड़ा अभिशाप है और वहां के मालिक इस बात को exploite करते है , जरुरत है CRY जैसे NGOs की जो की आगे आकर सरकार से इस बारे में बात करे ..
आपने इतनी बड़ी बात को इस पोस्ट के द्वारा बताया है , इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ ..
"स्कूल जाउंगी तो खाना कहाँ से मिलेगा.?'"..यही विवशता है जो ये मासूम मजदूरी करने पर आमादा हैं,
जवाब देंहटाएंदो जून की रोटी का सवाल है।
aapka post shayad kendra aur rajya sarkar bhi padh le. kis haath se patakhe jalayen.
जवाब देंहटाएंdil ko hila ke rakh diya aapke is lekh ne sachmooch .....kash aise hi sab log patakhe chalane se pahle soch paaye
जवाब देंहटाएंशिक्षाप्रद पोस्ट लिखी है, आपने!
जवाब देंहटाएंधनतेरस, दीपावली और भइया-दूज पर
आप सभी को ढेरों शुभकामनाएँ!
इन चिरागों में रोशनी बो दो,
जवाब देंहटाएंटूटते तन में जिन्दगी बो दो।
मौन हावी है जिन बहारों पर
उन बहारों में सनसनी बो दो।
बहुत अच्छा आलेख।
बहुत ही अच्छा लेख लिखा आपने बच्चों के साथ अन्याय और उनका इस तरह से शोषण अमानवीय कृत्य जो कि आज भी पूर्ववत जारी है, इन पटाखों का उपयोग नहीं करके ही हम अपना विरोध जता सकते हैं, और अन्य लोगों को भी इसकी जानकारी दे सकते हैं, आभार सहित ।
जवाब देंहटाएंइसे पढ़कर पटाखे या बमों का उपयोग करना, अमानवीय लग रह है.
जवाब देंहटाएंआप इस का विडियो भी दे
अच्छे लेख के लिए बधाई