भारत दुनिया का अकेला देश है जहां सरकारी स्तर पर 'हिंदी दिवस’ मनाया जाता है, केंद्र और राज्य सरकारों में एक राजभाषा विभाग होता है जो कानून और व्यवस्था संभालने वाले गृह मंत्रालय के अधीन काम करता है। हिंदी अधिकारियों की एक बड़ी फौज देश भर में मौज मस्ती करती है और संविधान की प्रस्तावना में लिखित कम-से-कम दो मूल्यों की धज्जियां उड़ाती है- लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता। भारत दुनिया का अकेला देश है जहां से सरकारी स्तर पर भाषा और साहित्य का कूड़ा-करकट दुनिया भर में भेजा जाता है, जहां के अधिकांश राजदूत और राजनयिक भारतीय साहित्य के बारे में कुछ नहीं जानते।
विदेश मंत्रालय के अधीन एक सरकारी ट्रेवल एजेंसी है जिसका नाम 'भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद’ (आईसीसीआर) है। यह नाम वरिष्ठ कांग्रेसी नेता वसंत साठे ने खुद दिया था जब वे आईसीसीआर के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष थे। यह संस्था हिंदी के नाम पर जो सड़ा-गला माल विदेशों में सप्लाई करती है उससे किसी भी भारतीय का सिर शर्म से झुक जाएगा। जिस तरह से हिंदी के वैश्विक तंत्र पर हिंदुत्ववादियों, पोंगा पंडितों और सिर्फ एक जाति का कब्जा है, वह अपराधिक है। केंद्र में चाहे कांग्रेस की सरकार हो या तीसरे मोर्चे की, यह वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। यदि भारतीय जनता पार्टी की सरकारें ऐसा करें तो बात समझ में आती है, लेकिन सेक्यूलर सरकारें भी हिंदी के मामलों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, शिवसेना, संस्कार भारती जैसी कट्टरपंथी संगठनों का एजेंडा पूरा करने में लगी हुई हैं। मॉरीशस और ब्रिटेन के मामलों में यह बात शत-प्रतिशत सच है जिसका श्रेय स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मी मल्ल सिंघवी और उनके द्वारा प्रशिक्षित हिंदी अधिकारियों की नेटवर्किंग को जाता है। इस नेटवर्किंग ने विदेशों में हिंदी का ऐसा कबाड़ा किया हुआ है कि दुनिया के बड़े से बड़े तानाशाह भी शर्मा जाएं। हिंदी के इन कारोबारियों के संरक्षक बड़े ताकतवर लोग हैं जिनकी चरण वंदना का संगीत लगातार भयावह होता जा रहा है। इससे विदेशों में पदस्थापित थे आईएएस, आईपीएस, आईएसएस अफसर भी हैं जिन्होंने सिविल सर्विसेज की परीक्षाओं में तो जरूर 'मुख्यधारा’ और 'गंभीर साहित्य’ से जुड़े प्रश्नों के उत्तर दिए होंगे। अब यही अफसर भारत के विदेश मंत्रालय के अफसरों के साथ मिलकर दुनियाभर में हिंदी की गोष्ठियों आयोजनों को नौटंकी और 'ग्रेट इंडियन लाफ्टर शो’ में बदल चुके हैं।
इन दिनों लंदन में डा. पदमेश गुप्त और तेजेंद्र शर्मा के बीच एक दिलचस्प जंग छिड़ी हुई है। पदमेश गुप्त और अनिल शर्मा की संस्था यू.के. हिंदी समिति पिछले कई सालों से भारत सरकार के पैसे से मंचीय कवियों के कई कार्यक्रम आयोजित करती रही है। इस काम में तेजेंद्र शर्मा की संस्था 'कथा यू.के’ कभी सहयोग नहीं करती। पदमेश गुप्त ने अपनी पत्रिका 'पुरवाई’ के संपादकीय में एक तरह से आरोप लगाया है कि 'कथा यूके’ हिंदी के प्रचार-प्रसार में सहयोग नहीं करती। उधर अपने कई साक्षात्कारों में तेजेंद्र शर्मा में हिंदी की मुख्यधारा के साहित्य को तरजीह देने की बात करते हुए पुरवाई को हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी पत्रिका कहा है। जिसके संरक्षक भाजपा नेता केसरीनाथ त्रिपाठी हैं। पदमेश गुप्त का तर्क है कि उन्हें मुख्यधारा के कवि इसलिए नहीं चाहिए? क्योंकि ब्रिटेन के हिंदी श्रोता उनकी कविताओं का मजा नहीं ले सकते। बहरहाल। इसी 31 अगस्त 2009 को भारतीय उच्चायोग के नेहरू सेंटर में यूके हिंदी समिति का वार्षिक 16वां अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन संपन्न हुआ। इसमें जिन महान अंतर्राष्ट्रीय कवियों ने कविताएं पढ़ीं उनके नाम हैं- श्री केसरी नाथ त्रिपाठी (पूर्व अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश, विधान सभा एवं वरिष्ठ भाजपा नेता) दीक्षित दनकौरी एवं पवन दीक्षित (दोनों सगे भाई हैं) विष्णु सक्सेना सुरेश अवस्थी, प्रीता वाजपेयी आदि। इस आयोजन में केसरीनाथ त्रिपाठी कई बार आ चुके हैं।
आश्चर्य हुआ यह देखकर कि भारतीय उच्चायोग के मंत्री (समन्वय) आसिफ इब्राहिम और नेहरू सेंटर की निदेशक मोनिका मोहता अपना सारा काम धाम छोड़कर इन कविगणों की खातिर में लगे रहे। सवाल यह उठता है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की पढ़ाई-लिखाई का क्या हुआ? हद तो तब हो गई कि लंदन के सन राइज रेडियो में काम करनेवाले रवि शर्मा को शो पीस की तरह मंच पर खड़ा कर चुटकुले सुनाने को कहा गया। मूर्खता का कोई मुकाबला नहीं हो सकता। जब कविगण हिंदी गजलों में उर्दू शब्दों का प्रयोग करने लगे तो एक पुजारीनुमा श्रोता ने आपत्ति की- 'यह हिंदी दिवस है या उर्दू दिवस’। अभी हिंदी अकादेमी के उपाध्यक्ष अशोक चक्रधर के इस बयान पर काफी हंगामा हुआ था कि -'साहित्य मनोरंजन की चीज है।‘ विदेश मंत्रालय के अधिकारियों ने तो दशकों से इस विचार को असली जामा पहना दिया है। पद्मेश गुप्त और अनिल शर्मा की साहित्यिक समझ के बारे में हमें ज्यादा ज्ञान नहीं है, पर क्या दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, जकीया जुबैरी, आनंद कुमार, तेजेंद्र शर्मा, सत्येंद्र नाथ श्रीवास्तव, मोहन राणा भी यही मानते हैं।
यदि नहीं तो कोई क्यों नहीं कहता कि हिंदी कविता का असली चेहरा तो दूसरा है जिसमें पांच पीढिय़ों के सैकड़ों कवि सक्रिय हैं। जिस तरह भारत में चिली दूतावास पाब्लो नेरूदा, पोलिश दूतावास शिंबोस्र्का, मैक्सकी दूतावास, आक्टोवियो पाज, स्पेनिश दूतावास, लोर्का और चैक, जर्मन, इटालियन, जापानी, चीनी, हंगरी, नार्वे के दूतावास अपनी भाषा के मुख्यधारा के लेखकों कवियों पर कार्यक्रम करते हैं, गंभीर साहित्य के पठन-पाठन को प्रोत्साहित करते हैं, उसी तरह क्या हम सोच सकते हैं कि लंदन में कभी ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि कुंवर नारायण, एम.टी.वासुदेवन नायर, महाश्वेता देवी आदि पर भारतीय उच्चायोग कोई कार्यक्रम करेगा? क्या भारत में किसी को यह चिंता नहीं सताती कि सरकारी अफसर साहित्य के नाम पर जो कूड़ा-कचरा विदेशों में निर्यात कर रहे हैं उससे देश की प्रतिष्ठा को कितनी क्षति पहुंच रही है। हिंदी को इन ग्लोबल धंधेबाजों से कौन मुक्त कराएगा। क्या हमारे 400 के करीब हिंदी भाषी सांसदों में से किसी में भी यह चेतना नहीं बची है ?
(अजित राय यू.के. से लौटकर)
Bahut Badhiya kaha hai aapne ! ministries kee jo magazines hoti hain unka star chauti panchwi jamat wali hoti hai... sahitya ka level ghatiya hota hai... mudran ki ashudhiyan hoti hain... typing error hoti hain.... unhe padh kar gardn sharm se jhuk jaata hai... !
जवाब देंहटाएंYeh kaam shuru hota hai junior hindi translator se jisse fileonmein... office orders... cabinet notes kee hindi translation mein laga kar kaha jaata hai... ki... isse translate kar do... bas kar do... koi hindi padhta hai kya... so ... bas hindi kar do iski.... aur mantraylayon mein HINDI KAR DO eak gaali ban kar reh gai hai.... ar oopar ke adhikari gan... assistant director... deputy director.... joint director aur phir director ki fauj... masti karne ke alawe koi kaam nahi karti.... phir.... hindi ki dash sudharne wale hi iss ki dash bigarne mein jyada lage hain... aur bureacracy ki kripa hai.... hindi ke naam par tour karne mein kissi secretary ko koi pareshani nahi hai... lekin office mein hindi mein kaam karne mein pareshani hai....
hindi apne bal par... bazar mein apni pooch ke bal par... hindi belt mein purchasing capability ke bal par.... nri's ke beech hindi ke fashion ke bal par.... rahegi... badhegi... phalegi.... phoolegi.....
Pravasi hindi saahitya ka svarn yug ko smaran karne ke liye aap sabhi ka hriday se aabhari hoon jinhone kisi bhi rrop men kisi bhi bhasha men yah mudda uthaaya hai. Main hindi sript men likh pata to padhne men ek alag sukhad anubhuti hoti, jiske liye pathakgan ko aannad bhi milta aur apnapan bhi jo apni bhasha men padhkar hota hai.
जवाब देंहटाएंSach maaniye to ab 2Pravasi hindi ka svaran yug hi samajhiye". aap poochhenge vah kaise? ek to aap jaise sudhi lekhkon aur sudhi paathkon ne blog, patra patrikaaon aur samachar patron men pravasi sahitya, samachar aur pravasi sahitykaar ko sthan dena shuru kiya hai. Har vyakti svatantra hai apni tippani karne ke liye. abhivyakti svatantrata ki aajadi isse ek baat to tay hai ki koi kisi ko baadhya naheen kar sakta apni baat ko jor-jabardastike se baat ko manvaane ke liye.
Keval Norway men ham logon ne hindi se sambandhit do karykram aayojit kiye ek 18 september ko doosra 19. september ko. Kyonki 14 sitambar ko Norway men parliyament ke chunaav the.
Hindi saahitya vishal saagar ki tarah hai aur yah garv ki baat hai aur hamare liye saubhagy ki baat ki ham pravasi sahitkar aur hindi sevi apna sakriy yogdaan dete hue keval hindi ki rachna hi naheen kar rahe balki yahan (videshi mool) ke logong tak har star par hindi ki pataka fahra rahe hain.
Han yah jaroor hai ki kuchh blog aur kuchh patra patrikaon ko chhod Norve men hindi divas ka sammchar hindi jagat tak naheen jud paaya hai. Mujhe poori asha hai ki aap log apne sanvaad aur bahson se ise lokpriy aur charchit banaayenge.
Norway ke hindi divas par norway ke saansad sahit kai lekhakh aur hindi padhne vaale dono bhartiy aur narvejeey mool ke shamil the. yahan pahla hindi skool khola gaya. svatantra aur apni bhasha hindi ki seva aur use pracharit karne ke liye.
Mera kahna hai ki hindi ka prachar-prasar karne men ham samrath hain. bas aap sabhi bhartvaasiyon aur pravasi sahitykaron aur yahan ke mool logon ka bhi sneh chahiye, paise naheen.
Hindi ka svarn yug hai, andhkaar yug naheen hai. Yah sochen ki hamne hindi ko kya diya hai aur kya de sakte hai. Hindi hamari asmita ki pahchaan bharat ki rashtra bhasha aur sampark bhasha hai.
"Haath men haant rakhkar kabhi kuchh hona naheen.
Katna kyon chahte ho nai fasal jab tumhen bona naheen.
dhanyavad aur shubhkammnaaon ke saath
Suresh-chandra Shukla 'Sharad Alok' Oslo, Norway
यायावर जी, आपने जो लिखा है, उसे लिखने का साहस अच्छे अच्छों में नहीं है। आपने एक कटु सत्य पर उंगली रखी है। बहुत लोग तिलमिलाएंगे, बहुत लोग आपकी पीठ थपथपाएंगे। लेकिन, यह भी सच है कि आपकी पीठ थपथपाने वालों में से जब किसी को इस प्रकार विदेश जाने का अवसर मिलेगा तो वो सबसे आगे होकर उसे स्वीकार करेंगे। आज ऐसे लोगों को हिन्दी की चिंता कहाँ है, उन्हें तो अपने नाम और अपनी सुख-सुविधा की चिंता है। आप जितना भी अच्छा और श्रेष्ठ काम यहाँ हिन्द्बुस्तान में बैठकर करते रहे, आपको कोई नहीं पूछेगा जब तक साहित्य की दोनों धाराओं में कोई आपका गॉड फादर नहीं होगा। रचना की गुणवत्ता कोई मायने नही रखती, आपके सम्पर्क अर्थ रखते हैं। इन दोनों धाराओं के मठाधीशों और उनके चम्मचों के साथ आपका पी आर ओ कैसा है, यह महत्वपूर्ण है आज्। आपने कम से कम बात तो उठाई, इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
जवाब देंहटाएंभिगो भिगा के ...
जवाब देंहटाएंभाई अविनाश जी
जवाब देंहटाएंआपने यायावर जी का महत्वपूर्ण आलेख प्रकाशित किया लेकिन इतना अच्छा आलेख लिखने वाले यायावर जी को अपने नाम की पहचान छुपाने की क्या आवश्यकता थी. दोनों हाथों में लड्डू लेने की मंशा-----.
आलेख में मुख्यधारा की बात की गई है. अनुरोध करूंगा कि सुभाष नीरव के ’साहित्य सॄजन’ (www.sahityasrijan.blogspot.com) में मेरी बात के अंतर्गत मेरा आलेख यायावर जी अवश्य पढ़ लें . मुझसे पहले कॄष्णबिहारी इस विषय को उठा चुके हैं . यू.के. के कुछ साहित्यकारों को ’मुख्यधारा’ का भूत आजकल कुछ अधिक ही सता रहा है. आपके ब्लॉग के माध्यम से जानना चाहूंगा कि यायावर जी और इस ’मुख्यधारा’ से आक्रांत साहित्यकार क्या बताएंगे कि साहित्य की किस राजनैतिक विचारधारा से उपजा है यह शब्द ?
सुभाष नीरव की बात से सहमत होते हुए इस आलेख के लिए एक बार पुनः यायावर जी को मेरी बधाई .
रूपसिंह चन्देल
०९८१०८३०९५७
अपनी उपर्युक्त टिप्पणी में हुई भूल को संशोधित करने के लिए मैं यह टिप्पणी कर रहा हूँ। मुख्यधारा को लेकर मेरा आलेख सुभाष नीरव के ब्लॉग "साहित्य सृजन" में नहीं, बल्कि मेरे अपने ब्लॉग "वातायन" (www.vaatayan.blogspot.com) के सितम्बर अंक में छपा है। पाठक कृपया नोट कर लें।
जवाब देंहटाएं@ रूपसिंह चन्देह
जवाब देंहटाएंhttp://yaayaawarkidairy.blogspot.com/2009/09/blog-post.html
यह यायावर का अपना ब्लॉग है आप उनसे सचित्र यहां पर मिल सकते हैं। वैसे आप उनसे परिचित ही होंगे।
रही लड्डू लेने की बात तो जब भी लड्डू लिए जाएं तो दोनों ही हाथों में लिए जाने चाहिएं, इसमें उस एक हाथ का क्या कसूर, उसे इस मिठास से क्यों वंचित किया जाए।
लिखने वाला कोई भी हो और कहीं से भी लड्डू ले रहा हो इससे उसके लेखन पर क्या असर पड़ता है। साहसी वही है जो लड्डू भी लेता है फिर भी सच कह सकता है।
हमें ऐसे ही मोदकमोहियों की तलाश है जो अपना काम तो न छोड़ें पर बखिया उधेड़ने यानी सच्चाई सामने लाने से भी परहेज न करें।
अच्छा लगा विषय का अच्छा लगना और उस पर चर्चा चलना। चर्चा स्वस्थ ही रहेगी, ऐसा विश्वास है।
यायावर जी, आप ने एक सच इस लेख मै लिखा है, मै भी भारतीया हूं, काफ़ी समय से यहां (जर्मन) मे रहता हुं, मेरे पास मुनिख शहर है, यहां भारतीया दुतावास मै हम दो बार गये ताकि बच्चो को २६ जनवरी, ओर १५ अगस्त का पता चले लेकिन फ़िर हम ने जाना ही छोड दिया, कारण आजादी का दिन, आजादी का भाषाण अग्रेजी मै, कई लोगो ने ऎतराज भी किया, लेकिन राज दुत का कहना कि गोरो को हिन्दी समझ नही आती, तो भाई आजादी हमारे लिये है, या इन गोरो के लिये??
जवाब देंहटाएंहम कभी नही सुधर सकते, सच मै हम पहले है जो अपनी भाषा को एक दिन नही एक घंटे ही साल मै याद करते है... बाकी अपने आकाओ की जुबान बोलते है.
धन्यवाद
सोचनीय है..राज्य सरकार और केंद्र सरकार को इस बारे में कठोर कदम उठाने होंगे ताकि हिन्दी के नाम पर धंधा करने वाले कुछ ना कर पाए...
जवाब देंहटाएंयह टिप्पणी अजित राय की है जो सम्भवत हंस के ताज़ा अंक में प्रकाशित हुई है पर यहां उनका नाम नहीं दिया गया, पता नहीं क्यों
जवाब देंहटाएंजनाब आपने आलेख में जो मुद्दे उठाए हैं उन पर बात होनी ही चाहिए . हिन्दी के नाम पर करोड़ों रुपए पानी की तरह बहाए जाते हैं. लेकिन आपसे पहले सैकड़ों लोगों ने इस विषय पर लिखा है और आगे भी लिखेंगे. आपने देश की बजाए विदेश और खासकर यू.के. को आधार बनाया और आप शायद ही ऎसा करते यदि आपको तेजेन्द्र शर्मा की पक्षधरता में न लिखना होता. आपकी बात से स्पष्ट है कि डॉ. पद्मेश गुप्त ने यदि उनकी उपेक्षा न की होती तो शायद ही यह बात आप लिखते या आपको लिखने के लिए कहा जाता. क्षमा करेंगे आपका आलेख एकपक्षीय हो गया है. मुद्दे से भटककर आप तेजेन्द्र शर्मा की चापलूसी करते नजर आए. हिन्दुस्तान में उनके दो भाड़े के टट्टू थे जो भारत में उनका ढोल बजाते रहते हैं अब उसमें वृद्धि होती नजर आ रही है. अच्छा हुआ होता कि चारणीय-स्तुति के बजाए आप अपने आलेख को और व्यापक बनाते .
जवाब देंहटाएंफिर भी इसे लिखने के लिए आपकी प्रशंसा करता हूं.
मनोज रंजन
kripya mujhe sabhi post e-mail se bhejane ke liye mera e-mail add. hai--- pkushawaha.6@gmail.com ....
जवाब देंहटाएंdhanywad
अजीत जी, सही सवाल उठाया है। अंधा बांटे रेवड़ी तो देश की छवि की चिंता क्यों करे? कान में तेल डालकर सोने वाले तंत्र की नींद में खलल डालने के लिए इस तरह बेबाकी से लिखने की बहुत जरूरत है। सही सवाल उठाने के लिए बधाई।
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो मुझे इस पोस्ट के शीर्षक से ही एतराज है। भला आपको किसने ये हक दे किया कि कुछेक अच्छे बुरे यक्तिगत अनुभवों के आधार पर पूरे परिदृश्य को हो ही अंधकारमय घोषित कर दें। अजित ने इस लेख में सबको एक ही लाठी से हांकने की कोशिश की है और उसमें हिन्दी अधिकारी से ले कर राजनयिक और विदेशों में तैनात सभी को शिकार बनाया है। वे पहले हिन्दी अधिकारियों को लतियाते हुए आगे चल चल कर पूरी जमात को ही पीटते चले गये हैं। माना हिन्दी अधिकारियों की कौम खराब है हरामखोर है, मौज मजा करती है और पता नही हिन्दी के विकास के अलावा क्या क्या करती है लेकिन वे साहित्य की जिस मुख्य धारा की बात कर रहे हैं वह क्या कर रही है। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि अजित जी की ये मुख्य धारा है क्या। वे कहते हैं कि जिस अखबार को, कहानी को, किताब को और कविता को वे लोग (मैं यहां जानबूझ कर उन कुछ का नाम दे कर विषय से भटकना नहीं चाहता)पढ़ते हैं या पढ़ने की सलाह दी जाती है उन्हें तो वही मुख्य धारा। आपको मुख्य धारा में आना है तो उन्हीं की पसंद का लिखना होगा वरना आप भी कूड़ा कचरा। उनके हिसाब से जो कुछ इन महानुभावों द्वारा नहीं पढ़ा जा रहा वह सब कूडा कबाड़ा। अब उनके हिसाब से पूरे देश में कूड़ा कबाड़ा ही लिखा जा रहा है। क्योंकि उसे इन महानुभावों द्वारा पढ़ा नहीं जाता।
जवाब देंहटाएंबलिहारी है आपकी मुख्य धारा जिसने साहित्य से पाठक को तो बिलकुल गायब ही कर दिया है। सारा लेखन, सारे अखबार, किताबें, लेखक, सब गया पानी में मुख्य धारा के चक्कर में।
ये बात अलग है कि अजित जी स्वयं अपने अर्थ पक्ष के लिए यत्र तत्र सर्वत्र नजर आयेंगे।
दूसरी बात कि यह आने वाला लम्बा समय तय करता है कि फलां युग अंधकारमय था या स्वर्णयुग। हम में से कोई भी कम से कम अपने वर्तमान काल का प्रवक्ता नहीं होता। अगर होता है तो बहुत बड़ी गलतफहमी में होता है।
तीसरी बात वे बार बार विदेशों में भेजे जाने वाले कूड़े कचरे की बात करते हैं लेकिन ये नहीं बताते कि ये कचरा आखिर है क्या। जहां तक मेरी जानकारी है वे भी अब तक जितनी बार विदेश हो आये हैं किसी न किसी कचरा कोटे से ही जुगाड़ करके गये हैं।
पूरे के पूरे वक्त को नकार देना बेहद घातक सोच है। जो लोग व्यक्तिगत स्तर पर या संस्थाओं के जरिये विदेशों में सचमुच काम कर रहे हैं और अकेले के बल पर हिन्दी के चिराग जलाये हुए है यह उनकी सरासर तौहीन है।
तो मेरे हे पत्रकार मित्र, इस तरह से कभी भी सबको लपेटे में लेते हुए हवा में लाठियां न भांजें। काम करने वाले अपना काम करते रहते हैं और उन्हें आपके किसी प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं।
ये वक्त अपने अपन तय कर लेगा कि कचरा किधर था।