मैं ‘मंजू दीदी’ बनना चाहती हूं

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  • संगीता पुरी
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  • हमारे पूरे परिवार की सबसे छोटी सदस्‍य यानि घर की एकमात्र बिटिया रानी साक्षी ( क्‍यूंकि बडे भैया की लडकी की शादी हो चुकी और मेरे दो बेटे ही हैं और वह देवरानी की बिटिया है) चार पांच वर्ष की उम्र की ही होगी कि एक दिन हमारे पूछने पर कि तुम बडी होकर क्‍या बनना चाहती हो , उसने बताया कि वह ‘मंजु दीदी’ बनना चाहती है। अब आप पाठकों को मंजू दीदी का परिचय दे ही दूं। उस वक्‍त वह 14 – 15 वर्ष की एक लडकी थी , जो हमारे घर के अतिरिक्‍त अन्‍य दो घरों में चौका बरतन करती थी। छोटे परिवार वाले घरों में तीन घरों में काम करना उसके लिए अधिक कठिन नहीं था , जबकि इसी बहाने वह दिन भर घर से गायब घूमती , फिरती , सबके घरों में फिल्‍म या सीरियल देखती , नए नए कपडे और श्रृंगार प्रसाधनों की खरीदारी करती और हर वक्‍त सजी संवरी रहती। सालभर का कोई भी त्‍यौहार होना चाहिए , चाहे वह हिन्‍दू का हो , मुस्लिमों का , सिखों का या ईसाई का या राष्‍ट्रीय पर्व या फिर नए वर्ष का , उसके कार्यक्रम पहले से बने होते और साथ ही साथ उसके लिए छुट्टी की अर्जी भी। उसकी उम्र देखकर हमें दया आती , हर परिवार से उसे छुट्टी मिल जाती थी , चाहे त्‍यौहार के दिनों में भी अतिरिक्‍त काम के बोझ से पीसें क्‍यूं न जाएं। कारण चाहे जो भी रहा हो , बच्‍चे के मन में स्‍टेटसवाली बात की जानकारी तो नहीं होती , पांच वर्ष की इस बच्‍ची को परिवार की अन्‍य महिलाओं से जरूर वह अच्‍छी लगी होगी , तभी तो ‘मंजू दीदी’ उसकी आदर्श बन गयी थी , आज भले ही इस बात की चर्चा होने पर वह शर्मा जाती है ।


    जहां हम महिलाएं एक ओर घरेलू काम खुद न कर अपना बी पी , सुगर और थायरायड के बढने से परेशान हैं , वहीं दूसरी ओर इन कामवालियों के भाव में आयी बढोत्‍तरी भी हमें कम परेशान नहीं करती। सचमुच इन बाइयों का जीवन कम आरामदेह नहीं होता। भले ही दिनभर काम करने के बाद उन्‍हें मामूली पैसे ही मिलते हों , पर जहां एक ग्रेज्‍युएट भी दो–तीन-चार हजार की नौकरी करने को विवश हों , वहां उनकी कमाई इतनी कम भी नहीं। अन्‍य किसी प्राइवेट नौकरी में आपको छुट्टी लेने से पहले कई बार सोंचना होगा , पर घरेलू नौकरानियों को छुट्टी लेने के लिए कुछ सोंचने की आवश्‍यकता नहीं। अभी सावन के अंत अंत में मेरी नौकरानी ने कांवर लेकर देवघर के भोले बाबा को जल चढाने का मन बनाया। सभी घरों से सिर्फ एक सप्‍ताह की छुट्टी ही मंजूर नहीं हुई , वरन् उसे गेरूए कपडे और पैसे भी अतिरिक्‍त मिले । उसके बाद के एक सप्‍ताह काम पर आने पर तबियत खराब होने के कारण हल्‍के फुल्‍के ही काम करती रही । फिर सप्‍ताह दस दिन भी नहीं हुए कि गायब ही हो गयी , मनसा पूजा (सर्पों की देवी) के बहाने। यह पूजा इस इलाके में 19 अगस्‍त को मनायी गयी , पर 20 अगस्‍त को बृहस्‍पतिवार का दिन होने से विसर्जन नहीं हुआ , 21 को विसर्जन हुआ है और आज भी उसका कोई अता पता नहीं। आप उसे काम से हटा भी नहीं सकते , एक हटाएंगे तो उन्‍हें दस मिल जाएंगे। अब एक सप्‍ताह से खुद सारे काम संभालने पड रहे हैं और वह मजे मार रही है। देखिए उसके मजे को साक्षी ने इतनी कम उम्र में पहचान लिया था। वैसे आज तबियत खराब होने के बाद भी इतने घरेलू कामों के दबाब में अचानक साक्षी की इस बात की याद आ गयी , वैसे इसी रक्षाबंधन के दिन मुझे यह बात मालूम हुई कि उसकी बेचारी मंजु दीदी तो इस दुनिया में तो अब रही भी नहीं ,
    नहीं तो मेरे मन में इन बाइयों के लिए बहुत सहानुभूति है , और वो मुझे या मैं उन्‍हें तभी छोड पाती हूं , जब मुझे घर बदलने होते है । यदि छोटी छोटी खुशियों में ही वे खुश होते हैं , तो हमारा क्‍या अधिकार बनता है उनकी खुशी को छीनने का।

    6 टिप्‍पणियां:

    1. संगीता जी ,
      बहुत बढ़िया प्रसंग उठाया आपने..

      आज महानगरों मे ऐसे कई मंजू दीदी लोगो के घर को सँवार रही है फिर भी बड़े मुश्किल से उनके बच्चों को दो व्यक्त की रोटी और स्कूल मिल पाता है.

      सहानुभूति स्वाभाविक है..
      कोई अगर उनका अधिकार छीनता है तो यह कदापि उचित नही है.

      बढ़िया प्रसंग..बढ़िया विचार

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    2. अफसोस, मंजू दीदी न रहीं..बहुत उम्दा विचार रखे हैं.

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    3. sangeeta ji
      aapne bahut hi badhiya mudda uthaya..........sach in baiyon ka jeevan bhi kya hota hai.....pal pal mar markar jeeti hain aur choti si khushi mein hi itni khush ho jati hain jaise sare jahaan ki khushi mil gayi ho aise mein hamein kya kisi ko bhi unse unki khushi chhinne ka koi kaq nhi..........bahut badhiya likha aapne.

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    4. मैं मंजू दीदी बनना चाहती हूँ ...बच्चे कई बार ऐसा जवाब दे देते हैं की बड़ों को उनके जवाब पर चौंकना पड़ता है ....बहरहाल बाइयों पर बढ़िया पोस्ट लिखी आपने ....!!

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