वो महकी कली थी....

शबनम धुली थी,महकी कली थी,
पंखुडी नाज़ुक, खुलने लगी थी,
मन के द्वारों पे दस्तक हुई थी,
वो चाहत किसी की बनी थी!
शबनम धुली थी ....

बिछुड़ने वाली थी उसकी वो डाली,
जिस पे वो जन्मी,पली थी,
उसे कुछ खबर ही नहीं थी,
पी की दुनिया सजाने चली थी,
शबनम धुली थी.. ...

बेसाख्ता वो झूमने लगी थी,
पुर ख़तर राहों से बेखबर थी
वो राह प्यारी, वो मन की सहेली,
हाथ छुडाये जा रही थी,
शबनम धुली थी.....

कहता कोई उससे कि‍ पड़ेगी,
सबसे जुदा,वो बेहद अकेली,
तो कली, सुनने वाली नहीं थी!
पलकों में ख्वाबों की झालर बुनी थी!
शबनम धुली, वो महकी कली थी,
वो महकी कली थी...

ऐसा था, यौवन के दहलीज़ पे क़दम रखना...! बचपन को भुलाना...और फिर याद करना...!

13 टिप्‍पणियां:

  1. वाह शमा जी पढकर दिल खुश हो गया बहुत ही सुंदर दिल बाग बाग हो गया बेहतरीन बधाई हो आपको

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  2. जीवन से जुडी हुई अच्छी रचना

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  3. एक खस तरह कि खुबसूरती होती है आप्की रचना मे.........

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  4. महकती हुई रचना के साथ,
    400वीं पोस्ट के लिए बधाई।

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  5. Yebhi anokha ittefaaq raha..!400 vee post!!Dhyaan nahee diya tha!!

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  6. bahut sundar shama ji,

    jaisa mai pahale bhi kah chuka hoon
    aap ki bahvatmak kavita ka jawab nahi hota hai..

    ati sundar..badhayi

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  7. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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