शबनम धुली थी,महकी कली थी,
पंखुडी नाज़ुक, खुलने लगी थी,
मन के द्वारों पे दस्तक हुई थी,
वो चाहत किसी की बनी थी!
शबनम धुली थी ....
बिछुड़ने वाली थी उसकी वो डाली,
जिस पे वो जन्मी,पली थी,
उसे कुछ खबर ही नहीं थी,
पी की दुनिया सजाने चली थी,
शबनम धुली थी.. ...
बेसाख्ता वो झूमने लगी थी,
पुर ख़तर राहों से बेखबर थी
वो राह प्यारी, वो मन की सहेली,
हाथ छुडाये जा रही थी,
शबनम धुली थी.....
कहता कोई उससे कि पड़ेगी,
सबसे जुदा,वो बेहद अकेली,
तो कली, सुनने वाली नहीं थी!
पलकों में ख्वाबों की झालर बुनी थी!
शबनम धुली, वो महकी कली थी,
वो महकी कली थी...
ऐसा था, यौवन के दहलीज़ पे क़दम रखना...! बचपन को भुलाना...और फिर याद करना...!
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वाह शमा जी पढकर दिल खुश हो गया बहुत ही सुंदर दिल बाग बाग हो गया बेहतरीन बधाई हो आपको
जवाब देंहटाएंbahut khoob.
जवाब देंहटाएंsunder
जीवन से जुडी हुई अच्छी रचना
जवाब देंहटाएंएक खस तरह कि खुबसूरती होती है आप्की रचना मे.........
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएंbachpan ko bhulana phir yaad rakhna...bahut khoob !!
जवाब देंहटाएंमहकती हुई रचना के साथ,
जवाब देंहटाएं400वीं पोस्ट के लिए बधाई।
Yebhi anokha ittefaaq raha..!400 vee post!!Dhyaan nahee diya tha!!
जवाब देंहटाएंhttp://shamasansmaran.blogspot.com
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http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
bahut sundar shama ji,
जवाब देंहटाएंjaisa mai pahale bhi kah chuka hoon
aap ki bahvatmak kavita ka jawab nahi hota hai..
ati sundar..badhayi
400 post ke liye shabhi nukkadh ke rachana karon ko badhayi..
जवाब देंहटाएंbahut badhaaai......
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंbahut hi sundar rachna
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