जब,जब पुरानी तस्वीरे
कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!
वो गाँव निगाहोंमे बसता है
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है,
जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था...
वो पेड नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!
वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है,
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा की,वो अब नही!
लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है...
बरसती बदरीको मै
बंद खिडकीसे देखती हूँ,
भीगनेसे बचती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही...
जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ,
अँधेरेसे कतराती हूँ,
पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था....
खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी,
सूखी मोलश्री मिल जाती,
हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों में भर जाती....
कितना याद दिला जाती ,
नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेकी,
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी...
यें यादे कैसी होती हैं?
कड़ी धूपमे ताज़ी रहती हैं !
ये कैसे नही सूखती?
ये कैसे नही मुरझाती ?
ये क्या चमत्कार है?
पर ठीक ही है जोभी है,
चाहे वो रुला जाती है,
दिलको सुकूँ भी पहुँचाती,
बातें पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी॥
जब पीली तसवीरें,
मेरे सीनेसे चिपकती हैं,
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है,
जब आँखें रिमझिम झरती हैं
जो खो गया, ढूँढे नही मिलेगा,
बात पतेकी मुझहीसे कहती हैं ....
शमा
('झरोखे-बचपन के' इस रचना के रचयिता को समर्पित ! जानती हूँ, बेहद अदना-सी व्यक्ति की, साधारण-सी रचना है.....फिर भी... )
कुछ याँदें ताज़ा करती हैं ,
हँसते हँसते भी मेरी
आँखें भर आती हैं!
वो गाँव निगाहोंमे बसता है
फिर सबकुछ ओझल होता है,
घर बचपन का मुझे बुलाता है,
जिसका पिछला दरवाज़ा
खालिहानोमें खुलता था ,
हमेशा खुलाही रहता था...
वो पेड नीमका आँगन मे,
जिसपे झूला पड़ता था!
सपनोंमे शहज़ादी आती थी ,
माँ जो कहानी सुनाती थी!
वो घर जो अब "वो घर"नही,
अब भी ख्वाबोमे आता है,
बिलकुल वैसाही दिखता है,
जैसा की,वो अब नही!
लकड़ी का चूल्हाभी दिखता है,
दिलसे धुआँसा उठता है,
चूल्हा तो ठंडा पड़ गया
सीना धीरे धीरे सुलगता है...
बरसती बदरीको मै
बंद खिडकीसे देखती हूँ,
भीगनेसे बचती हूँ
"भिगो मत"कहेनेवाले
कोयीभी मेरे पास नही
तो भीगनेभी मज़ाभी नही...
जब दिन अँधेरे होते हैं
मै रौशन दान जलाती हूँ,
अँधेरेसे कतराती हूँ,
पास मेरे वो गोदी नही
जहाँ मै सिर छुपा लूँ
वो हाथभी पास नही
जो बालोंपे फिरता था
डरको दूर भगाता था....
खुशबू आती है अब भी,
जब पुराने कपड़ों मे पडी,
सूखी मोलश्री मिल जाती,
हर सूनीसी दोपहरमे
मेरी साँसों में भर जाती....
कितना याद दिला जाती ,
नन्ही लडकी सामने आती
जिसे आरज़ू थी बडे होनेकी,
जब दिन छोटे लगते थे,
जब परछाई लम्बी होती थी...
यें यादे कैसी होती हैं?
कड़ी धूपमे ताज़ी रहती हैं !
ये कैसे नही सूखती?
ये कैसे नही मुरझाती ?
ये क्या चमत्कार है?
पर ठीक ही है जोभी है,
चाहे वो रुला जाती है,
दिलको सुकूँ भी पहुँचाती,
बातें पुरानी होकेभी,
लगती हैं कलहीकी॥
जब पीली तसवीरें,
मेरे सीनेसे चिपकती हैं,
जब होठोंपे मुस्कान खिलती है,
जब आँखें रिमझिम झरती हैं
जो खो गया, ढूँढे नही मिलेगा,
बात पतेकी मुझहीसे कहती हैं ....
शमा
धन्यवाद शमा जी,
जवाब देंहटाएंआपने मेरी भावनाओं की इतनी कद्र की
मैं एक बात कहना चाहता हूँ ,आपकी कविता साधारण नही है,
दिल छू जाती है,वो पल जो हम कही छोड़ आए है,कभी लौट के नही आएँगे
यही एक याद है,जो हम आप कविता मे पिरो कर पेश किए है.
आपको बहुत बहुत धन्यवाद,
वो घर जो अब "वो घर"नही,
जवाब देंहटाएंभावनात्मक रचना -- बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
कभी "नैहर " इस शीर्षक तले एक कथा लिखी थी ...उसके पूर्व , "दिन जो पखेरू होते ", इस शीर्षक तेहेत एक लेख ...
जवाब देंहटाएंलेख तो मराठी में लिखी संस्मरण पर किताब का एक हिस्सा बन गया...कहानी," नीले पीले फूल" इस हिन्दी कथा संग्रह मे शामिल कर दी...
लिखते समय नही पता था , कि , उसमेका क़रीबन हरेक शब्द सच निकलेगा ...!
"नैहर ",यह कहानी , ब्लॉग पे मौजूद है .."नीले, पीले फूल", यह शीर्षक कथा भी इसी ब्लॉग पे पोस्ट की है....जिसे 'शोध दिशा' इस त्रैमासिक में , डॉ. गिरिराज शरण अग्रवाल जी ने शामिल किया था...
http://shama-kahanee.blogspot.com