***राजीव तनेजा***
“रुक...अबे रुक"....
"ज्जी...मैँ?"....
"ओर तेरा फूफ्फा?".…
"जी...बोलिए"...
"बेट्टे!....बोलूँगा तो मैँ जरूर और सुणेगा बी तू जरूर"अपनी मूँछों को ताव दे बैरियर पे खड़ा सिपाही बोला
"हाँ जी!...बोलिए"...
"के बात?....तैन्ने दीखया कोणी यो गज भर लाम्बा... ठाढा सा(तगड़ा) पूरे अढाई किलो का हाथ?"...
"ज्जी....शायद!...म्रेरा ध्यान दूसरी तरफ था"...
"वोई तो...निकाल इसी बात पै सौ का नोट"...
"सौ का नोट?...वो किसलिए?"....
"वो इसलिए मेरे फूफ्फा...के मन्ने आज घर पै बाहमण(ब्राहमण) जीमाणे सैं"....
"तो?"...
"अरे मेरे ताऊ!....मैन्ने घण्णी कुफात(मेहनत) कर के तैन्ने रुकवाया सै के नई?"...
"जी...रुकवाया तो है"...
"तो हरजाणा कोण भरेगा?.....मैँ के तू?"...
"जी मैँ"...
"तो निकाल इसी बात पे सौ का नोट"...
"लेकिन सर!...ना तो मैँने लाल बत्ती जम्प की है और ना ही मैँ बिना ड्राईविंग लाईसैंस के गाड़ी चला रहा हूँ और हैलमेट भी मैँने 'आई.एस.आई' मार्का वाला पहना हुआ है"...
"ओ बेट्टे!...तैन्ने तो म्हारे दुश्मण देश का टोप्पा पहण्या सै"...
"ईब्ब तो बेट्टे...तू गया काम से"...
"तू जाणता कोणी....म्हारे साब जी घण्णे सख्त किस्म के इनसान सैं.....देशद्रोहियाँ ने तो वो कति ना बक्शें...किसी भी कीमत पे छोड़ें कोणी"...
"ओर आज...आज तो साब जी वैसे भी घण्णे गुस्से में सैं"......
"क्या बात?....बीवी ने कहीं.......
"स्साले!...म्हारे साब जी का मजाक उड़ावे सै?"....
"ईब्ब तो बेट्टे...तेरी खैर कोणी"....
"सुसरे!...म्हारे साब जी की दुखती रग पे हाथ रखै सै.....ईब्ब तो बेट्टे तैने तेरा बाप बी कोणी बचा सके"...
"लगा अपनी फटफटी ने सैड पे ओर अपणे इस 'आई.एस.आई' के टोप्पे ने तार के छांह मे आ ज्या"सिपाही गुस्से से चिल्लाता हुआ बोला...
"तेरा रिमांड तो बेट्टे!...ईब्ब साहब जी आप ही लेवेंगे"...
"साब जी!...इस लौण्डे ने आप ही सूधा(सीधा) करो...घण्णा कानून झाड़ रिया सै और म्हारे लाख मणा करणे के बावजूद आपके फैमिली मैटर को सरेआम पब्लिक में उछालण की कोशिश कर रिया सै"....
"कामयाब तो कोणी होया ना?"...
"म्हारे होते हुए कोई ओर क्यूँकर कामयाब हो जावेगा?"...
"के बके सै?"..
"सॉरी जनाब!...गलती से मुँह से निकल गया"...
"हम्म!...
"क्यों बे?....कित्त का सै तू?"उसे इग्नोर कर काँस्टेबल मुझे घूरता हुआ बोला...
"जी....शालीमार बाग का"....
"के बात?....घणा एण्डी बणे सै?"...
"ना जी"...
"सुण!...इस सुसरे ने अड़े छोड़ ओर तू एक काम कर"सिपाही की तरफ मुखातिब होते हुए काँस्टेबल बोला....
"जी....जी जनाब"...
"तू उस ट्राले वाल्ले से सुलट के आ....सुसरा!...बिना एंट्री दिए ही खिसकण के चक्कर में दीख रैया सै मन्ने"...
"जा!...तब तक मैँ इस सुसरे के पेंच ढील्ले करता हूँ"...
"जी जनाब"...
"ओर सर जी...हैलमेट भी पाकिस्तानियों का पहणेया सै पट्ठे ने"सिपाही काँस्टेबल के कान में फुसफुसाता हुआ बोला....
"हम्म..."काँस्टेबल ने मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से निहारा और बोला...."नाम बता"...
"ज्जी...र...र..रा..
"ओए...ये र....र...रा कर के मन्ने रागणी(हरियाणवी लोक गीत) ना सुणा ओर सीधी तरिया अपणा नाम बता"कान खुजाते हुए काँस्टेबल बोला ...
"जी...रा....राजी...
"राजी तो बेट्टे तन्ने मैँ करूँगा जब तेरे घर पै...रेड मारण तांई पूरी फोर्स भेजूँगा"....
"सूधी तरियाँ क्लीयर कट अपणा पूरा नाम बता....
"जी...राजीव"...
"जी राजीव?....के बात?...थारे में 'जी' पहले लगावें हैँ ओर 'नाम' बाद में?"...
"ना जी...नाम पहले ओर जी बाद में"....
"तो इसका मतबल्ल तेरा नाम राजीव है"....
जी"...
"ओ.के...ईब्ब अच्छे बच्चों की तरिया यो बी साफ-साफ बता दे कि तू किसके लिए ओर....कितने सालों से जासूसी करे सै?...थम्हारे...यहाँ कौन-कौन से और कितने एजेंट सैं?"
"सर!...आपको गलतफहमी हुई है...मैँ....मैँ तो पक्का खालिस देशभक्त हूँ...आप चाहें तो बेशक मेरी बीवी से पूछ लें"...
"ओए...मन्ने औरतां के मुँह लगणे का शौक कोणी"....
"माँ कसम....पक्का बाल-ब्रह्मचारी सूँ".....
"सर!...मैँ सच कह रहा हूँ....आप खुद चैक कर लें...कपड़े भी मैँ स्वदेशी याने के होम मेड इस्तेमाल करता हूँ"...
"होम मेड का मतबल्ल स्वदेशी होवे है?".....
"ज्जी...वो दरअसल मेरा मतबल्ल...ऊप्स सॉरी मेरा मतलब था कि....
"स्साले हरामखोर!...'रे बैन' का इम्पोर्टेड गॉगल लगा के मण्णे बेवकूफ बणावे सै?"....
"तेरे जीस्से छत्तीस को तो मैँ रोज झोट्टाराम के खेत में चराऊँ सूँ"...
"सर!...ये झोट्टाराम कौन?"सिपाही वापिस आ काँस्टेबल के कान में फुसफुसाता हुआ बोला...
"मेरे ताऊ का फूफ्फा...और कौण?"...
"सर!...आपको गलतफहमी हुई है...मैँ...मैँ तो....
"यो मैँ...मैँ कर के मिमियाणा छोड़ और सीधी तरह बता के कब से तू देश के साथ गद्दारी कर रहा है?"....
"सर!...मैँ तो सर सीधा-साधा लेखक प्राणी हूँ...मैँ भला अपने ही देश के साथ गद्दारी क्यों करने लगा?"...
"तू....तू लेखक सै?"मुझे ऊपर से नीचे तक गौर से निहारते हुए काँस्टेबल बोला...
"ज्जी...जी सर"...
"स्साले!...पहले क्यूँ नहीं बताया तैन्ने कि तू पत्रकार बिरादरी का बन्दा है"मेरे कन्धे पे धौल मार मुस्कराते हुए काँस्टेबल बोला....
"सॉरी!...आई.एम रियली वैरी सॉरी"काँस्टेबल के स्वर में अचानक मिठास आ चुकी थी
"माफ कीजिए..गल्ती से आपको रोक लिया....आप जा सकते हैँ"....
"बेवाकूफ कहीं के....गधे और घोड़े का फर्क समझे बिना सबको एक ही छड़ी से हांके चले जाते हैँ"काँस्टेबल सिपाही की तरफ देख बुड़बुड़ाता हुआ बोला....
"ओए!....
"जी जनाब"....
"स्साले!....देख तो लिया कर कि किसे रोकना है और किसे नहीं"....
"इतने साल हो गए यहाँ @#$%ं हुए....इतना भी नहीं पता कि किस से कैसे बात करनी है और कैसे नहीं"काँस्टेबल सिपाही पर चिल्लाता हुआ बोला...
"क्या हुआ जनाब?"...
"साहब जी तो पत्रकार बिरादरी के निकले"....
"क्या?"...
ओह!...सॉरी सर.....माफ कर दें सर...माई मिस्टेक सर..मैँ आपको पहचान नहीं पाया सर"....
"स्साले!...तेरे को कितनी बार हिन्दी में साफ-साफ समझा चुका हूँ कि अपने धन्धे में मल्लिका सहरावत की नंगी-पुंगी फिल्मों ने किसी काम नहीं आना है... असल जिन्दगी में अगर कुछ काम आएगा तो वो तेरा अपना हुनर...तेरा अपना टैलेंट काम आएगा"
"जा...जा के कहीं से फेस रीडिंग में एक्सपर्टाईज़ होने का कोर्स कर ले"...
"जी जनाब"....
"उस ट्राले वाले ने दिए के नहीं?"....
"आपके होते हुए देगा कैसे नहीं जनाब?"...
"लेकिन इतनी देर कैसे लग गई?"...
"बिना पर्चे के माल ले जा रहा था ससुरा.....मैँने बतौर जुर्माना दो हज़ार की डिमांड रखी तो सौ-दो सौ रुपल्ली दिखा मुझे टरकाने लगा कि ईब्ब तो ब्योंत कोणी...आगली बार मांगण ते पहलां ही ऊपरली गोझ(जेब) म्ह थम्हारी खातर धर लेयूँगा"....
"फिर?"मैँ उत्सुकता के मारे पूछ बैठा...
"फिर क्या?....मैँने गुस्से में ट्राला ही जब्त करने की धमकी दे डाली"....
"अच्छा ...फिर?"...
"फिर क्या?....एक ही घुड़की में धोती ढीली हो गई...पट्ठे की"...
"ये देखो जनाब....कड़कड़ाते नोट सैं"...कह सिपाही अपनी जेब की तरफ इशारा करने लगा
"बावला सै के तू?"....
"इस तरिया सड़क पे खुलेआम....मरवाएगा के?"....
"साब जी!...माफ कर दो...गल्ती हो गई"....
"अच्छा...अच्छा....छोड़ इस सब ने और उस नीली वाली सैंत्रो ने हाथ दे....सुसरा लाल बत्ती जम्प कर के निकल रिया है"...
"जी जनाब"....
"आप खड़े क्यों हैँ?...यहाँ...यहाँ मेरी बाईक पर बैठिए सर"....
"नहीं...बस रहने दीजिए....मैँ ऐसे ही खड़ा ठीक हूँ"....
"कमाल करते हैँ आप भी ...हमारे होते हुए भला आप खड़े रहें....ऐसा कैसे हो सकता है?"
"ओए!...साहब के लिए कुर्सी ला"काँस्टेबल नज़दीक खड़े जूस वाले को हुक्म देते हुए बोले
"आप क्या लेंगे सर?...ठण्डा या गर्म?"
"नहीं...रहने दो....ऐसी कोई खास इच्छा नहीं है"...
"अजी!...इच्छा को मारिए गोल्ली और अनार का ये स्पैशल जूस पीजिए"जूस वाला मेरे हाथ में गिलास थमाता हुआ बोला
"हम्म!...जूस तो वाकयी बहुत बढिया बनाया है"मैँ होंठों पे अपनी जुबान फिरा चटखारा लेता हुआ बोला....
"स्साले की शामत आनी है जो बढिया नहीं बनाएगा"जूसवाले को घूरते हुए काँस्टेबल बोला ...
"हाँ तो जनाब!...आप राजनैतिक या फिर फिल्मी?....किस तरह की पत्रकारिता करते हैँ?"...
"सर!...मैँने आपको पहले भी बताया था और अब फिर से बता रहा हूँ कि मैँ पत्रकार नहीं बल्कि एक छोटा-मोटा लेखक हूँ और हँसते रहो के नाम से अपना एक ब्लॉग चलाता हूँ"....
"स्साले!...इतनी ड्रामे बाज़ी की के जरूरत थी?...सीधी तरिया नई बता सकता था के तू एक मसखरा है"....
"मसखरा?"....
"ओर नईई तो के बहरुपिया?"...
"नहीं सर!...आप गलत समझ रहे हैँ...मैँ मसखरा नहीं हूँ"...
"तू मसखरा कोण्णी?"...
"जी"...
"तू पत्रकार बी कोण्णी?"....
"ओर तू बहरुपिया बी कोण्णी?"...
"जी सर"...
"तो फिर तू है के चीज?"...
"दरअसल....मैँ हास्य और व्यंग्य में लिखता हूँ"...
"ठीक सै!...तो फिर तू मन्ने हँसा"....
"मतलब?...मैँ आपको कैसे हँसा सकता हूँ?".....
"'छोरी %$#@ के' ...तैन्ने पूरी दुनिया को हँसाने का ठेका लिया हुआ सै ना?...
ईब्ब तू मन्ने हँसा के दिखा"काँस्टेबल गुस्से से अपना चेहरा अकड़ा के मुझ पर अपना सर्विस रिवाल्वर तानता हुआ बोला...
"सर!...आपको गलत फैमिली...ऊप्स सॉरी गलतफहमी हुई है"मैँ सकपकाता हुआ बोला...
"बेट्टे!....हँसाना तो तुझी को पड़ेगा...ईब्ब तू चाहे हँस के हँसा या फिर रो के हँसा"सिपाही भी अपना डण्डा मेरे सर पे तानते हुए बोला...
"ओफ्फो!...कितनी बार समझा चुका हूँ कि मैँ कोई जोकर या मसखरा नहीं बल्कि एक जिम्मेदार लेखक हूँ और देश के प्रति अपने कर्तव्य का पूरी ईमानदारी और निष्ठा से वहन कर रहा हूँ"...
"लोगों को हँसा के?"....
"अब मैँ लोगों को हँसाऊँ या फिर रुलाऊँ...इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन मेरा असली मकसद अपनी लेखनी के जरिए गलत हो रहे कार्यों की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करना है"....
"मैँ भी तो सुणूँ के किस तरह के गलत कामों की तरफ तू लोगों का ध्यान आकर्षित करता है ?"सिपाही गर्म हो मेरे और नज़दीक आता हुआ बोला...
"जैसे आपने अभी नाजायज़ तरीके से उस ट्राले वाले से दो हज़ार वसूले"मैँ सकपका कर पीछे हटते हुए बोला....
"तो?"...
"मैँ ऐसे ही कामों के बारे में बता के जनता को जागरूक करता हूँ"मेरी आवाज़ में दृढता थी...
"तो तेरा मतबल्ल कि जनता जो है...वो कति बेवाकूफ है?"गुस्से से बिफरता हुआ जूस वाला बोला....
"ओर ये नाजायज़-नाजायज़ के लगा रक्खा सै?"डण्डा छोड़ अपनी आस्तीन ऊपर करते हुए सिपाही बोला
"इसणे तो बेर की @#$% का पता कोण्णी....ओर चलया सै देश की जणता ने जागरूक करण खातर"काँस्टेबल का क्रोध भरा स्वर....
"जनाब!...इस कल के लौण्डे ने के बेरा कि जायज़ के होव्वे है ओर नाजायज़ के होव्वे है?"....
"ये जो प्राईवेट सकूल वाले रोज-रोज फीस बढावें सैं...यो जायज़ सै?"सिपाही भावुक हो बोल उठा....
"या ये जो पाछले ऐरियर वसूल रहए सैं...यो जायज़ सै?"काँस्टेबल ने बात पूरी की...
"वो तो पे कमीशन ने....
"पे कमीशण गया तेल लेने...इस सुसरे स्कूल वालयाँ ने पहलए घणा कमा रक्खा सै ...उस्से म्ह से थोड़ा खर्च कर देंगे तो कोई पहाड़ ना टूट पड़ेगा"....
"थम्म तो यार!...पता नय्यी कूण सी दुनिया के....कौण से जुग में जीवो हो.....थम्म ने के बेरा कि इस मँहगाई के जुग में बच्चे कीस्से पाले जावें सैं?"
"अब यार!...आप तो पढे-लिखे हो...समझदार हो...खुद जाणो हो कि बच्चे तो भगवान का रूप होवे सैं...ओर भगवान की बात हम कैसे टाल सकते हैँ"...
"जी"...
"अब परसों मेरे मंझले छोरे ने 'एडीडास' के जूतों की और तीन नम्बर वाली छोरी ने 'वन्दना लूथरा' से अपना मेक-ओवर करवाने की फरमाईश कर दी तो मैँ कैसे टाल सकता था उन्हें?...
"जी"...
"तो बस भईय्ये!...यूँ समझ ले कि इसी खातिर मैँने उस ट्राले को रुकवाया था"....
"और अब ये जो सैंत्रो को...
"इसे?...इसे तो यार...मैँने अपनी श्रीमति जी के चक्कर में......
'त्रिभुवन दास भीम जी झावेरी' के यहाँ एक पेंडेंट पसन्द कर आई है"...
"लेकिन आप तो कह रहे थे कि सिर्फ बच्चों की फरमाईश....
"जी....बिलकुल!...तुम तो जानते ही हो कि मुझे बच्चों से कितना प्यार है?....बस छुटकी को बड़ा हो जाने दीजिए...उसी को उसके सोलहवें बर्थडे पर गिफ्ट कर दूंगा"...
"यू नो!...तीन महीने बाद वो पूरे स्वीट सिक्सटीन की हो जाएगी"काँस्टेबल के चेहरे पे गर्व भरी मुस्कान थी...
"ओह!...काँग्रैचुलेशन....मेरी तरफ से एडवान्स में ही बधाई स्वीकार करें"...
"क्यों?...एडवांस में क्यों?"...
"एडवांस में इसलिए कि...क्या मालुम कल हों ना हों"...
"खबरदार!...जो मुँह से कोई अशुभ या अनहोनी बात निकाली...मुझ से बुरा ना कोई होगा".....
"अरे यार!...मैँ तो बस ऐसे ही..
"ना...ये तो बिलकुल गलत बात है.....ना कोई मिठाई....और ना ही कोई गिफ्ट...ऐसी फोक्की बधाई तो आपको ही मुबारक"..
"हा...हा....हा...जस्ट किडिंग यार...आप तो काम के बन्दे हैँ.....आपसे क्या गिफ्ट लेना?"...
"मैँ भी...मैँ भी तो बस ऐसे ही मज़ाक कर रहा था"....
"पुलिस वाले से मज़ाक?"काँस्टेबल का रौद्र रूप...और फिर अचानक ज़ोर से हँसी..."हा...हा...हा...हा....डर गए ना?"...
"यार!....अभी तो तीन महीने पड़े हैँ...और अब जब जान-पहचान हो ही गई है...अब तो हमारा-आपका मिलना-जुलना होता ही रहेगा ना?"...
"जी...बिलकुल"...
"लेकिन ये एडवांस में बधाई-वधाई बिलकुल नहीं चलेगी....ग़्राँड हयात में पार्टी दे रहा हूँ....आपने भी आना है...और ध्यान रहे कि भाभी जी को ज़रूर लाना है"...
"और बच्चे?"....
"क्या उन्हें घर पर ही छोड़ कर?....
"हाँ-हाँ!...क्यों नहीं?....तुम एक काम करना...उन्हें डब्बे में बन्द कर ...बाहर से ताला लगा....
"?...?...?...?"....
"बेवाकूफ!....बच्चों के लिए ही तो पार्टी दे रहा हूँ और तू है कि उन्हें ही घर पे छोड़ कर आने की बात कर रहा है?"..
"कैसा निर्मोही दोस्त है रे तू?".....
"चल!...माफी माँग मुझ से"...
"सॉरी यार!...माफ कर दे मुझे"...
"ना...बिलकुल ना"....
"पहली गलती है यार"....
"आज पहली गलती कर रहा है...कल को दूसरी गलती करेगा और परसों को तीसरी"...
"इतना ज़लील तो ना कर यार मुझे"...
"तू है ही इसी लायक"...
"प्लीज़!....माफ कर दे ना मुझे"मेरी आँखों से आँसुओँ की अविरल धारा बह चली....
"पागल कहीं का...कैसे बच्चों की तरह रो रहा है"काँस्टेबल भी अपने आँसू पोंछ मुझे गले लगाता हुआ बोला
"क्या जनाब?...आप दोनों तो बिलकुल बच्चों की तरह रोते हैँ"हमें रोता देख सिपाही की आँखो से भी आँसू बह निकले ...
"हम सब को रोता देख जूस वाले से भी रहा ना गया और वो भी धाड़ मार-मार के रोने लगा"
"चुप हो जाएँ जनाब...यूँ सड़क पर ऐसे रोने से अपने बिज़नस पे गलत अफैक्ट पड़ेगा"सिपाही कमीज़ से अपने आँसू पोंछ समझदारी से काम लेता हुआ बोला
"यस!...यू ऑर राईट....बिज़नस कमज़ ऑलवेज़ फर्स्ट"काँस्टेबल भी भावुकता छोड़ अटैंशन मुद्रा में आ गया....
"जी!....धन्धा पहले...बाकी सब काम बाद में"...
"हाँ!...रोक...रोक उसे...स्साला मोबाईल पे बात करता हुआ गाड़ी चला रहा है"....
"जी जनाब"कहते ही सिपाही से बीच सड़क के छलांग लगा दी...
"और सुनाओ...घर में सब ठीकठाक?"...
"जी बिलकुल"....
"कोई दिक्कत या परेशानी?"...
"ना जी"...
"कोई भी...किसी भी तरह का....कैसा भी काम हो....बिना किसी प्रकार की झिझक के तुरंत मुझे याद कर लेना"...
"जी...बिलकुल"...
"चाहे मई-जून का टिप-टिप कर टपकता महीना हो या फिर हो ....जुलाई-अगस्त का लू भरा महीना ...बन्दे को हमेशा अपने साथ...अपने दिल के करीब पाओगे"...
"जी...शुक्रिया"....
"यार!...एक बात पूछनी थी तुमसे"...
"एक क्या...दो पूछो...जी में आए तो बेशक सौ पूछो"...
"ये जो तुम नैट पे लिखते हो....
"जी"...
"ये पूरी दुनिया तक पहुँच जाता है?"...
"जी..बिलकुल"..
"इधर लिखा और उधर बटन दबाया...बस पूरी दुनिया के सामने हमारा लिखा तुरंत के तुरंत पहुँच जाता है"...
"इधर लिखा और उधर बटन दबाया?"...
"जी"...
"इसका मतलब लिखा कहीं और जाता है और बटन कहीं और दबाया जाता है?"...
"नहीं!...जिधर लिखा जाता है...उधर ही बटन दबाया जाता है"...
"लेकिन तुमने ही तो अभी कहा कि इधर लिखा और उधर....
"ओफ्फो!...ऐसे सिर्फ कहा जाता है...किया नहीं जाता है"....
"अब यार!...मुझे क्या पता?...मैँ ठहरा मोलढ इनसान"....
"अरे वाह!...मोलढ भी कह रहे हो और इनसान भी"...
"अरे यार!...मेरा मतलब था कि तुम खुद तो कम्प्यूटर के महाज्ञानी हो और मुझे इसका 'क.ख.ग' भी नहीं आता...मुझे क्या पता कि क्या चीज़ ...कैसे करते हैँ"...
"चिंता ना करो...दो-चार दिन मेरे साथ रहोगे तो सब सीख जाओगे"....
"पक्का?"...
"बिलकुल पक्का"....
"थैंक्स"...
"किस बात का?".....
"कम्प्यूटर....
"एक बात कान खोल के सुन लो तुम मेरी"...
"जी"...
"यारी-दोस्ती में नो थैंक्स...नो शुक्रिया"....
"ओ.के...ओ.के बाबा....नो थैंक्स...नो शुक्रिया"...
"यार !...एक काम था तुमसे"...
"जब तुम्हें दिल से अपना मान लिया है तो एक क्या...दो काम कहो"....
"क्या तुम मेरा इंटरव्यू छाप सकते हो?"...
"हाँ-हाँ!...क्यों नहीं"...
"तो फिर छापो"....
"अभी?"...
"हाँ...अभी...अभी छापने में क्या दिक्कत है?"....
"अभी तो यार!...मेरे पास ना यहाँ कोई कागज़ है ना ही लैपटॉप"...
"कागज़ की तुम चिंता ना करो...अपने पास सब जुगाड़ हैँ"...
"ये लो"कह काँस्टेबल ने अपनी पूरी चालान बुक ही मेरी हथेली पे धर दी
"ये क्या?...ये तो सरकारी चालान बुक है"...
"तुम्हें सरकारी या गैर-सरकारी से आम लेने हैँ?"...
"तुम्हें कागज़ चाहिए ना?"....
"जी"...
"और वो मैँ तुम्हें दे रहा हूँ"...
"लेकिन....
"अरे!...लेकिन-वेकिन...किंतु-परंतु को मारो गोली और इस चालान बुक को पलट कर देखो....पीछे से ब्लैंक है"....
"लेकिन सरकारी संपत्ति का ऐसे दुरप्योग?"....
"अरे!...सरकारी कहाँ?...मैँने खुद अपने पल्ले से छपवाई हैँ"...
"ये देखो!...सरकारी वाली तो डिक्की में पड़ी है"काँस्टेबल अपनी बाईक की डिक्की खोल मुझे दिखाता हुआ बोला
"यू मीन...आपने खुद?...अपनी जेब से?...अपना पैसा खर्च कर के छपवाई हैँ?"...
"हाँ यार!...खुद ही छपवाई हैँ...कसम से"काँस्टेबल अपने कानों को हाथ लगा सफाई सी देता हुआ बोला
"पैसा भी आपका...खुद का ही था?"मुझे विश्वास नहीं हो रहा था
"भगवान झूठ ना बुलवाए...पैसा तो आम पब्लिक से ही वसूला हुआ था"...
"याने के रिश्वत का था"मैँ निर्णय पे पहुँचते हुए बोला....
"यार!...पैसा...पैसा होता है...चाहे वो रिश्वत का हो या फिर हक-हलाल की कमाई का"...
"क्या फर्क पड़ता है?"...
"अरे वाह!...फर्क क्यों नहीं पड़ता?"...
"कोई फर्क नहीं है दोनों में...बाज़ार में दोनों एक ही दाम पर चलते हैँ"...
"जी नहीं...अगर हक-हलाल की कमाई होगी तो आप उसे सोच-समझ के खर्च करेंगे और अगर कमाई गलत तरीके से की गई है तो आप पैसे को अनाप-शनाप तरीके से उड़ाएँगे"...
"हाँ उड़ाऊँगा!...एक नहीं सौ बार उड़ाऊँगा...किसी को जो करना हो...कर ले"...
"मेरा....मेरी मेहनत का पैसा है...मैँ उसका जो चाहे करूँ...तुम होते कौन हो मुझे रोकने वाले?"काँस्टेबल का पारा हाई हो चला था
"मेहनत का पैसा अगर होता तो आप ग्राँड हयात में पार्टी नहीं रखते"....
"तो क्या यार-दोस्तों को खाना भी ना खिलाऊँ?"....
"खाना तो आप घर पे भी खिला सकते हैँ"...
"हाँ!...घर में भी खिला सकता हूँ लेकिन फिलहाल मेरा इरादा अपनी नाक कटवाने का नहीं है"...
"अड़ोसी-पड़ोसी....नाते-रिश्तेदार...सभी तो जानते हैँ मुझे".....
"क्या सोचेंगे वो?...कि पॉश इलाके में तैनात दिल्ली पुलिस के इस काँस्टेबल की इतनी औकात भी नहीं है कि वो ढंग से चार बन्दों को खाना भी खिला सके"...
"मेरी खिल्ली नहीं उड़ाएँगे?"...
"और तुम?....लेखक बिरादरी के टटपूंजिए लोग...तुम क्या जानों की मेहनत से कमाना किसे कहते हैँ?"...
"क्यो?....क्या हम मेहनत नहीं करते हैँ?"...
"जनाब!...आराम से पक्की छत के नीचे बैठ...उलटी-सीधी ऊँगलियाँ टकटका लेने को मेहनत नहीं कहा जाता"...
"तो फिर किसे कहा जाता है?"...
"ये जो हम तपती दोपहरी में खुले आसमान के नीचे धूल और धुआँ फाखते हुए जो मर-खप्प के दिहाड़ी बनाते है...उसे मेहनत कहते हैँ"...
"रहने दीजिए जनाब....रहने दीजिए...कितनी बार तो मैँने खुद अपनी इन्हीं आँखो से आपको मैट्रो स्टेशन के नीचे या फिर किसी पेड़ की छांह तले आराम फरमाते-फरमाते लोगों से पैसे वसूलते देखा है"....
"तुम्हें पेड़ की छांह के नीचे खड़े हो हमारा आराम फरमाना तो दिख गया लेकिन हम जो झाड़-झंखाड़ों के बीच छुप के काले सियारों का शिकार करते हैँ...वो तुम्हें दिखाई नहीं देता?"सिपाही से बोले बिना रहा नहीं गया...
"ये काले सियार कौन?"...
"कानून तोड़ने वाले...और कौन?"काँस्टेबल मेरी जिज्ञासा शांत करता हुआ बोला...
"तुम क्या जानों कि इस चक्कर में ना जाने कितनी दफा मेरी खुद की कोहनी...पीठ...लहुलुहान हो छिल चुकी है"काँस्टेबल बाज़ू ऊपर कर अपनी फूटी हुई कोहनी दिखाता हुआ बोला...
"पंगा तो पहले आप खुद लेते हैँ और बाद में शोर भी आप भी खुद ही खुद मचाते हैँ"...
"मतलब?"...
"आखिर आपको झाड़-झंखाड़ में घुस कर अपनी ऐसी-तैसी करवाने की ज़रूरत ही क्या होती है?"...
"आए-हाय...क्या ज़रूरत होती है?"...
"पब्लिक को इतना सीधा समझ रक्खा है क्या"...
"मतलब"...
"अरे!..आजकल की पब्लिक बड़ी चलती-पुर्ज़ी याने के चालू टाईप की है"....
"कैसे?"...
"अगर उसे ज़रा सी भी...तनिक सी भी भनक लग जाए कि हम लोग वाच कर रहे हैँ...तो एकदम गऊ के माफिक सीधी हो जाती है"....
"वो कैसे?"...
"कोई कानून ही नहीं तोड़ती है...यहाँ तक की पैदल चलने वालों से भी पूरी इज़्ज़त के साथ पेश आती है"...
"ओह!...
"इसी कारण हमें छुप कर उन्हें कानूनन...कानून तोड़ने के लिए बाध्य करना पड़ता है"...
"जी"...
"लेकिन ये सब तो गलत है कि पहले आप खुद ही लोगों को उकसा के कानून तोड़ने पे मजबूर करो और बाद में इसी जुर्म के लिए उनकी धर-पकड़ करो"...
"अब भईय्ये!..अगर सीधी ऊँगली से घी निकल जाए तो हम अपनी ऊँगली टेढी ही क्यों करें?"...
"लेकिन...
"इस लेकिन-वेकिन और किंतु-परंत को ठण्डे बस्ते में डाल के ध्यान से मेरी बात कान खोल के सुनो"...
"जी..."कान को हलके से उमेठते हुए मैँने जवाब दिया ...
"सबकी बात तो मैँ नहीं करता लेकिन मुझ में और मुझ जैसे कईयों में शराफत अभी बाकी है"...
"मतलब?"...
"हमारा ज़मीर अभी ज़िन्दा है...इस नाते हमें खुद अच्छा नहीं लगता कि हम ऐसी हराम की कमाई को हाथ भी लगाएँ लेकिन.....
"लेकिन?"....
"क्या करें?...हमारी भी अपनी मजबूरिया होती हैँ"....
"अजी छोड़िए...मजबूरियाँ होती हैँ....ये सब आप मर्ज़ी से....अपनी खुशी से....अपने ज़मीर को गिरवी रख के करते हैँ"...
"नहीं...झूठ!...झूठ है ये बिलकुल....तनिक भी इसमें सच्चाई नहीं है"सिपाही रुआँसा हो बोल उठा...
"क्या तुम जानते हो इस बीट पर ट्रांसफर करवाने के एवज में हर महीने मुझे पन्द्रह लाख रुपए की मंथली ऊपर 'एस.एच.ओ' को भेजनी पड़ती है?"...
"पन्द्रह लाख?"मेरा मुँह खुला का खुला रह गया...
"जी हाँ जनाब!...पूरे पन्द्रह लाख...ना एक पैसा कम ...ना एक पैसा ज़्यादा"काफी देर से चुप जूस वाला बोल पड़ा...
"ना एक पैसा कम...ना एक पैसा ज़्यादा?"मुझे विश्वास नहीं हो रहा था...
"अगर किसी के पास दो-चार सौ कम हों तो?"मैँने शंका प्रकट की....
"नहीं...बिलकुल नहीं....रूल इज़ रूल"....
"हमारे यहाँ कानून सबके लिए बराबर है...उसकी नज़र में कोई छोटा नहीं...कोई बड़ा नहीं"...
"कोई अपना नहीं...कोई पराया नहीं"सिपाही ने बात पूरी की....
"तो क्या कानूनन आपको ये रकम देनी पड़ती है?"...
"अरे!...अगर कहीं किसी नीलामी में हम कोई बोली लगाएँगे तो हमें वही बोली की रकम देनी पड़ेगी कि नहीं"...
"जी...देनी तो पड़ेगी"...
"तो फिर कम या ज़्यादा से क्या मतलब?"...
"लेकिन नीलामी अलग चीज़ है और आपका काम अलग चीज़....इस से आपके काम का क्या कनैक्शन?"...
"अरे!..जैसे पुराने माल...पुरानी गाड़ियों की नीलामी होती है कि नहीं?"...
"जी...होती है"....
"तो बन्धु मेरे!...ठीक वैसे ही हमारे यहाँ थाने में आने वाली बीटों और डिवीज़नों की नीलामी होती है"सिपाही मुझे समझाता हुआ बोला...
"ओह...अच्छा"...
"तो क्या ये बोली साफ-सुथरे और निष्पक्ष तरीके से?.....
"100%"...
"बेशक हमारा धन्धा बे-ईमानी का सही लेकिन होता पूरी ईमानदारी से है"...
"सबके सामने खुले में बोली होती है...अपना जिसको जिस बीट या डिवीज़न की दरकार होती है...वो उस हिसाब से बोली लगाता है"...
"ओह!...अच्छा"...
"ये पैसा हर महीने आप 'एस.एच.ओ' को?"...
"जी"....
"तो क्या 'एस.एच.ओ' अकेला ही?".....
"अब ये तो भगवान जाने कि अकेला डकार जाता या फिर और ऊपर तक चढावा चढाता है लेकिन इतना ज़रूर पता है कि पिछले महीने हमारे उसने गुड़गांव की एक मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में छै कमरों का एक शानदार लग्ज़रियस अपार्टमैंट खरीदा है".....
"जनाब!..'टी.डी.पी' मॉल में उनके शानदार ऑफिस के बारे में बताना तो भूल ही गए"सिपाही काँस्टेबल की तरफ मुखातिब होता हुआ बोला...
"वाह!...क्या ऑफिस खरीदा है..वाह-वाह"जूस वाला भी हाँ में हाँ मिलाता हुआ बोला...
"इसमें वाह-वाह की क्या बात है?...उससे शानदार तो मेरा डिफैंस कालौनी वाला बँगला है और उसके वरसोवा वाले शो-रूम से कई गुना बड़ा और महँगा मेरा घाटकोपर वाला मॉल है "'एस.एच.ओ' की तारीफ सुन काँस्टेबल भड़क उठा...
"हुँह!...बड़ा आया शो-रूम वाला"...
"दिल तो करता है कि किसी दिन ऊपर...जॉइंट कमिश्नर तक ई-मेल भेज के सारे कच्चे चिट्ठे खोल के रख दूँ इस 'एस.एच.ओ' के बच्चे के कि कैसे ये डिवीज़नों की और बीटों की नीलामी लगवाता है"...
"स्साला!...मुझ से पंगा लेता है"...
"साब जी...क्या बिगाड़ा है 'एस.एच.ओ' साहब ने आपका?"...
"ये तुम?...तुम मुझ से पूछ रहे हो शुक्ला?"...
"जानते नहीं कि इस बार घंटाघर चौक की कमाऊ बीट मैँने अपने लिए माँगी थी लेकिन उस स्साले...हराम के &ं%$#@ ने वो उस तिवारी के बच्चे को लॉलीपॉप की तरह थमा दी"...
"उसके पैसे...पैसे हैँ और मेरे पैसे......
"जमाई लगता है क्या वो उसका?".....
"साब जी!...जाने दीजिए"...
"इस हमाम में हम सभी तो नंगे हैँ...क्यों बेकार में पंगा लेते हैँ?....खाने दीजिए ना उसे...हम भी तो खा रहे हैँ"...
ऊपरवाला सब देख रहा है...अपने आप सबक दे देगा"...
"अरे!...ऊपरवाला अगर देख रहा होता तो वो ये भी देखता कि हम तो बस चख रहे हैँ...असल में खा तो वो भैण का टका रहा है...खा नहीं...बल्कि डकार रहा है"....
"ना!...ना जनाब ना"....
"मैँने आज तक आपकी हर बात में हाँ में हाँ मिलाई है लेकिन इसका ये मतलब नहीं हो जाता कि मैँ आपकी गलत बातों को भी जायज़ ठहराऊँ"सिपाही से बिना बोले रहा ना गया....
"हाँ जनाब!...यहाँ तो मैँ भी आपसे सहमत नहीं हूँ....मैँने खुद उनको कई बार इन्हीं हाथों से जूस पिलाया है लेकिन....
"जी जनाब!...मैँने खुद कई बार 'शेर-ए-पँजाब' ढाबे में उनके साथ डिनर किया है लेकिन कसम है मुझे उस खुदा...उस परवरदिगार की जो मैँने कभी डकार मारते हुए देखा हो"...
"जी...मैँने भी उनके बारे में कभी ऐसी खबर ना पढी और ना ही सुनी लेकिन हाँ...ये डकार मारने की बात पे याद आया कि मैँ तो घर खाना खाने जा रहा था बीवी काफी देर से इंतज़ार कर रही होगी"...
"ओह!....
"तो मैँ चलूँ?"...
"लेकिन मेरा इंटरव्यू?"....
"हो तो गया"..."कब?"...
"अभी...और कब?"...
"मतलब?"...
"मैँ ये जो आपसे इतनी देर से बात कर रहा था"...
"तो?"...
"वो आपका इंटरव्यू ही तो ले रहा था"...
"लेकिन तुमने कुछ लिखा तो है ही नहीं"...
"अरे!...कागज़-कलम और दवात का ज़माना तो कब का बीत गया"....
"ये देखो"...
"ये क्या है?"....
"एम.पी.थ्री' प्लेयर कम वॉयस रेकार्डर..आपकी सारी बातें रेकार्ड कर ली है मैँने"..."ओह!...तुम तो यार...छुपे रुस्तम निकले"...
"जी...अपना काम ही कुछ ऐसा है"....
"लेकिन यार!...वो 'श्रीमान 'एस.एच.ओ' जी के खिलाफ जो मैँने टिप्पणियाँ की थी...
"जी"...
"वो तो बस ऐसे ही मज़ाक-मज़ाक में....
"ज़रा सा बहक गए थे?"...
"ज्जी...जी बिलकुल"...
"प्लीज़!..उनसे रिलेटिड बातों को मत छापना"...
"हाँ-हाँ!..क्यों नहीं"...
"शुक्रिया"....
"निकाल!...इसी बात पे सौ का नोट"...
"हा...हा...हा...(सम्वेत स्वर)
***राजीव तनेजा****
Rajiv Taneja(India)
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+919810821361
+919213766753
बाप रे बाप!!
जवाब देंहटाएंघणा ढेर सारा लिक्ख रक्खा है रे तूने तै।
मजा आ गया।
हम्म लगता है कि बाजिब है सौ का नोट :-)
जवाब देंहटाएंबोली हरियाणवी और दिक्कत जन जन की। सौ के नोट की अभी भी इतनी साख है जानकर अच्छा लगा और वो भी इस घनघोर मंदी में।
जवाब देंहटाएंयदि बुरा न माने तो इमानदारी से कहना चाहूंगा कि जहाँ तक हरियाणवी भाषा का प्रयोग किया गया है, वहाँ तक तो आपकी ये व्यंग्य रचना बहुत जबरदस्त बन पडी है,किन्तु उससे आगे तो ऎसा लग रहा था कि जैसे इसे जबरदस्ती खींचा जा रहा है।....आशा है कि आप इसे अन्यथा न लेंगे।
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