सदियों से हम अपनी सुविधा के लिए प्रकृति से छेड़ छाड़ करते आ रहे हैं। कभी नदियों को तोड़ मरोड़ देते हैं, कभी हवा में मौजूद गैसों का संतुलन बिगाड़ देते हैं। कभी कृत्रिम वर्षा ही करवा देते हैं। हमारी करतूतों की कोई सीमा नही है, अभी भी निरंतर टेक्नोलॉजी के नाम पर जाने क्या खोजा जाना रह गया है।
किंतु औसतन चार से छः फीट लम्बाई वाले मनुष्य की इन हरकतों पर कभी कभी १२७४२ किलोमीटर व्यास वाली पृथ्वी थक हार कर जब हलके से कन्धा उचका देती है या भोंहें ततेर देती है तो उतने में ही ऐसा सैलाब आ जाता है की मानव को अपनी हैसियत पता चल जाती है।
अभी कुछ दिनों पहले अपनी अत्याधुनिक तकनीक का दम भरता A330 जब aदृश्य हुआ तो हम मानवों को अब तक यही पता न चल पाया की वह किस गर्त में जा छिपा है। क्या कर पाये हम उस वक्त जब एक विमान के अदृश्य होने की सूचना मिली, जब यह उम्मीद कायम थी की कुछ भी हो सकता है। क्यों कुछ ही घंटों में विमान यात्रियों के परिजनों को सहानुभूति जारी हो गई, जबकि तब तक तो कुछ भी पता न चला था की विमान किस हालत में है, कहाँ है। क्योंकि हमारे पास उस महासागर की अथाहता के समक्ष नतमस्तक होने के अलावा कोई चारा न था। नही थी हमारी हैसियत उससे संघर्ष करने की।
उसी तरह जब टाइटैनिक जैसा उत्कृष्ट माना जाने वाला जहाज एक बर्फ की शिला से धराशाई हुआ तो भी हमारे पास कोई चारा नही था यह मानने के अलावा की प्रकृति जब चाहे मनमानी करे, हमारे अरबों खरबों डॉलर वाले जहाजों को उठा कर पटक दे, उसमें सवार सैकडों हजारों निर्दोषों को अपने आगोश में ले ले, हमारे पास कंधे उचकाने के अलावा कोई चारा नही होता। क्या कीजियेगा, नोटिस जारी कीजियेगा? चार्जशीट डालियेगा? कैसे प्रकृति को उसके इन मनमानियों की, इन 'गुनाहों' की सज़ा दी जाए।
असल में प्रकृति कोई गुनाह नही करती, बस हमारे गुनाहों की हमें सज़ा देती है। हमने उससे छेड़ छाड़ की, तो वो भी तो हमसे करेगी न।
लेकिन इसका कोई उपाय नही। आज की ताराख में मेरे पास कोई तर्क नही यह कहने का की हम सब तरक्की व नए प्रयोग वगैरह छोड़कर प्रकृति के समक्ष घुटने टेक दें। जैसे वो चलाये वैसे चलें। फ़िर तो हमें जंगलों में जाकर शिकार करना व होना पड़ेगा।
इसलिए चुपचाप देखते हैं आगे आगे क्या होता है। कैसे प्रकृति व मानव का यह संघर्ष आगे बढ़ता है व मंजिल तक यानी विनाश तक पहुँचता है। वैसे भी एक दिन तो सब ख़त्म होना है, जैसे ही सूर्या देव अपनी नियति को प्राप्त होंगे वैसे ही हमारी (मतलब हमारी पीढियों की) नियति भी लिखी जायेगी।
कितने गौण हैं हम प्रकृति के समक्ष
Posted on by बेनामी in
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
0 comments:
एक टिप्पणी भेजें
आपके आने के लिए धन्यवाद
लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद