नि:संदेह देह देह ही है देह भी नहीं नि:संदेह
देह खिलाती है गुल
बत्ती करती है गुल
विवेक की
मन की
जला देती है
बत्ती तन की।
देह सिर्फ देह ही होती है
होती भी है देह
और नहीं भी होती है देह।
देह धरती है
दिमाग भी
देह में बसती है आग भी
देह कालियानाग भी
देह एक फुंकार भी
देह है फुफकार भी।
देह दावानल है
देह दांव है
देह छांव है
देह ठांव है
देह गांव है।
देह का दहकना
दहलाता है
देह का बहकना
बहलाता नहीं
बिखेरता है
जो सिमट पाता नहीं।
देह दरकती भी है
देह कसकती भी है
देह रपटती भी है
देह सरकती भी है
फिसलती भी है देह।
देह दया भी है
देह डाह भी है
देह राह भी है
और करती है राहें बंद
गति भी करती मंद।
टहलती देह है
टहलाती भी देह
दमकती है देह
दमकाती भी देह
सहती है देह
सहलाती भी देह।
मुस्काती है
बरसाती है मेह
वो भी है देह
लुट लुट जाती है
लूट ली जाती है
देह ही कहलाती है।
देह दंश भी है
देह अंश भी है
देह कंस भी है
देह वंश भी है
देह सब है
कुछ भी नहीं है पर
कृष्ण भी है देह।
देह के द्वार
करते हैं वार
उतारती खुमार
चढ़ाती बुखार
देह से पार
देह भी नहीं
देह कुछ नहीं
नि:संदेह।
नि:संदेह देह देह ही है देह भी नहीं नि:संदेह
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निःसंदेह-
जवाब देंहटाएंटिपियाती है देह...
बढ़िया.
ऐसी कविता पहले मैंने कभी नहीं पढ़ी, बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएं--
चाँद, बादल और शाम
सरकारी नौकरियाँ
देह देह तो है ही। देह उस से भी आगे बहुत कुछ है। पर बहुत कुछ के लिए देह जरूरी है।
जवाब देंहटाएंbahut sundar bhav.
जवाब देंहटाएंदेह के बारे में अच्छा आध्यात्मिक वर्णन
जवाब देंहटाएंअविनाश जी समसामायिक विषय पर कविता प्रस्तुत की । ज्वलंत मुद्दा अच्छा लगा । साथ ही आपने देह पर बहुत कुछ सोच डाला । अच्छी कविता के लिए बधाई ।
जवाब देंहटाएंbahut hi sunder shabdo ka sangam hai..
जवाब देंहटाएंlikhi raheya.... kaun jaane aapka lekhan kisi ke liya prerna ban jae
देह बहुत झाम वाली चीज है जी! यह इंसान को विदेह बनने से रोकती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लिखा आपने !!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया प्रयास किया है आपने मानव को की सोच को विदेह बनाने की दिशा मॅ. आखिर देह तो हम है ही नहीं. लिकेन सारा प्रपंच इस देह के लिये ही करने मॅ जीवन खो रहा है. देह की निरर्थकता समझाने के लिये सुन्दर कविता के लिये बधाई.
जवाब देंहटाएंबढ़िया है भाई यह देहगाथा !
जवाब देंहटाएंअत्यंत श्रेष्ठ एव अनुभूत काव्य ! आपने आनंद विभोर कर दिया वाचस्पति जी ! साधुवाद नीचे की पंक्तियों के माध्यम से दे रहा हूँ | बस, मेरे अवगुन चित न धरें ! : -
जवाब देंहटाएं(१)
देह देह है, देह धरा है |
देह दान की परम्परा है |
(२)
देश देह से, देह देश से |
देश बिना यह देह निःशेष है |
(३)
देह भवन है देह भुवन है |
मन माली और यह उपवन है |
सींच सींच पर देह संवारें |
तो आनंदघन ह्रदय पधारें |
|| समाप्त ||
- RDS
पढने के लिए भी और पढाने के लिए भी देह का होना ज़रूरी है....यहाँ तक कि टिपियाने के लिए भी देह का होना आवश्यक है...
जवाब देंहटाएंनिसंदेह बढिया कविता...
ओशो टाइम्स की संपादक सुश्री अमृत साधना की ई मेल पर प्राप्त प्रतिक्रिया :-
जवाब देंहटाएंकविता देह नि:सँदेह बहुत ही प्रेरणादायी है. लगता है जैसे किसी आध्यात्मिक अनुभूति के बाद लिखी गई हो. देह की इतनी सँवेदनशीलता भारतीयोँ मेँ बहुत कम दिखाई देती है. हमारे लिए तो देह माया है न! "कागज है, गल जायेगा" इत्यादि