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सरपंच: मलाई का प्रपंच
सरपंच रचे सबविधि प्रपंच। सरपंच शब्द जहन में आते ही एक दिव्य शक्ति का बोध होता है इसलिए नहीं कि इस मायावी शब्द पद का पहला आधा भाग 'सर' अंग्रेजी का एक ताकतवर संबोधन है और दूसरा यानी अंतिम भाग पंच भी इस फिरंगी भाषा का अन्य ऐसा शब्द जो अपने बल के जरिए रोम रोम बींध डालता है। पंच का हिन्दी अनुवाद छेदक ही किया जाएगा। ऐसी शक्तियों का स्वामी होता है सरपंच जो अपनी शक्तियों के बल परगांवों की न्याय प्रक्रिया में अनेक छेद करने की अकूत हैसियत रखता है।
'सर' शब्द की महिमा का बखान करना अंग्रेजी या अंग्रेजों के पाले में अपनी फुटबाल घुसेड़कर विजय हथियाने जैसा है। किसी को भी मान देने या काम निकालने के लिए अथवा फोन पर नहीं है , तो 'हैलो' के स्थान पर 'सर' का संबोधन ही रामबाण सिद्ध होता है। 'सर' के उच्चारण मात्र से ही कठिन से कठिन और दुर्लभ कार्य भी सुगम हो जाते हैं। सामने वाला कब बिना बर्फ बने पानी हो गया आपको पता भी नहीं चलेगा और वो भी ठंडा मतलब कोका कोला वाला। यह पानी जो पानी होते हुए भी जापानी नशा देता है। पीने वाले को चाहे न दे, बनाने बेचने वाले इसके नशे के आदी हो जाते हैं । इसके बेचने से इतनी आय होती है कि यह ठंडा पानी बैंक खातों में गजब की गर्मी ला देता है।
सरल शब्दों में कहा जाए तो सरंपच का सान्निध्य पाकर दुर्लभ कार्य भी सहज ही संपन्न हो जाते हैं। वैसे मानव शरीर की रचना में जो पांच तत्व शामिल हैं उनका अहसास भी यह 'सर' के साथ जुड़ा 'पंच' कराता चलता है। गांवों में न्याय की जो प्रक्रिया पंचायत के जरिए परवान चढ़ती है उसका सर्वेसर्वा सरपंच, रचता हर विधि षड़यंत्र। इसको हम मुख्य न्यायाधीश भी मान सकते हैं। जबकि सरपंच के अधिकार इतने असीम होते हैं कि उनके दुरूपयोग को भी सच मानने के सिवाय अन्य कोई विकल्प मौजूद नहीं है और इसी में ग्रामीण जनता का लाभ है। सरपंच शब्द का ध्यानपूर्वक मनन किया जाए तो पहला और अंतिम अक्षर मिलकर जिस सच का निर्माण करते हैं उस सच को बेसच बनाने का पॉवर किसी की भी नहीं है। सरपंच की निगाह में जो सच है, वही सच रहेगा। इसे तो सनातन ही मान लेना सदा हितकर है।
गांवों के विवादों, मसलों के निबटारे के लिए पंचायत की शक्तियां सीमित होते हुए भी असीमित होती हैं और इन असीमित शक्तियों का स्वामी सरपंच होता है। सरपंच को गांव का भाग्यविधाता मानने से भी किसी को गुरेज नहीं होगा। प्रत्येक समारोह की अध्यक्षता करना इनका जन्मसिद्ध अधिकार है।
गांवों में पंचायत का आयोजन पेड़ की छाया में ही होता है पर जहां पेड़ सदा देने के लिए ही जाने जाते हैं। सरपंच की साख लेने वाली बन चुकी है। वे दिन अतीत की स्मृतियां बन चुके हैं जब मुंशी प्रेमचंद के पंच परमेश्वर की कहानी के पात्र अलगू चौधरी सरीखे सरपंच हुआ करते थे। परमेश्वर तो अब भी होते हैं। पर वे अब अपनी शक्तियों के दोहन के प्रति जागरूक हो चुके हैं। पहले वे जनहित के लिए प्रख्यात थे पर अब ममहित के लिए कुख्यात हैं। पेड़ देते हैं तो लेते कुछ भी नहीं पर सरपंच बिना लिए कुछ दे दें, ऐसा इस कलियुग में संभव नहीं है। प्रेमचंद के पंच न तो किसी के दोस्त थे न दुश्मन। पर आधुनिक सरपंच कालजयी ऊर्जा के स्त्रोत किसके पक्ष में अपनी ऊर्जा की किरणों को कब संप्रेषित कर दें, सिर्फ नोट वाले ही जान पाते हैं।
जिस गांव के होते हैं सरपंच। उसी के वासियों को चाहते हैं करना तलवार से पंच। कुछ अपवाद ही हैं जहां पर वे अपने घृणित मंसूबों में कामयाब नहीं हो पाते हैं। ऐसी ही एक घटना सिमगा जनपद में आने वाले गांव नेवारी-फुलवारी में जनवरी माह में घटित हुई थी जिसमें सरपंच की दादागिरी से त्रस्त गांव वालों ने अपने सरपंच को जिंदा ही जला डाला। तो ऐसी जागृति जब आती है तो उसे रोकना नामुमकिन होता है। वैसे तो ऐसे किस्से भी अब सामने आ रहे हैं जिनमें महिला सरपंच होती हैं (पर वे नाम की होती हैं) बतौर आरक्षण उनकी नियुक्ति की जाती है जबकि उनके नाम से काज उनके पति या रिश्तेदार पुरूष करते हैं और मलाई खाते रहते हैं। बाद में जांच होने पर सजा तो सरपंच के खाते में ही आती है। इस संबंध में चर्चित ब्लॉग चोखेर बाली की महिलाओं के लिए बजट की माया पोस्ट एक भयावह सच्चाई से रूबरू कराती है। इससे यह भी साबित होता है कि सरपंच का नाम ही माल बटोरने के लिए काफी है और खुद सरपंच वो तो समूचा कड़ाही में है पर सिर जिसका कड़ाही से बाहर आकर परम आनंद का सुख ले रहा है।
इसके अतिरिक्त भी सरपंच वे सारे कुकर्म करते हैं जो हिन्दी फिल्मों में एक खलनायक के जिम्मे आते हैं। हिन्दी फिल्मों में जिन कुकर्मों की बदौलत गुलशन ग्रोवर, रजा मुराद सरीखे अभिनयकर्ताओं ने यशरूपी जो दौलत बटोरी है उससे कहीं अधिक पर अपनी करतूतों से आजकल के सरपंच काबिज हो चुके हैं। पर मजे की बात तो यह है कि इनका कहीं नाम तक नहीं है और नाम हो भी तो इन्हें कोई अंतर नहीं पड़ता। इस संबंध में कवि पवन चंदन की उनके ब्लॉग चौखट पर पूर्व में प्रकाशित निम्न पंक्तियां सब रहस्य खोलकर रख देती हैं, यहां पर सारा पानी ही है और दूध का नामोनिशां तक नहीं है :-
मुनिया स्याणी हो गयी
गूंज उठा जनमंच
इस दुनिया के सामने
चलता नहीं प्रपंच
बाप छिपाता फिर रहा
फैले न ये बात-
क्यों बुधिया के द्वार पर
आया था सरपंच ।
सरपंच रूपी टंच से बचने के लिए कोई भी जुगत भिड़ा लें ग्रामवासी ,पर अगर टनों के हिसाब से सरपंच का गोदाम नहीं भरा तो सर का पंच पीडि़त का पंचक कर्म कराकर ही चैन पाता है। सरपंच का मलाई से जन्म जन्म का जो नाता है इसे तुम कभी भुला नहीं पाओगे।
सरपंच: मलाई का प्रपंच व्यंग्य या सच्चाई में कोई फर्क है
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बहुत अच्छा व्यंग्य है, अविनाश जी!
जवाब देंहटाएंवाह अविनाश जी प्रपंच कथा की बधाई
जवाब देंहटाएंWeb Hosting in Hindi
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