चींटियां क्या कर रही हैं

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  • अविनाश वाचस्पति
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  • नवभारत टाइम्स दैनिक के आनलाईन संस्करण के 26 अक्टूबर 2007 के पाठक का पन्ना स्तंभ में प्रकाशित कविता
    चीटियां मेहनत की सच्चाई हैं
    ले जा रही हैं उठा कर लाश को
    राम नाम सत्य है
    की रट लगाई है
    कानों तक आवाज नहीं आई है
    पर आंखों से दे रहा दिखाई है

    पर मेरा एक मित्र कह रहा है
    जोर लगा के हईशा
    उसे दे रहा सुनाई है

    दूसरे मित्र ने बतलाया है
    आज उनका पर्व है
    आज वे मांसाहारी होंगी

    तीसरे ने बतलाया
    बारिशों के लिए जमा कर रही हैं
    भोजन अपने परिवार के लिए
    जमा - जमा कर रख रही हैं

    चौथा आया उसकी बात में दम लगा
    उनके पास फ्रिज नहीं हुआ तो
    खाना खराब नहीं होगा
    वे छोटी - छोटी हैं
    इतनी जल्दी समाप्त भी नहीं होगा

    पांचवां बोला
    फूंकने जा रही हैं
    इसलिए फूंक मार - मार कर उठा रही हैं

    चीटियों में चर्चा हुई
    इंसान क्यों पगला रहा है ?
    खुद तो मेहनत से बचता है
    हम कर रहे हैं
    तो बातें बना रहा ह !

    कहीं हो जाए दुर्घटना
    तब भी मजमा लगाता है
    मदद नहीं करता
    पुलिस तंग करेगी
    इसलिए बचता है

    इंसान बेचैन है
    बेचैनी के बहाने बहुत हैं
    बेसुरी तराने बहुत हैं
    अफसाने बहुत हैं
    फसाने बहुत हैं

    लेकिन हम क्यों बहस करने लगीं
    क्या हमारे में भी
    आदमी का असर आ रहा है
    वह तो चींटी नहीं बन सका
    हमें इंसान बना रहा है

    आपकी क्या राय है ?
    कुछ सुना नहीं मैंने ??
    आपकी भी आवाज नहीं आई है ???

    अविनाश वाचस्पति
    दिल्ली

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