जीत को जनता का आदेश मानकर स्वीकारना जीत को महाजीत बना देता है। गंगा की
सेवा को अपने भाग्य से जोड़ लेना सुकर्म,
उस पर गंगा मैया से आशीर्वाद लेना और आरती करना
आस्था का गंगाकुंभ है। इस बार इससे चुनावों में देश के मुखिया पद की प्राप्ति हुई
है। यह दौर निश्चित ही अचंभित करता है। जबकि यह असंभव नहीं है। धरती पर असंभव कुछ
भी नहीं है। मन और मानस की आस और विास इसे शिखरत्व की ओर बढ़ाते हैं। इन सबका आपस
में समाहित होना टीम वर्क की बेहतरीन मिसाल है। इस बार के चुनाव में यही स्थितियां
विजय की कारक बनी हैं। जहां तक इसके लिए किए गए विरोध की हकीकत है, वह यह है कि लोहे की
स्प्रिंग, फोम, डनलप या रबर को जितना
अधिक नीचे की आर दबाओगे, वह उससे कई गुनी ताकत से बाहर शिखर की ओर प्रवाहमान होगी। बिल्कुल उसी
प्रकार जिस प्रकार किसी रबर की गेंद को जमीन पर जितनी शक्ति से पटकोगे, वह उससे कई गुना ताकत
से आसमान की ओर उछलेगी। इस बार के चुनाव में यही क्रिया इस महाजीत के मामले में
प्रतिक्रिया बनी और जीत बढ़कर जश्न बन गई। समर्थन करना, गुणों की खान खोदकर
बखान करना बहुत ही सरल कार्य है, जिसे कोई भी कर सकता है। इसके लिए न किसी विशेषज्ञता की न विशेष अनुभव की
जरूरत होती है। इस प्रचार-प्रसार पर अधिक ध्यान जाता भी नहीं है, जबकि इसके विपरीत
जिसका जितना विरोध किया जाएगा, वह रबर की गेंद की भांति उतनी ही तेजी से उछलकर जनता की नजरों में आएगा और
उसको जानने के प्रति जिज्ञासा बढ़ाएगा। हवा में उड़ रही पतंग जब कटती है, उस समय हवा जिस ओर
अपनी गति में बह रही होती है, कटी पतंग भी उस ओर बढ़ लेती है,
यह प्रकृति का स्वाभाविक नियम है। चाहे इस लहर का
नाम दो या कुछ भी कह लो। पर उस कटी पतंग को पकड़ने के लिए बच्चों के मन में उत्साह
का अतिरेक होता है और भरपूर गहमा-गहमी के बावजूद उस पतंग को पकड़ने के लिए सब मन
में विजयी होने का भरोसा लिए उसके पीछे दौड़ पड़ते हैं। सबके मन में पतंग लूटने का
वही भाव-विास होता है। जो उन्हें कर्म के प्रति उत्साह से लबालब कर देता है। मन
में उमंगे जाग जाती हैं। सफलता एक को मिलती है पर अपने लिए सबके मन में भरोसा जाग
जाता है। इसे ही आत्मविास का अतिरेक कहा गया है। इसलिए इसे लूट का नाम देना गलत
है। सब जानते हैं कि लूट उसे कहा जाता है,
जिसमें सामान जबरन उसके मालिक से हथिया लिया जाता
है। पर अगर वह लापरवाही या अन्य कारणों से छूट या गिर जाता है तो लूट कहना गलत है।
लूट मतलब डकैती, जबकि इस विजय में ऐसा भाव कतई नहीं है। गौर से सोचेंगे तो इसमें कई तरह के
अन्य उपादान दिखाई दे रहे हैं। जिनमें छूट की लूट वाले भाव का वर्चस्व भी सक्रिय
मिलेगा। कटी पतंग को पतंग का मालिक और काटने वाला भी पकड़ कर लाने के लिए पूरी तरह
आजाद हैं पर काटने वाला अपनी उड़ रही पतंग के स्थायित्व के लिए आशान्वित है और
जिसकी पतंग कट गई है, वह उसके कटने की खामियों पर ध्यानमग्न है। यह अपनी हार के कारणों का
विश्लेषण है। इनमें से एक पतंग न पाकर,
सिर्फ काटकर ही जीत का आनंद ले रहा है, जैसे आप। दूसरा पतंग
के पीछे न दौड़कर उसमें सावधानी बरतने की संभावनाओं पर गौर कर रहा है। इनमें विजयी
कोई नहीं हुआ है पर उनमें संतोष का परम भाव है और यही भाव मन को परोक्ष रूप से
उद्वेलित किए हुए है। जबकि पतंग को अपने कब्जे में लेने वाला स्वयं को विजयी मान
प्रसन्न है। वह इसका जश्न भी मना रहा है,
प्रचार भी कर रहा है और विजय यानी पतंग तो उसके
हिस्से में आई ही है। यह कटी पतंग वर्तमान चुनावी माहौल को अच्छी तरह से
प्रतिबिंबित कर रही है जबकि इसके गहरे तक छिपे पहलुओं पर विचार नहीं कर पा रही है
इसलिए सतही बनकर रह गई है। देश का राजनीतिक माहौल कटी पतंग की मनोदशा से गुजर रहा
है। पतंग एक के पास ही आई है, जबकि सबने इस पर नजरें गड़ाई थीं। पतंग लूटने की छीना-झपटी और कशमकश में
पतंग फट भी सकती थी। यह चिंतनीय है। पतंग हाथ में भी आए और साबुत भी रहे, यह बहुत जरूरी है।
वरना पतंग से कोई नहीं खेल पाएगा और न खेलेंगे और न खेलने देंगे वाली स्थिति खेल
को बिगाड़ देगी। ऐसी विध्नसंतोषी राजनीति में सर्वाधिक सक्रिय हैं। इनसे बचकर
सत्ता पाने के लिए ध्यान साधना सरल नहीं है।
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उपदेश सक्सेना जी ने सूचित किया है कि : आप खुद ही पढ़ लीजिए : प्रवासी हिन्दी कलम की पीड़ा
साधना अग्रवाल ने लिखा है |
इस सच्चाई से किसी को आपत्ति नहीं होगी कि प्रवासी हिन्दी लेखक अपने साथ भिन्न-भिन्न अनुभव, आयाम, आस्वाद और मिजाज लेकर हिन्दी साहित्य की सेवा कर रहे हैं और उन्होंने भारत की भौगोलिक सीमाओं के बाहर इसके प्रचार, प्रसार को विस्तारित किया है। प्रवासी लेखकों ने इसे सही अर्थों में अन्तरराष्ट्रीय बनाया है कवि श्रीकांत वर्मा ने लिखा था, ‘मैं समूचा विश्व होना चाहता हूं।’ कवि की इस पंक्ति से कविता का जो घर बनता है, वह न केवल बहुत बड़ा है बल्कि उसकी संवेदना के केन्द्र में पूरी दुनिया समा जाती है, उसी तरह जिस तरह त्रिलोचन की कविता ‘मेरा घर’ में। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी ने अपने देश के प्रवासियों को ‘भारतवंशी’ नाम दिया और इंग्लैंड में उच्चायुक्त रहते हुए हिन्दी के प्रवासी साहित्य को एक आंदोलन के रूप में बदलकर उसके विकास के अनेक द्वार खोले। उनकी अध्यक्षता में ही ‘डायस्पोरा रिपोर्ट तैयार हुई और दिल्ली में 9 से 11 जनवरी, 2003 को पहला ‘प्रवासी भारतीय दिवस’ आयोजित हुआ। इस पहल से स्वतंत्रता के 55 वर्षो बाद भारतीय प्रवासियों के साथ प्रवासी साहित्य एवं संस्कृति के प्रति देश में नई संवेदना एवं चेतना का उदय हुआ। भारत सरकार तथा राज्य सरकारें डायस्पोरा का उपयोग प्रवासी भारतीयों को देश के उद्योग एवं तकनीकी विकास के साथ जोड़ने के रूप में करने पर बल दे रही हैं, किन्तु यह ध्यान रखना आवश्यक है कि इन आर्थिक उपादानों और तकनीकी विकास में कहीं भाषा, साहित्य और संस्कृति के सरोकार ही ओझल न हो जाएं तथा अमेरिका-इंग्लैंड आदि देशों के धनी प्रवासी इतने प्रभुत्ववान न हो जाएं कि विदेशों में रह रहे लेखकों का भारतवंशी समाज तथा उनका साहित्य उपेक्षणीय बन जाए। डॉ. कमल किशोर गोयनका के अनुसार हिन्दी के प्रवासी साहित्य की पृष्ठभूमि आज के भूमंडलीकरण से लगभग सौ वर्ष पुरानी है जब व्यापार और बाजारवाद नहीं बल्कि जीवन की भयानक यातनाओं और त्रासदियों के बीच मरते-मरते जीना था। तब अपने हिन्दू धर्म, संस्कृति और भोजपुरी हिन्दी भाषा के साथ अपनी भारतीयता और भारतीय अस्मिता को बचाकर रखना था। हिन्दी के प्रवासी साहित्य का कई दृष्टियों से महत्व है। उसे अब हाशिए पर रखना साहित्यिक अपराध होगा क्योंकि इस साहित्य ने हिन्दी को एक नया भावबोध, एक नयी संवेदना, नयी चेतना तथा नया रचना संसार दिया है। डॉ. सुषम बेदी ने लिखा है कि प्रवासी साहित्य की यात्रा बहुत लंबी है और पड़ाव दूर है, परन्तु इतना सच है कि प्रवासी साहित्य अपनी पहचान यात्रा पर चल चुका है और पड़ाव भी कुछ दिखायी दे रहा है। डॉ. बेदी चाहती हैं कि प्रवासी लेखक गवरेक्तियों से बचें और आत्मान्वेषण करें, लेकिन भारत के हिन्दी समाज को भी प्रवासी साहित्य के प्रति अपने उपेक्षा भाव को समाप्त करके उसकी आंतरिक शक्ति का अन्वेषण करना होगा, तभी प्रवासी हिन्दी साहित्य की यात्रा अपने लक्ष्य तक पहुंच सकेगी। कमोबेश ऐसा ही मानना है कहानीकार और कथा यूके के महासचिव तेजेंद्र शर्मा का। उन्होंने डीएवी कालेज फॉर गर्ल्स, यमुनानगर (हरियाणा) और कथा यूके के संयुक्त तत्वाधान में आयोजित तीन दिवसीय (10-12 फरवरी, 2011) अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में कहा कि विदेशों में आज जो साहित्य रचना हो रही है, उसे यहां का ही साहित्य माना जाना चाहिए। लेकिन उनके साहित्य को प्रवासी साहित्य का नाम दिया जा रहा है। मुख्यधारा के लेखकों में प्रवासी लेखकों का नाम नहीं लिया जाता। विदेश में लिखे गए साहित्य को प्रवासी साहित्य का नाम देकर एक पैरा में निपटा ही नहीं दिया जाता बल्कि उनके बारे में मिथक और भ्रम भी फैलाया जाता है। उनकी बात से असहमत होने की गुजांइश ही नहीं बचती है क्योंकि भूमंडलीकरण एक आसमान की तरह है। यह बाजार के लिए बहुत उपयोगी हो सकता है। हम एक-दूसरे के बारे में बहुत सी जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में लेखक की जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं। दुनिया जितना सिकुड़ रही है, लेखक की जिम्मेदारी बढ़ रही है। आज वह अपने क्षेत्र तक ही सीमित नहीं बल्कि पूरी दुनिया के दुख-दर्द सामने लाना उसका कर्तव्य हो गया है। तमाम इमारतें मिट जाती हैं लेकिन बड़े रचनाकारों की लिखी रचनाएं कभी खत्म नहीं होती। सवाल यह उठता है कि क्या प्रवासी हिन्दी लेखन घिसा-पिटा है। उसमें नवीनता का उन्मेष नहीं है। क्या वह भारत में लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य से इतना कमतर है कि उसकी र्चचा भी न हो ? क्या उसको भी स्त्री लेखन, दलित लेखन आदि की तरह दोयम श्रेणी में आरक्षित कर दिया जाना चाहिए ? मुझे लगता है कि देश या विदेश में रह रहे लेखकों ने प्रवास की पीड़ा को झेला है क्योंकि आज वह जहां रह रहा है अपने गांव, देहात, कस्बे से दूर नगर, महानगर या फिर विदेश में-अपने आर्थिक संरक्षण के लिए अपनी जड़ों से कटे रहने के लिए विवश है। इसलिए केवल विदेश में रहने वाले लेखकों को ही प्रवासी मानकर उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए बल्कि हर उस लेखक को प्रवासी समझा जाना चाहिए जो अपनी जड़ो से कट गया है। जब तक आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रवासी भारतीय लेखन को शामिल नहीं किया जाएगा तब तक वह हमारी पीढ़ी की धरोहर नहीं बन सकता। दुखद सच्चाई यह भी है कि प्रवास में एक भारतीय रचनाकार दो संस्कृतियों की दो किस्म के मूल्यों की ऐसी सनसनाहट भरी सरहद पर खुद को पाता है जिसके एक तरफ के भूगोल पर विधि निषेध के दंड लिए अपने सामाजिक संस्कार, सगेपन को बहिष्कृत करने की धमकी भरी मुद्रा में डराने को खड़े होते हैं तो दूसरी तरफ अनजाना परिवेश आपको अपने परिचय का आमंतण्रदेने को हाजिर। इस सच्चाई से किसी को आपत्ति नहीं होगी कि प्रवासी हिन्दी लेखक अपने साथ भिन्न अनुभव, आयाम, आस्वाद और मिजाज लेकर हिन्दी साहित्य में आये हैं और इस तरह उन्होंने भारत की भौगोलिक सीमाओं के बाहर इसके प्रचार, प्रसार और अभिगम को विस्तारित किया है। हमारे प्रवासी लेखकों ने इसे सही अर्थों में अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपेक्षित दर्जा दिलाया है। तीन दिवसीय इस संगोष्ठी में ब्रिटिश लेबर पार्टी की काउंसलर जकीया जुबैरी ने कहा कि प्रवासी साहित्यकारों को अगर दीवाना कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि वे दिनभर अंग्रेजी परिवेश और भाषा में काम करते हैं, इसके बावजूद हिन्दी में रचनाएं लिख रहे हैं। उन्होंने आम भारतीय पाठकों से अपील की कि उनके साहित्य को पाउंड में न तौलें। प्रवासी साहित्य की भी आलोचना होनी चाहिए ताकि उनका साहित्य और ज्यादा निखर कर सामने आ सके। कनाडा से आई स्नेह ठाकुर का कहना था कि हिन्दी के साथ कलम का ही नहीं अपितु दिल का भी रिश्ता है। हम जब भी कलम उठाते हैं, तो हिन्दी का ही साहित्य लिखते हैं। बावजूद इसके हमें प्रवासी कहकर पुकारा जा रहा है। हिन्दी के साथ हमारी संवेदनाएं जुड़ी हुई हैं। हिन्दी व हिंदुस्तान के लिए इतना करने के बावजूद भी हम प्रवासी ही हैं। अब तो प्रवासी सुनना बड़ा कटु लगता है। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रतिष्ठित कथाकार एवं ‘हंस’ के संपादक राजेन्द्र यादव ने एक तरह से प्रवासी साहित्य की परिभाषा ही तय कर दी। उन्होंने कहा कि प्रवास का दर्द झेलना आज के दौर में मनुष्य की नियति है। यह दर्द कोई विदेश में जाकर झेलता है तो बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिन्हें देश के अंदर ही यह पीड़ा झेलनी पड़ती है। इन अथोर्ं में प्रवासन सिर्फ विदेश में रह रहे लोगों का दर्द ही नहीं है। अंतत: इतना ही कहना है कि विदेश में भले ही हिन्दी प्रेमी इसके संरक्षण संवर्धन के लिए प्रयासरत दिखते हो लेकिन देश में हिन्दी की स्थिति बहुत संतोषजनक नजर नहीं आती। हाल में दिल्ली में आयोजित साहित्य अकादेमी वार्षिक पुरस्कार अर्पण समारोह में हिन्दी की स्थिति देखकर अफसोस ही किया जा सकता है। इसे क्या कहा जाए कि देश की राजधानी में आयोजित हिन्दी अकादेमी के समारोह में जहां अंग्रेजियत हावी दिखी वहीं दूसरी ओर ब्रिटेन जैसे देश में कथा यूके के मंच से आयोजित कार्यक्रम पूरी तरह हिन्दी में ही सम्पन्न करने का प्रयास किया जाता रहा है। हिंदी के भविष्य के संबंध में प्रवासी लेखकों की यह पीड़ा भी कम विचारणीय नहीं। |
रविवार 20 अप्रैल 2011 को दैनिक राष्ट्रीय सहारा के पेज 11 पर मंथन में प्रकाशित।
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