बरसी
बरसी- इस नाम से क्या ख्याल जेहन में उपजता है, हां मैं भी उसी की बात कर रहा हूं, हां वही बरसी जो किसी अपने के हमेशा हमेशा के लिए रूखसत हो जाने, दूर हो जाने या मर जाने की सालगिरह के तौर पर मनाया जाता है।
वैसे तो बरसी अपनों की मनाई जाती हैं, रिश्तेदारों की मनाई जाती है। उनके साथ के लम्हों को याद किया जाता है, उनकी शांति की प्रार्थना की जाती है, उनकी मुक्ति की दुआ की जाती है।
लेकिन हर बार बरसी अपनों की नही कई बार अपनेपन की भी मनाई जाती है, रिश्तेदारों की ही नहीं रिश्तों की भी मनाई जाती है।
तो आज हम भी ऐसे ही एक बरसी मनाने जा रहे हैं. रिश्तों की बरसी।
सुनने मंे भले ही अजीब सा लगे, लेकिन हां ये सच है, आप भी याद करिये, जीवन की किताब के किसी एक कोने मंे आपने भी दफन किये होंगे कुछ पन्ने कहीं किसी छोर पर।
अरे वैसे ही जैसे बचपन में किसी विषय की कॉपी मंे कुछ गलतियां हो जाने पर उन्हें छिपाने, और दूसरे छोर के पृष्ठों को फटकर गिरने से बचाने के लिए हम स्टेपल कर लेते थे। ठीक उसी तरह से कुछ पेज आपको भी मिल जाएंगें अपनी जिंदगी की किताब में। हो सकता है आपकी किताब मंे ऐसे स्टेपलर लगे पेजों का पुलिंदा एक हो या हो सकता है वो एक से अधिक हो।
हो सकता है कि स्टेपलर की पिन चमक रही हो और बयां कर रही है अपना दर्द और जता रही है कि जख्म अभी हरा है, या फिर यूं भी हो सकता है कि वो पुलिदों पर लगी पिन जंग खा चुकी हो और उन अपनो को भी भुला चुकी हो।
लेकिन जैसे हमारी संस्कृति में रिवाज है बरसी मनाने का, लम्हों को याद करने का और शांति या मुक्ति की प्रार्थना करने का तो हम अब एक अनूठी बरसी मनाते है। उन लम्हों और वो दर्द देने वाले की मुर्खता और उनकी बचकानी हरकतों को याद करते हैं और मुस्कुराते है उनकी नादानी पर। हम प्रार्थना नही भगवान का खुदा का, रब का शुक्रिया करते हैं कि हमें मुक्त कर दिया ऐसे दर्दनाक अपनों से और कसैले विषैले रिश्तों से। इस बार ये बरसी अपनो की नही अपनेपन की है, और रिश्तेदारों की नही बल्कि इस बार ये रिश्तों की बरसी है।
नुक्कड़ पर हलचल है| अच्छा लग रहा है| अविनाश वाचस्पति जी की याद या रही है |
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