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  • डा गिरिराजशरण अग्रवाल
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    मुझे जिसकी इक-इक गली जानती है
    वो बस्ती मुझे अजनबी जानती है
    कला हम भी पुश्ते बनाने की सीखें
    जमीं काटना गर नदी जानती है
    गिरी ओस लेकिन न अधरों से फूटी
    कली कैसी जालिम हँसी जानती है
    अँधेरे हों, कोहरा हो, बन हो, भँवर हो
    बिताना समय जिदगी जानती है
    लपट-सी उठी और नजरों से ग़ायब
    अँधेरा है क्या रोशनी जानती है

    2
    मधुरता में तीखा नमक है तो क्यों है
    किसी का भी जीवन नरक है तो क्यों है
    कसक में तड़पने से कुछ भी न होगा
    यह सोचो कि दिल में कसक है तो क्यों है
    अकेले हो, इसका गिला क्या, यह सोचो
    किसी से मिलन की झिझक है तो क्यों है
    जरा-सा है जुगनू तुम्हारे मुकाबिल
    मगर उसमें इतनी चमक है तो क्यों है
    लचकती है आँधी में, कटती नहीं है
    हरी शाख़ में यह लचक है तो क्यों है
    वो हो लालिमा, चाँद या फूल कोई
    सभी में तुम्हारी झलक है तो क्यों है

    3
    आँखों में स्वप्न, ध्यान में चहरे छिपे हुए
    बेरंगियों में रंग हैं कितने छिपे हुए
    कोई नहीं कि जिसमें न हो जिदगी की आग
    पत्थर में हमने देखे पतंगे छिपे हुए
    पाया निराश आँखों में अंकुर उमीद का
    रातों में हमने देखे सवेरे छिपे हुए
    कुछ देर थी तो खोजते रहने की देर थी
    बीहड़ वनों के बीच थे रस्ते छिपे हुए
    फैली जरा-सी धूप तो बाहर निकल पड़े
    पेड़ों की पत्तियों में थे साये छिपे हुए

    4
    अगर स्वप्न आँखों ने देखा न होता
    समझ लो कि मौसम यह बदला न होता
    जमीनों से उगतीं चिराग़ों की फ़सलें
    निराशा न होती, अँधेरा न होता
    कमर आदमीयत की ऐसे न झुकती
    समाजों से ऊपर जो पैसा न होता
    जमीं नफ़रतों के शरारे उगलती
    दिलों में जो चाहत का दरिया न होता
    जरा सोचिए हम गिला किससे करते
    जमाने में गर कोई अपना न होता

    5
    चलते रहो मंजिल की दिशाओं के भरोसे
    जलते हुए दीपों की शिखाओं के भरोसे
    पतवार को हाथों में सँभाले रहो माँझी
    छोड़ो नहीं किश्ती को हवाओं के भरोसे
    सच यह है कि दरकार है रोगी को दवा भी
    बनता है कहाँ काम, दुआओं के भरोसे
    सूखा ही गुजर जाए न बरसात का मौसम
    तुम खेत को छोड़ो न घटाओं के भरोसे
    ख़ुद अपना भरोसा अभी करना नहीं सीखा
    जीते हैं अभी लोग ख़ुदाओं के भरोसे

    डा. गिरिराजशरण अग्रवाल
    7838090732  

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