आत्मकथा नहीं परमात्मकथा
जिसे हम आत्मकथा कहते हैं दरअसल वह परमात्मकथा है। दोनों के अंत में मा आता
है यानी मां। अपने कंट्रोल में कुछ नहीं है, कुछ भी तो नहीं है। सब कुछ या तो मां
के गर्भ में है अथवा परमात्मा के कंट्रोल में। इस कंट्रोल में रोल जरूर मां का है
पर वह भी परमात्मा की मर्जी पर निर्भर है। जब अपनी इच्छा है ही नहीं, मां की तो
नहीं है। नहीं तो अब तक धरती पुत्रों से लबालब भर गई होती, पु्त्रियों का कोई नाम
लेने वाला नहीं होता। उनका नाम न लेने वालों के कारण इंसान ही नहीं होता, होती
सिर्फ प्रकृति। सब कुछ प्रकृति के अनुसार ही तय होता। प्रकृति की कृति का ही चारों
ओर साम्राज्य होता। इसमें सृष्टिकर्ता का भी तनिक हस्तक्षेप नहीं होता।
परमात्मा ने नारी के गर्भ में शिशु भेजा, उसके सृजन के लिए मांसपेशियां,
हड्डियां जिससे गर्भ में आंख, नाक, कान, ओंठ, दांत, चेहरे, गर्दन इत्यादि शरीर के
बा्ह्य अंगों तथा भीतरी अवयवों हद्य, लीवर, किडनी, अग्नाशय, पित्त की थैली, छोटी
आंत, बड़ी आंत इत्यादि का निर्माण हुआ। आप जानते हैं कि वह निर्माण कार्य गर्भ के
भीतर किसने किया, आप क्या इसे कोई भी नहीं जानता है। फिर मांसपेशियों में रक्त
और सांस का आवागमन चालू हुआ, मतलब प्राणरोपण हुआ। बिना प्राण के देह और बाकी सारा
सृजन बेकार। यह सब परमात्मा का कार्य है, इसे सत्कार्य ही कहा जाएगा।
आप किसान हैं, बीजारोपण करते हैं तब धरती में मिट्टी की जांच करते हैं कि किस
गुणवत्ता की है। नहीं तो सड़क पर खेती न कर ली जाती। खेती के साथ जानवरों के लिए
घास भी उग आती है, उसे कौन उगाता है, कौन घास उगाने के लिए बीज डालता है। पर घास
बिना बीज के सबसे अधिक उगती है, उतना गेहूं नहीं उगाया जा सकता। हर जगह बीज नहीं
रोपा जा सकता परंतु दीवारों पर आपने पीपल उगते देखा है, इसे दीवारी पीपल कहना ठीक
है, सड़क पर आपने घास उगते देखी है। इसे आप परमात्मा की करामात मान सकते हैं। फिर
भी मांस का सेवन जानवरों द्वारा किया जाता है और जानवरों को देखकर इंसान ने भी मांसभक्षण करना शुरू कर दिया। जबकि सृष्टि के आरंभ में भोजन की समस्या थी, उसे पकाने की
समस्या थी, कोई पकाना भी नहीं जानता था पर भूख सबको लगती है। पेट भरने के लिए कुछ
न कुछ तो खाना ही है अन्यथा न मांसपेशियों में रक्त बहेगा और न सांस का आवागमन
होगा। मां अपने भोजन में न खून पीती है, न मांस खाती है पर गर्भ में जो शिशु पलता
है उसे आहार मिल रहा होता है, मां के उसी आहार में से शिशु का पेट भरता है। मां को
अगर खाने को न मिले तो गर्भ का शिशु मर जाता है, मां तो मरती ही है।
शरीर के जिस अंग अथवा अवयव में रोग होता है, वह परमात्मा की मर्जी से होता है
और परमात्मा ही उसके लिए डॉक्टर का काम करता है। बिना डॉक्टर के रोगी का निरोगी
होना संभव नहीं है। इसका अर्थ हुआ कि कोई सत्ता तो है जो सबको संचालित कर रही है।
आप चाहे इसे स्वीकार करें अथवा नहीं करें पर हो ऐसा ही रहा है। सब धर्म यही कह
रहे हैं। सब शास्त्रों का मूल यही है, निचोड़ यही है। पुराण और सद्गुरू यही बतला
रहे हैं। सत्संग में इसी बात की चर्चा होती है। इसमें मन की भूमिका बहुत अहम् है।
मन वह मछली है जो धारा के विपरीत तैरती है, यह हाथी के वश का भी नहीं है पर मछली
यही करती है और पकड़ी जाती है, मार कर खाई और बेची जाती है। मन एक मछली ही तो है
वह समाज के नियमों के विपरीत चंचल बना रहता है, गतिमान रहता है। इस दुर्गति में भी
एक सकारात्मक गति है। यह गति मति से बहुत ऊपर है।
एक बार सांस रुक जाए तो उसके होने का बोध होता है। जब तक सांस चलती रहती है तब
तक उस ओर कोई ध्यान नहीं देता। जैसे ही रुकती है वैसे ही सब उसे चलाने के लिए जुट
जाते हैं, पर क्या चला पाते हैं, अपनी कोशिश में कतई सफल नहीं होते। इनकी जांच और
चिकित्सा करने में इंसान सफल हुआ है पर क्या वह रक्त अथवा ऐसी सांस का सृजन कर
सका है जो स्वचालित रूप से गतिमान बनी रहे। इसलिए कथा को आत्मकथा नहीं परमात्मकथा
ही कहा जा सकता है पर हम मुगालते में जी रहे हैं कि यह आत्मकथा लेखन है। इस पुस्तक
को भी यूं ही नहीं लिखा गया है, यह सब परमात्मा की ही इच्छा रही है। अतएव, यह
पुष्प परमात्मा को ही समर्पित है।
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