विकास महाराज भी पीएम जी से खौफ खाए हुए चक्कर काट रहे हैं। कल तक जो सत्तानशीनों की चरण-वंदना किया करते थे और आरती गाया करते थे, उनकी आरती में दोगुने और तिगुने का भी फासला था। पर नए नवेले पीएम जी ने एक दफा सब पर, सबके सामने एक ऐसी दफा लगा दी जिसे टीवी चैनलों, मीडिया के विविध मंचों पर तैनात मीडिया सैनिकों ने तुरंत उठाकर ज्यों का त्यों प्रसारित कर दिया। इससे अन्य किसी को तो नहीं, पर विकास महोदय को खूब लाभ हुआ। यूं तो विकास भी अचंभा के अंतिम अक्षर ‘भा’ की ही उत्पत्ति था पर पीएम ने प्रत्यक्ष में जिस राजनैतिक दल के बूते पीएम की चेयर हासिल की थी, उसका प्रथमाक्षर यही पहला अक्षर था। मालूम नहीं यह या अन्य कोई बात अथवा और कुछ पीएम जी की दुखती रग को कुरेद रहा था और उन्होंने पहली दफा अपने पावन पैरों को पकड़ने का पुण्य लाभ लेने वालों को दफा कर दिया। भाजपा वाले पीएम का यह रौद्र रूप देख भाग गए और बाकी दौड़ने के लिए उद्यत हो उठे। दौड़क समझ नहीं पा रहे थे कि कल तक जिनके चरण-स्पर्श करके वह धन्य हो रहे थे, आज उनके मुख से धन्यवाद भी नहीं निकल रहा था, पर यह लीला समझना उनके लिए पॉसीबल न था।
सत्ता-मंच पर लीला प्रदर्शन से ही वह परेशान हो जाया करते थे, जबकि आज वह मन से दुखी थे। उनके मन के सुख की वैतरणी इनके पैरों में निवासित थी। विकास कब विलास हो गया, इसका उन्हें अहसास तलक नहीं हुआ। वह सब विकास को तलाश रहे थे, इसी का पर्याय उन्हें पीएम की कुर्सी तक जाकर कब विलास तक पहुंचाया आया , मालूम न चला। जब विकास रास्ता भूल जाता है तब अच्छे दिन नहीं आते हैं और बुरी रातें अंधेरा होने के कारण आने से डर जाती हैं। रातों का आना तो दिखाई नहीं देता है और अच्छे दिन आते नहीं हैं। जिससे सफलता का फलसफा, गर्मियों का काला-काला फालसा मत समझ लीजिएगा, विफल हो जाता है। सब एक ही चिंता में निमग्न हो जाते हैं कि अब अच्छे दिन कैसे आयेंगे। पीएम ने तो विकास चचा से पैर छुआने से मना करके कैसी मुसीबत ले ली है, यह तो वह नहीं जानते। पर विकास की नाराजगी अवश्य दिक्कत की फसल उपजाएगी, इस संकट से निबटने में काफी ऊर्जा लग लाएगी। विकास चचा की नाराजगी के कारण जेबों में अकाल जैसी दुखदायी स्थितियां खरपतवार की उग जाएंगी और खर की खेती किसान और पब्लिक पर कहर अवश्य ढाएगी, अब वह सकारात्मक लहर किस तरह से लाई जाएगी जो जड़ों को मट्ठा नहीं, मजबूती बख्शेगी।
विकास की क्रांति की गति अवरुद्ध कर दी गयी है। जिन्होंने की है, उन्होंने ही इनके जरिए शिखर पर पहुंचना था। अब उनके कारनामे जिस डाल पर डेरा डाले बैठे हैं, उसी को काटने का लुत्फ लेना चाह रहे हैं। यह वही डाले हैं जिन पर चिडि़यां बसेरा करती हैं पर उन पर चिड़ों की जगह कौओं,गिद्धों और चीलों ने ठिकाने बना लिए हैं। वहां पर उल्लू उल्टे होकर टंगते तब भी मंगल गीत गा लिए जाते। मेरा आशय यह बिल्कुल नहीं है कि इन गीतों को उल्लुओं की पत्नियों ने गाया होगा जबकि मंगलगीत राक्षसों के यहां पर गाए जाने के उल्लेख भी मिलते हैं। यह भी विकास का उजला पक्ष है जो शाम के धुंधलके में बजाया गाया जाता है। इसमें शामिल सब नहीं होते सिर्फ जो सब्र रखते हैं, वही होते हैं। विकास तक पहुंचने के लिए सब्र और सबक दोनों आवश्यक हैं और इन सबसे जरूरी है इन सबके लिए एक उचित योजना बनाना।
इसमें विचारणीय यह है कि योजना बनाए बिना कितने ही योजन चलते चले जाओ। पर फिर भी मंजिल तक नहीं पहुंच पाओगे। योजनाएं फुस्स हो जाती हैं। अधर का अर्थ ओंठ मत समझना, तक भी नहीं पहुंच पाती हैं। उन्हें योजना कहते हुए भी शर्म आती है। विकास की तो छोडि़ए, धरा से अधर तक का सफर आरंभ ही नहीं होता। सब किया-धरा अधर पर डोलायतान नजर आता, इसलिए इसे विकास नहीं कहा जाता है क्योंकि यह दिखावटी होता है और टिकाऊ इसका जर्रा भी नहीं, जबकि जब तक विकास का जर्रा-जर्रा मजबूती से नहीं जमा होगा, तब तक इसमें कड़कपन नहीं मिलेगा और न ही इसे सही अर्थो में विकास ही कहा जाएगा।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल शुक्रवार (13-06-2014) को "थोड़ी तो रौनक़ आए" (चर्चा मंच-1642) पर भी होगी!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
अच्छा लिखा है आपने
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