देश के तमाम समाचार पत्रों में संपादक
नाम की सत्ता की ताक़त तो लगभग दशक भर पहले ही छिन गयी थी. अब तो संपादक के नाम का
स्थान भी दिन-प्रतिदिन सिकुड़ता जा रहा है. इन दिनों अधिकतर समाचार पत्रों में संपादक
का नाम तलाशना किसी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने या वर्ग पहेली को हल करने जैसा
दुष्कर हो गया है. नामी-गिरामी और सालों से प्रकाशित हो रहे समाचार पत्रों से लेकर
ख़बरों की दुनिया में ताजा-तरीन उतरे अख़बारों तक का यही हाल है. अख़बारों में आर्थिक
नजरिये से देखें तो संपादकों के वेतन-भत्ते और सुविधाएँ तो कई गुना तक बढ़ गयी हैं
लेकिन बढते पैसे के साथ ‘पद और कद’ दोनों
का क्षरण होता जा रहा है.
एक दौर था जब अखबार केवल और केवल संपादक
के नाम से बिकते थे.संपादकों की प्रतिष्ठा ऐसी थी कि अखबार
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हाँ उतनी देर में तो संपादक को ही उसके घर से ढूंढ लायेंगे आप :)
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