फिल्‍म चीज बड़ी है फिक्‍स फिक्‍स : बॉलीवुड सिने रिपोर्टर 22-28 मई 2013 में प्रकाशित



बकाया आलेख का इंतजार कीजिए। अगला अंक अगले सप्‍ताह आने ही वाला है।
क्रिकेट में फिक्सिंग का कोहराम दस साल पहले भी खूब मचा था। इसमें उन्नति ही हुई है और अब स्पॉट फिक्सिंग सुर्खियों में हंगामा मचाने में कामयाब हो गई है। हंगामा भी छोटा नहीं, खूब बड़ा। इतना व्यापक की इसके दायरे में सिर्फ खेलने वाले खिलाड़ी ही नहीं, देखने वालों ने भी एंट्री मार ली है। फिर एक्टर भी क्यों पीछे रहते, इसलिए हंगामे के चार दिन बाद आगे आ गए हैं। मानो कह रहे हों कि सारी सुर्खियां तुम ही बटोर लोगे, हम तुम्हें यूं नाजायज न करने देंगे। पिछले सप्ताह रेलवे में मामा का ड्रामा खूब कामयाब रहा है। उन्होंने शुक्र मनाया कि फिक्सिंग नाम की लाइलाज बीमारी सामने आ गई और उनकी घपलेबाजी पर से सबका ध्यान हट गया। वैसे एक बात बतलाइये कि क्या आप जानते हैं कि फिक्सिंग कहां से आई है। नहीं भी जानते हों तो इसे बतलाना या समझना कतई मुश्किल नहीं है। सृष्टि का आरंभ फिक्सिंग के तहत ईश्वर ने स्वयं किया था। इसे सब जानते हैं और इस बात पर अगर ईश्वर के अनुयायी विरोध करने लगें, तो करें क्योंकि इससे सच्चाई नहीं बदल सकती है कि सूर्य,चांद, सितारों की नायाब सैटिंग और मिक्सिंग करके आकाश पर फिक्सिंग की गई है। सृष्टि निर्माता ने जो रचा वह सब नायाब था। इस बात पर ईश्वर के अनुयायी खुश हो सकते हैं। जिस इंसान को रचा गया उसने फिक्सिंग करके सब कुछ बरबाद ही कर दिया, ऐसा भी नहीं है। इंसान ने फिल्म के रूप में समस्त कलाओं और विधाओं की ऐसी अनूठी दुनिया रची जिसमें प्रत्येक विधा की सरंचना तरंगित हो उठी। जरा सोचिए कि एक फिल्म में क्या नहीं होता है, सोचिए और सोचकर बॉलीवुड सिने रिपोर्टर के नाम अपनी प्रतिक्रिया लिखकर भेजिए। मुझे पूरा विश्वास है कि एक कण भी खोज पाना दुष्कर है। इसलिए एक भी पत्र अथवा प्रतिक्रिया मिलने की संभावना नहीं बनती है। अच्छाई, बुराई, गंदगी, मलाई, हंसाई, रुलाई, धुलाई मतलब सब जगह की ईंटें, सब जगह की मिट्टी, बरफी, जलेबी, हूरें, परियां,शैतान सब संजोकर फिल्मों का सफर कमाई पर जाकर संपन्न होता है। फिल्म की फिक्सिंग फिक्स करने वाले और देखने वाले सभी को लुभाती है। फिल्म के आरंभ से लेकर प्रदर्शित होने तक हर रंग की, मन की उमंग की आपसी जंग की, टूटते-जुड़ते संग की और भंग पी पीकर तर्क तथा कुतर्क की कसौटी पर कसी जाती है। फिक्सिंग का आरंभकाल यूं तो फिल्मों के आरंभ होने के काफी पहले से ही अपने पूरे यौवन पर कुलांचे मारता दिखलाई देता है। पर फिल्म पर आकर फिक्सिंग की रोशनाई ने खूब उजाला किया है। जिससे फिल्मों की फिक्सिंग के जलवे का उत्तरोत्तर विकास होता गया। यही मूल वजह है कि फिल्म फिक्सिंग पर आज तक किसी ने ऊंगली उठाना तो दूर इशारा भी नहीं किया है। 
फिक्सिंग की करामातें सभी युगों और काल में मौजूद रही हैं और चर्चा में बनी रहती हैं। अब कंस को मारने के लिए कृष्ण की फिक्सिंग, रावण को मारने के लिए राम की फिक्सिंग, ईसा को मारने के लिए उनके खुद के अनुयायियों की फिक्सिंग, बाली को मारने के लिए फिर राम - बस यह समझ लीजिए कि पूरा इतिहास इसी से भरा हुआ है। रामायण, महाभारत काल और अकाल तक में फिक्सिंग का वर्चस्व रहा है। फिक्सिंग के इतिहास में वह रोमांच आज तक कभी नहीं आया था, जो क्रिकेट में इसके स्पॉट फिक्सिंग के रूप को देखकर सबको महसूस हो रहा है। फिक्सिंग के प्रति कभी वह चार्म रहा ही नहीं कि इस पर गौर किया जाता। पर स्पॉट फिक्सिंग ने फिक्सिंग कला में प्राणतत्व जीवंत कर दिए हैं और आज चारों ओर इसी की धूम मची हुई है। कभी किसी ने आंख खोलकर फिल्मों के संदर्भ में इस पर विचार किया होता तो क्रिकेट में फिक्सिंग और स्पॉंट फिक्सिंग की मौजूदगी से चकित नहीं होते। क्रिकेट में फिक्सिंग का स्तर बहुत ही सामान्य माना जाता रहा है। जबकि डी कंपनी, जो कि क्रिकेट की स्पॉट फिक्सिंग में चर्चा में आई और चली भी गई, फिल्मों में उसके कारनामों से सब बखूबी परिचित हैं। कितने ही खूनी खेल मुंबई की सड़कों पर खेले गए हैं। अनगिनत धमकियां और फिरौती की घटनाएं सामने आती रही हैं। चर्चा में भी यह हमेशा रही हैं, उनका पैसा भी फिल्मों में लगता रहा है, उनके कहे गए हीरो, हीरोइनों को फिल्मों में भूमिकाएं दी गईं और उन्होंने कीं। इसके अलावा फिल्म के वितरण के अधिकार तक दुबई में बैठे माफिया ने ही दिए और दिलवाए। यह मानना ही होगा कि बिना फिक्सिंग के फिल्म निर्माण संभव नहीं है। फिल्म की फिक्सिंग की शुरूआत का नमूना याद कीजिए। एक सीन फिल्माना है, फ्लैप देंगे, मतलब इशारा करेंगे और वह फिक्स। है। इस इशारेबाजी का मूल फिल्मों में ही है। संवाद बोलते समय, डब करते समय, एडीटिंग के दौरान, शूटिंग में पूरे समय इसी सब फिक्सिंग के अनुसार ही तो शूटिंग होती है। यहीं से सबने सीखा है और इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि क्रिकेट वालों ने इशारेबाजी के गुर यहीं से लिए हैं। इशारेबाजी सीखने के लिए कोई और जगह नहीं है। न इसके लिए स्कूल बने हैं और न ही यूनीवर्सिटीज चल रही हैं, जहां पर इनके डिग्री या डिप्लोमा कोर्स चल रहे हों। इधर फ्लैप दिया उधर रोल चालू। रोल चालू होगा तो कैमरा भी चलेगा और कैमरा चलेगा तो हीरो हीरोइन का कमर और बदन खूब हिलेगा। किसी फिल्म का निर्माण इशारेबाजी के सक्रिय योगदान के बिना हो ही नहीं सकता। फिल्म बनाते समय सभी इशारेबाजी के लिए फिक्स हैं। निर्माता निर्देशक को, निर्देशक हीरोइन को, हीरो हीरोइन को इशारे से ही अपने पास बुला लेता है। चाय भी मंगवानी है तो इशारा। खिसकना है कहीं तो भी धक्का नहीं सिर्फ इशारा और मारने पीटने अथवा डटे रहने के लिए भी इशारा। ऐसा लग रहा है कि सारा जमाना इशारे का दीवाना। इशारे की इतनी जोरदार फिक्सिंग क्रिकेट खेल में किस दम पर हो सकती है। सब देख रहे हैं और खुलेआम हो रही है। क्रिकेट में तौलिया हिलाया जाता है और फिल्मों में तौलिया बांधने वाले को हिलने के लिए ऐसा फिक्स किया गया है कि उसका तौलिया तक गिर जाता है। पर किसी की मजाल कि तनिक सी आपत्ति कर दे। अंधेरे का इशारा तो दिखता नहीं है इसलिए किसिंग सीन को उजाले में पूरी रोशनी डालकर शूट किया जाता है। इस पर भी कहीं से कोई हूट नहीं करता। लाइट जलाकर फिक्सिंग,कहीं मोबाइल बजाकर फिक्सिंग, कहीं मिस काल से फिक्सिंग, कहीं एसएमएस से और कहीं पर एमएमएस में फिक्सिंग की मिक्सिंग।
ईश्वर भी इस मामले में पीछे नहीं रहा। देखिए उसने इंसान और जानवरों को ही क्या, चांद सितारों तक को फिक्स कर रखा है। फिर एक संत का इसके चंगुल में फंसना खामी कैसे मानी जा सकती है। फिल्मों में पैसा लगाने के लिए फाइनेंसर फिक्स, उसके साथ बैंक फिक्स, डायलॉग के लिए लेखक फिक्स, गीतों के लिए गीतकार, धुनों के लिए संगीतकार, मारधाड़ करने और पिटने के लिए डुप्लीकेट फिक्स - देख रहे हैं कि आप कितना बड़ा है फिक्सिंग का बाजार। दारा सिंह का बेटा तक फिक्स कर दिया गया या हो गया। सोचा होगा कि फिल्मों में कर सकते हैं तो क्रिकेट में करके देखते हैं, दोनों हाथों में मोतीचूर के लड्डू भला किसे बुरे लगते हैं। दर्शक को इन सबकी कारगुजारियां देखने के लिए फिक्स कर दिया। सिर्फ देखना ही नहीं है क्योंकि पैसे देकर आए हैं इसलिए पूरे समय तक झेलो भी। वह समय भी आ सकता है कि आपको इतना फिक्स कर दिया जाए कि फिल्म पूरी होने से पहले आप हॉल से बाहर नहीं आ सकते।
अब वह झेलना कम हो चुका है, उस फिक्सिंग पर दर्शक की पकड़ बढ़ रही है। इंटरनेट और टीवी ने इस पकड़ को ढीला किया है। मतलब फिक्सिंग खिसकने लगी है। निर्माता और निर्देशक की फिक्सिंग कम होती जा रही है। सबको जान लेना चाहिएजानते भी होंगे कि फिक्सिंग सिर्फ धन के लिए की जाती है और देह का लालच देकर जकड़ लिया जाता है। धन के सामने सारे धाकड़ और उनके मन और तन के दर्शन फेल हैं। फिक्सिंग परवान यूं ही नहीं चढ़ती है। उसके लिए कदम-कदम पर कितने समझौते करने पड़ते हैंइसका ज्ञान सिर्फ समझदारों को ही होता है। फिक्सिंग खेल नहीं है, पर इससे नोटों की खेती की जाती है। फिल्म जीवन है, जिसमें मनोरंजन के लिए प्राण फूंके जाते हैं, सार्थकता के लिए सार तत्वों के फल और फूलों से गूंथा जाता है। पल-पल में फिक्सिंग, जल-जल में फिक्सिंग, जल में मछली की फिक्सिंग, वन में जानवरों की फिक्सिंग,पेड़ पौधे भी फिक्स किए जाते हैं और इन सबसे बढ़कर इन पर पत्ते भी फिक्स। पर फिक्सिंग की भी एक सीमा है, क्या आपने कभी चौकोर या एकदम गोल पत्तों की फिक्सिंग देखी है। यही फिक्सिंग की सीमा रेखा है। पृथ्वी को घूमते पाया गया है पर वह भी एक धुरी पर फिक्स है। भूकम्प का आना फिक्स, उल्काओं का जलना फिक्स। फिर जिन खिलाड़ियों की खरीद-फरोख्त तो खुलेआम बोली लगाकर होती है, उनके फिक्सिंग में फंसने पर अचरज कैसा ?


0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

आपके आने के लिए धन्यवाद
लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

 
Copyright (c) 2009-2012. नुक्कड़ All Rights Reserved | Managed by: Shah Nawaz