फिल्म के परदे पर डर देखकर डर गए तो जीत गया निर्माता, जीत गया निर्देशक, चमकने लगे सितारे। सब दर्शक को डराना चाहते
हैं। कोई कब्रिस्तान दिखाता है, कोई श्मशान में टहलाता है, नरमुंड की माला पहनाता है, कंकाल चमकाता है,
कोई रात में
सड़क पर घुमाता है,
दर्शक भी डरना
चाहता है,
इसलिए खूब डरता
है और डरते-डरते झूम जाता है। परदे वाला क्यों डराना चाहता है, जबकि उसे डरपोक दर्शक को परदे के पीछे छिपा
लेना चाहिए पर आप यह भी जानते हैं। अगर आप नहीं डरे तो उसका डरना ही नहीं, मरना भी तय है। जितना दर्शक फिल्म देखकर डर
रहा है,
उतना तेजी से
फिल्म का बाजार बढ़ रहा है। डरना-डराना आजकल फैशन में शुमार हो गया है, फैशन का बहुत बड़ा बाजार है। दर्शक यह जानते
हुए भी कि तकनीक का कमाल है, फिर भी डरता है। डर लगता है इसलिए डर जाता है। जब आप अंधेरे सिनेमा हॉल में डर
रहे होते हैं तब तकनीक चमक रही होती है। तकनीक के जरिए आवाजों, दृश्यों की ऐसी डरावनी और सनसनीखेज
प्रस्तुतियां की जाती है कि डरना अच्छा लगने लगता है।
डरते डरते हंसना सीखो,
हंसते हंसते
डरना,
इसी अवसर के लिए
कहा गया है और सबने स्वीकार लिया है। परदे पर कई तरह के रंगों के साथ दृश्यों की
संकल्पना को उकेरा जाता है,
कल्पनाओं का
वास्तविकता के साथ घालमेल कर विशेष प्रभाव उंडेले जाते हैं। सब उपक्रम आपको डराने
के लिए रचे जाते हैं। आप खुद डरेंगे तो अपने मित्रों को बतलायेंगे कि पायरेटिड
डीवीडी या छोटे परदे पर इस फिल्म को देखकर डरने में वो थ्रिल नहीं है। 500 रुपये की एक टिकट खरीदकर फिल्म देखने में
डरने से मजा मिलता है। बड़े परदे पर भी च्वाइस आपकी होनी चाहिए। डोल्बी साउंड वाले
थिएटर में चलो,
वहां जाकर
डरेंगे।
डरने का मजा भी पैसे खर्च करके लूटा जा रहा है। लूट का बाजार गर्म है मौसम
गर्मी से दहक रहा है। वितरक, निर्माता और निर्देशक की जेब गर्म करने का सिलसिला जारी रहना चाहिए। डरो डरो
जल्दी डरो। पर फिल्म देखने से पहले मत डरो। उसकी टिकट खरीदने में आने वाले
खर्च की चिंता करके तो कायर डरते हैं, तुम तो बहादुर डरपोक हो। फिल्म देखकर डरना अच्छा लगता है। जरूरी नहीं कि फिल्मों
में खूब खंजर चलें और नुकीले दांतों वाली डायन का लहूलुहान चेहरा हो, जख्मी चेहरे से रक्त टपक रहा हो, पर उससे रक्त नहीं, डर टपकना चाहिए। गोलियों की आवाजें आ रही
हों। ढांय ढिशुम हो रही हो और वह डर और कहीं नहीं आपकी आंखों पर सीधा असर डाले, आपके मन को भूकंप की मानिंद झंकृत कर दे।
कहते हैं जो डरा नहीं भय से, भावों से,
वह क्या डरेगा
अभावों से। पीकर मय भरे प्यालों से, वह समय से भी नहीं डरता। मय ताकत देती है, सुरा बदल देती है सुर। डरने से जो मजा आना है, उसे लॉक कर देती है। आज डरकर अमर होना तय है।
डरपोक की आयु लंबी होती है,
डरने से उसका
जीवन बढ़ जाता है। लोग डर डरकर लंबी उम्र जिया करते हैं। डरकर जीवन बढ़ाने का
आधुनिक फंडा है यह। आपकी तेज सांसें देखकर डर जरूर डर जाएगा। डर को कांपते
देख सबको मजा आएगा। बच्चे फिल्म के नाम से डरें। कहें कि हम भी देखेंगे डर, कैसा होता है सर। मुझे याद है पहले डर कबूतर
की आहट हुआ करता था। कबूतर बिल्ली को देखकर आंखें बंद करके सुरक्षित हो जाता था।
आज चूहा देखकर डर लगता है,
पर न चूहा आंखें
बंद करता है और न डरने वाला अपनी आंखें मिचमिचाता है। नेताओं को चूहे से नहीं, महिलाओं को चूहे से डर लगता है। महिलाएं
छिपकली से भी डरती हैं। काकरोच से डरने पर तो उनका एकाधिकार है। काकरोच चाहे
डर न रहा हो, पर छिपकली से वह भी डरता है। छिपकली जब दीवार से चिपकती है और फिर
तेजी से सरकती है,
दरअसल वह सरकना, दीवार पर तेजी से रपटते हुए सरकना डर की ही
बेबाक अभिव्यक्ति है। देखने वाला डरता है, सरकने वाली डरती है। उसे घूर रही हैं छिपकली की आंखें और वह सरकती हुई आंखों
में घुसी चली आ रही है। डर अब न बिल्ली है, न कुत्ता है,
डर अब महंगाई है, पर उससे भी नेता नहीं डरते।
डरने वाले कुत्तों की भौंकने की आवाज से सिहर जाते हैं, सावधान हो जाते हैं। रात को वे जब सो रहे
होते हैं। तब कुत्ते की आवाज से डर जाते हैं। एक मित्र ने इसका कारण पूछने पर
बतलाया कि एक दिन दोपहर में वह अपने स्कूटर पर अपनी बीवी के साथ जा रहा था कि
एकाएक एक कुत्ता भागकर आया,
उन्होंने स्कूटर
धीमा कर दिया और श्वान ने मौका नहीं चूका और उनकी टांग की पिंडली में पैने दांत
गड़ा दिए। तब उन्होंने टीके लगवाए थे, टीकों के साथ तब डर भी लग गया, मालूम ही नहीं चला। इसलिए अब कुत्ते के काटने से डरता हूं और भौंकने से नींद
में भी सिहर उठता हूं।
हैरान हूं देखकर आज समाज को, डरता है जो मच्छर के गुनगुनाने से, नहीं डरता अब वह ट्रैफिक के तेज टकराने से। ट्रैफिक में कूदने से जो डरा नहीं, हॉर्न की तेज चीखें सुनकर वह डरेगा क्या, आइटम सांग से भी नहीं डरता है अब कोई, टम टमाटम टम टम, डग भरता है। सड़कों पर डर अब भीड़ सा मचलता
है। सब उसी भीड़ में शामिल हो रहे हैं पर डर है कि कहीं दिखता नहीं। अपने डरने के
लिए डंडा रखते हैं पर डंडा देखकर सामने वाला डर जाता है। डरने का प्रयास ही निष्फल
हो जाता है। हालत ऐसी है आज कि पुलिस का डंडा देखकर पुलिस ही डरने लगी है। यह
पहेली अभी तक किसी से नहीं सुलझी है। डर से डर कर हम प्रकृति के कार्य में सहयोग
कर रहे हैं। इसलिए डर कर कितनी ही बार मर रहे हैं हम। डर को भगाओ मत, डर से चिपट जाओ, डर से लिपट जाओ। मेरी मानो तो डर पटाए और तुम
पट जाओ।
आज हालात यह हो गई है कि जब तक आप डरें नहीं, तब तक आप सफल नहीं हैं। सफल होने के लिए डरना सबसे सरल है। वोटर से डरा हुआ
नेता वोटर को पांच साल डराता है और जिस दिन चुनाव आता है। वोटर का डर लपक कर नेता
के चेहरे पर ट्रांसफर होकर कंधे पर बैठ जाता है। डर चीज ही ऐसी है फिल्म का डर
दर्शक के चेहरे पर और वोटर का डर नेता के फेस पर। अब साबित हो चुका है कि फेसबुक
पर जिनका खाता है,
वह किसी से नहीं
डरते,
डरती उनसे अब
सरकारें हैं। सरकारों के डरने का मौसम आ गया है। पर आप सरकार को मत डराना। नहीं तो
वे गाना गायेंगी कि ‘डर लगे तो गाना गा’। कुछ लोग डर कर सो जाते हैं, अधिकतर रो जाते हैं, पर खोता कोई नहीं है, कुछ डर कर खाना खाने लगते हैं, जरूर उन्हें अपना बचपन याद आ जाता होगा। आपने
भी सुना होगा कि वह इसलिए खो गया क्योंकि डर गया था। डर लगे तो गाना किसी फिल्म
का ही होना चाहिए। डर लगने पर हनुमान चालीसा का पाठ करने के जमाने बीत गए
हैं क्योंकि इससे डर लगना बंद हो जाता है। न डरने वाले तो मौत से भी नहीं डरते
उससे भी खुले में भिड़ जाते हैं। मौत सामने हो और वे अकड़ जाते हैं। मेरी यह सीख
गांठ बांध लो कि ‘डरना मना है’, क्या हुआ जो चारों ओर अंधेरा घना है, इसे मन की विकृतियों ने ही बुना है। इसे बुनने के लिए एक दुष्कर्मी ने राजधानी
दिल्ली के गांधी नगर को ही क्यों चुना ?
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