लेखक जीवन के किसी एक पक्ष के बारे में नहीं लिखता. वह सामाजिक विसंगतियों, प्रेम, प्रकृति, बाों और सौंदर्य, सबके बारे में लिखता है. मेरे लेखन में भी यह सारी चीजें आती हैं, लेकिन समाज में मौजूद तमाम तरह की गैरबराबरी मेरे लेखन की बुनियादी चिंताओं में से एक है. आज जिसे चमकता भारत कहा जा रहा है, उसका एक बहुत बड़ा हिस्सा अंधेरे में है, पर उसकी कोई चिंता कहीं नहीं दिखती. धर्म, जाति और आर्थिक कारणों से व्याप्त सामाजिक विसंगतियां मुझे सबसे अधिक विचलित करती हैं.
लेखक के मन में रचना के जन्मने का कोई तय समय नहीं होता. एक अंधेरे कमरे में बैठे, खाली दीवार को देखते, सड़क पर बेवजह भटकते, रात गये अचानक टूटी नींद के बाद कभी और कहीं भी कोई विचार मिल सकता है, कविता सूझ सकती है. अखबार की कोई बहुत छोटी सी खबर या बंद पड़ी घड़ी भी लिखने का कारण दे सकती है. मेरे जेहन में रचना अपना शिल्प लेकर आती है. अगर वह शिल्प मैंने खो दिया, तो उस विचार का फिर मेरे लिये कोई मतलब नहीं रह जाता. सबसे बड़ी चीज होती है, किसी रचना को उसके क्रिएटिव अंत तक पहुंचाना. ऐसा कई बार आसानी से हो जाता है, तो कभी असंभव सा लगने लगता है. इस तरह रचनात्मकता में मुश्किलें और आनंद दोनों है. ‘यह मेरा रचा हुआ है’, ऐसा कह सकने का सुख आज की दुनिया में सिर्फ क्रिएटिव आदमी को ही हासिल है. लेकिन मेरी रचना महत्वपूर्ण इसलिए नहीं है कि उससे मेरा नाम जुड़ा है, बल्कि इसलिए है कि उससे मेरी पहचान जुड़ी है.
इस दुनिया में जहां सारी चीजें पहले से तय कर दी जा रही हैं, वहां रचनात्मकता ही है जिसमें आप पूरी तरह स्वतंत्र हो सकते हैं. अगर आप स्वतंत्र होना चाहें तो. आज लेखक नाम की चिंता बहुत कम रह गयी है. खासतौर पर हिंदी लेखक की. इसलिए एक कवि या कहानीकार के तौर पर मुझे किसी व्यावसायिक मानदंड पर नहीं, अपने मानदंड पर खरा उतरना है. मुझ पर बाहर का कोई दबाव नहीं है. अब मैं जबरदस्ती कोई दबाव लाद लूं, तो उसका कोई निदान नहीं है.
मैं रचना को प्रस्तुत करने के लिए कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करता. बस अपनी बात को सीधे कह देता हूं. यह हुनर मैंने पत्रकारिता से पाया है. मुझे खुशी है कि मैं संयोग से ही सही पत्रकारिता में आ गया. पत्रकारिता ने मुझे सिखाया कि अपनी बात को सरलता से कैसे कहें. इसने ही मुझे मजदूरों, किसानों, दलितों, भोपाल गैसकांड जैसी त्रासदी को झेलेने वाले आम लागों की पीड़ा से लेकर संसद में होने वाली बहसों, राजनेताओं के व्यवहार और एक प्रधानमंत्री के साथ यात्रा सबकुछ को नजदीक से देखने का मौका दिया. इन सब चीजों ने मेरे अनुभव संसार को बढ़ गया. पत्रकारिता में, खासकर रिपोर्टिंग में एक अच्छी बात ये है कि आप जहां नहीं भी जाना चाहते, वहां जाना पड़ता है. जिन चीजों को नहीं देखना चाहते, वो देखना पड़ता है. ये अनुभव लेखन को विस्तार देते हैं. पत्रकारिता ने अनुभव की दुनिया दी और ऐसी भाषा में लिखना सिखाया, जिसे लोग आसानी से समझ सकें. दैनिक अखबारों में नियमित कॉलम लिखने के अभ्यास ने यह गुण भी विकसित किया कि लेखन के लिए मैं मूड का इंतजार नहीं करता. कभी भी लिख सकता हूं, जब समय मिले. लेकिन कोई क्रिएटिव काम करता हूं, तो मुझे घनघोर एकांत की जरूरत होती है. खासतौर पर जब मैं पहला ड्राफ्ट तैयार कर रहा होता हूं. अगर मैंने थोड़ा-बहुत काम कर लिया है, फिर शोर-गुल में भी हो, तो ज्यादा दिक्कत नहीं होती. लेकिन लेखन के लिए मेरे साथ समय या स्थान को लेकर कोई बाध्यता नहीं है.
कविता ही लिखूं ऐसी कोई मजबूरी नहीं है मेरी. कविता लिखूं, तो कहानी न लिखूं ऐसा भी कोई प्रतिबंध नहीं. हां कविता को लेकर कहीं ज्यादा जिम्मेदार और सहज महसूस करता हूं. बुनियादी पहचान मेरी एक कवि के रूप में ही बनी. बाद में और विधाएं उसमें जुड़ती गयीं. कुछ ज्यादा जुड़ीं, कुछ कम जुड़ीं. मेरे लेखन में व्यंग्य कैसे शामिल होता गया, इसका कोई निश्चित जवाब नहीं है. समाज में मौजूद तमाम तरह की विसंगतियों से ही ये चीज आयी होगी. हालांकि ऐसा भी नहीं है कि मेरी रचनाएं सिर्फ व्यंग्यात्मक हैं. कहीं-कहीं व्यंग्य का मूल स्वर है. मैं मानता हूं कि लेखन का कोई शिखर नहीं होता, जिसे पाया जा सके. हमेशा लिखते रहना होता है. लिखने का काम भले कमरे में किया जाता है, लेकिन लेखन की सामग्री भटकाव और यायावरी से मिलती है. यात्रा से हम दुनिया भर के जीवन को जानते हैं.
किसी रचना को उसके रचनात्मक अंत तक पहुंचा देने के बाद मैं उसकी बहुत चिंता नहीं करता. अपने विगत में मैंने जो भी हासिल किया, अच्छा या बुरा उसके आभामंडल में, अगर ऐसा कोई आभामंडल है तो, खुद को रखना मुझे पसंद नहीं. हमेशा कुछ नया करते रहने, समाज में कुछ और जोड़ने की कोशिश मेरे साथ चलती है. नया कर पाता हूं या नहीं, ये दूसरी बात है. कोशिश करने की तसल्ली तो रहती ही है.
मैं अगर कोई रचनात्मक काम कर सकता था, तो वो लेखन ही है. इसके बहुत ठोस कारण हैं. मैं बहुत साधारण परिवार और एक छोटे से कस्बे में पैदा हुआ. कला के जो दूसरे क्षेत्र थे, उसके साधन मेरे पास नहीं थे और न उनमें रुचि थी. एक कलम और कागज ही मुझे सहजता से उपलब्ध थे. अगर मैं लेखक नहीं होता, तो और भी कुछ हो सकता था. मेरी बहुत इच्छा थी कि अध्यापक बनूं. आजीविका के लिए कुछ तो करता ही. लेकिन, मुझे अकसर लगता है कि मैं लेखक नहीं होता, तो बहुत बुरा आदमी हो सकता था. रचनात्मकता ने मुझे बहुत संतुलित किया है. इससे मेरे भीतर मौजूद आक्रोश को शब्दों की अभिव्यक्ति मिली. मुझे लगता है कि हर इंसान के भीतर कुछ कुंठाएं, बेचैनियां, अभाव की पीड़ा होती है. मेरे भीतर भी रही होंगी. रचनात्मकता ने मुझे इस पीड़ा में स्वयं को संतुलित रखने के साथ कुछ करते रहने का सुख दिया है.
लेखन के अलावा मुझे यूं ही अकारण भटकते रहना पसंद है. कई बार रास्ता भी नहीं पता होता है और मैं चलता रहता हूं, निरुद्देश्य. इस भटकाव का भी अपना सुख है. इसके साथ संगीत सुनना, दुनिया भर की क्लासिक फिल्में देखना पसंद है.
बातचीत : प्रीति सिंह परिहार
प्रभात खबर 'रविवार' 17 फरवरी 2013 के अंक से पाठकों के हित में साभार।
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