हिंदी का सवाल

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  • फ़ज़ल इमाम मल्लिक
    विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘फ़रारी की सवारी’ के प्रीमीयर का न्योता मिला था, तब ही सोच लिया था कि फ़िल्म देकने ज़रूर जाऊंगा। हालांकि सिनेमा घरों में फिल्म देखना लगभग छूट गया है। टीवी ने जो संसार हमारे आसपास रचा है, उसकी वजह से बड़ा परदा अब दूर हो गया है। नहीं तो एक वह दौर था जब स्कूल-कालेजों से क्लास छोड़ कर या यों कहें कि भाग कर सिनेमा घरों का रुख़ किया करता था और नई फ़िल्म पहले दिन, पहला शो देखने की हम लोगों में होड़ रहती थी। और जो पहला शो देख आता था तब वह हमारे बिच सिकंदर की तरह इठलाया फिरता था। यह बात अलग है कि तब एक डर भी लगा रहता था। घर वालों को पता नहीं चले, इसे लेकर एक ख़दशा भी रहता था। कभी पता चल जाता तो पिटाई होनी तय थी। यह वह दौर था जब बच्चों और बड़ों के बीच एक रेखा खिंची होती थी। हम बड़ों के सामने सिनेमा की बातें करनी तो दूर, फिल्म के गीत गाने और सुनने तक से परहेज़ करते थे। तब वह दौर था जब टीवी नहीं, रेडियो जीवन का एक अहम हिस्सा था। लेकिन तब फ़िल्मों के गीत सुनते हुए भी हम इस बात का ध्यान रखते थे कि गाना सुनते हुए हमें कोई देख-पकड़ न ले। लेकिन अब समय भी है और मौक़ा भी, फिर भी सिनेमा जाने का वह जनून ख़त्म हो चुका है। मनु और सुंबुल के साथ कभी-कभार ज़रूर सिनेमा हाल में जाकर फिल्म देखा है, लेकिन दिल्ली में रहते हुए बहुत कम ही सिनेमा हाल जानने का अब मौक़ा मिलता है। कोलकाता में रहते हुए ज़रूर सिनेमाघरों में फ़िल्में देखीं। उसकी बड़ी वजह यह थी कि जिस इलाक़े तालतला में मैं रहता था उसके आसपास कई सिनेमाघर थे। अवकाश के दिन या सुबह की पाली से छूटने के बाद अक्सर रात का शो देख आया करता था। बाद के दिनों में जब काशीपुर रहने लगा तो फिर यह शौक़ भी छूट गया।
    यों पांच-छह साल पहले तक हर नई फिल्म पहले दिन ही देखता था। इसकी वजह कारोबारी ज्Þयादा थी, शौक़ कम। कोलकाता से तबादले के बाद दिल्ली आया तो हमारे समाचार संपादक श्रीश मिश्र ने अपनी ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी। श्रीश जी फ़िल्मोंकी समीक्षा लिखा करते थे। मेरे दिल्ली आने के कुछ दिनों बाद ही उन्होंने समीझा लिखने का काम मेरे जिÞम्मे डाल दिया। मेरे लिए परेशानी यह थी कि श्रीश मिश्र फिल्मों के एकतरह से इंसाइक्लोपीडिया थे। फिर उनके लिखने का जो सलीक़ा था और जिस बेहतर अंदाजÞ से वे उसे बरतते थे, मेरे लिए उसे बरक़रार रखना बड़ी चुनौती थी। फ़िल्मों को लेकर एक तो मेरा अल्पज्ञान और ऊपर से श्रीश जी ने जो एक बड़ी लकीर खींच रखी थी, उसकी वजह से हर बार लिखने से पहले एक दबाव मुझ पर रहता था। इस दबाव के बावजूद फिÞल्मों पर लिखने का सिलसिला चल पड़ा। अच्छी बात यह रही कि मेरी कॉपी को श्रीश जी तराश-ख़राश (संपादन) कर ठीक कर देते थे। इस वजह से मेरा हौसला भी बढ़ा और लिखने का सलीक़ा भी आया। वर्ना इस मामले में तो मैं कोरा ही था।
    कई साल तक यह सिलसिला चलता रहा और अपनी सीमाओं में अच्छा-बुरा जैसा भी हुआ फिल्मों पर लिखता रहा। बाद में यह सिलसिला पांच-सात साल पहले थम गया और हाल के कुछ सालों में सिनेमाघरों से रिश्ता लगभग ख़त्म-सा हो गया है। वैसे बीच में ‘चक दे इंडिया’ और ‘ग़ज़नी’ सिनेमाघरों में देखने की इच्छा बेतरह हुई थी। इन फ़िल्मों को सिनेमाघरों में देखी भी। लेकिन अब पहले वाली वह बात नहीं है जो सिनेमाघरों की तरफ़ खींच कर ले जाती रही है। एक वजह तो मशग़ूलियत भी हो सकती है। लेकिन कारण कई और भी हैं।
    फ़िल्मों पर लिखने की वजह से अक्सर इसी तरह प्रीमियर का न्यौता मिलता रहता है। ‘फ़रारी की सवारी’ का न्योता मिला तो इसे देखने का मैंने मन बना लिया था। वजह एक तो विधु विनोद चोपड़ा थे और दूसरी वजह फ़िल्म का विषय। खेल को केंद्र में रख कर हमारे यहां बहुत कम ही फ़िल्में बनी हैं। लेकिन जो भी फ़िल्में बनी हैं, एक-दो को छोड़ दिया जाए तो ज्Þयादातर फिल्मों ने दर्शकों को रोमांचित किया है। जो नाम अभी ज़हन में आरहे हैं उनमें ‘चक दे इंडिया’ के अलावा ‘हिप-हिप हुर्रे’ ‘गोल’ ‘तारा रम पम’ ‘जो जीता वही सिकंदर’ ‘पटियाला हाउस’ ‘विक्टरी’ ‘इक़बाल’ ‘से सलाम इंडिया’ ‘बेंड इट लाइक बेखम’ ‘जन्नत’ शामिल है। ‘लगान’ को भी इसमें रखा जा सकता है। इन फ़िल्मों में खेल केंद्र में है और आम आदमी के सपने, उसकी जीजिविषा, घर-परविार, संघर्ष साथ-साथ चलते हैं और जीवन में बिखरे चमकदार और धूसर रंगों से हमारा नाता जोड़ते हैं।
     ‘फ़रारी की सवारी’ सिनेमा हाल में देखने की एक वजह तो यह थी ही, दूसरी वजह यह थी कि फ़िल्म का प्रीमियर शाम में होना था और तब तक दफ्Þतरी काम मैं निपटा सकता था। दिल्ली में फिल्म का प्रीमियर क्यों और किन कारणों से रखा गया था, इसकी जानकारी नहीं थी और न ही इस बात का पता था कि फ़िल्म के प्रीमियर के दौरान कौन-कौन मौजूद रहेंगे। प्रीमियर दिल्ली दरवाज़े (दिल्ली गेट) के पास ‘डिलाइट’ सिनेमाघर के मिनी थिएटर में होना था। यह थिएटर कुछ साल पहले ही बना है। क़रीब सौ लोगों की क्षमता वाले इस थिएटर हाल में एकाध बार पहले भी फ़िल्म देखने का मौक़ा मिला है। लेकिन यह तब की बात है जब फिÞ ल्मों पर लिखना होता था।
    समय से कोई दस मिनट पहले हाल पर पहुंचा तो बाहर लोगों की भीड़ जमा थी। भीड़ देख कर ही पता चल गया था कि   प्रीमियर के दौरान फ़िल्म के कलाकार भी मौजूद रहेंगे। बोमन ईरानी और शरमन जोशी ने फ़िल्म में मुख्य किरदार निभाई है, इसलिए उनका वहां होना तय था और उन्हें देखने के लिए ही बाहर लोगों में मारामारी थी। फोटोग्राफ़र और अख़बार वाले भी थे और कुछ समाचार चैनल से जुड़े कैमारामैन और रिपोर्टर भी। आमतौर पर इस तरह की भीड़ की वजह से जो परेशानी होती है, उस दिन भी हुई। हाल के अंदर जाने में थोड़ी दुश्वारी हुई। लेकिन फिर सब कुछ सामान्य हो गया। किसी तरह हाल के अंदर पहुंचे। फिल्म शुरू नहीं हुई थी। कुछ ख़ास मेहमानों का इंतज़ार था।
    मेहमान आए तो पता चला कि उनमें लालकृष्ण आडवाणी भी हैं। शायद इसी वजह से थोड़ा तामझाम ज्यादा था और सुरक्षा वगैरह के इंतज़ाम भी। यह दूसरा मौक़ा था जब आडवाणी जी को किसी फ़िल्म के प्रदर्शन के दौरान देखा था। इससे पहले अनुपम खेर की फ़िल्म ‘हवाई दादा’ देखने के लिए आडवाणी जी को ख़ास तौर से बुलाया गया था। इत्तफ़ाक़ से उस दिन मेरा भतीजा हुज़ैफ़ा दिल्ली में ही था इसलिए वह भी मेरे साथ हो लिया। यह भी कह सकते हैं कि बच्चों के लिए बनाई गई यह फ़िल्म देखने मैं इसलिए भी चला गया क्योंकि हुज़ैफ़ा दिल्ली में था।
    पत्रकारिता की वजह से आडवाणी जी से थोड़ा बहुत परिचय था। मिलने-जुलने में यों भी आडवाणी जी काफ़ी सलीक़े से मिलते थे, हम जैसों से तो घर के किसी बड़े-बूढ़ों की तरह ही। देखा तो एक मुस्कान उनके होंठों पर उभरी और पूछा- आप भी आए हुए हैं। फिर हमेशा की तरह थोड़ी घर-परिवार की बातें पूछीं। हुज़ैफ़ा को साथ देखा तो उससे भी मिले। मैंने उन्हें बताया मेरा भतीजा है। काफ़ी देर तक उससे उसकी पढ़ाई-लिखाई वगैरह की जानकारी लेते रहे।
    ‘फ़रारी की सवारी’ के प्रीमियर पर आडवाणी जी भी होंगे, इसकी जानकारी नहीं थी। बहरहाल उनके आने के बाद प्रीमियर की तैयारी शुरू हुई। लेकिन उससे पहले कुछ तक़रीरें हुईं। विधु विनोद चोपड़ा, फिÞल्म के निर्देशक राजेश मापुसकर, बोमन ईरानी और शरमन जोशी ने फ़िल्म से जुड़ी कुछ बातें कहीं। लेकिन हिंदी सिनेमा के कलाकारों और निर्देशकों की जो बड़ी ‘ख़ूबी’ है, वह यहां भी देखने को मिली। हिंदी फ़िल्म बनाने वाले और हिंदी की बदौलत शोहरत, इज्Þज़त और दौलत पाने वालों ने अंग्रेजÞी में अपनी बातें रखीं। हिंदी फिÞल्मों में काम करने वालों की यह सबसे बड़ी ख़ूबी है कि वे उस भाषा की तौहीन करने में नहीं हिचकिचाते हैं जिस की बदौलत उन्हें नई पहचान अता हुई है। कई साल पहले हिंदी के सवाल पर ही सनी देओल से एक तरह से झड़प तक हो चुकी है। तब मैं कोलकाता में था। सनी देओल अपनी किसी फ़िल्म के प्रचार के लिए वहां आए हुए थे। सवाल-जवाब के दौरान उन्होंने एक ख़बरनीवस के हिंदी में पूछे गए सवाल का जवाब अंग्रेजÞी में दिया था। उनके जवाब के बाद मैंने सनी से सवाल किया था- ‘आप आज जिस मुक़ाम पर हैं, उसकी वजह हिंदी है। लेकिन आप या आप जैसे दूसरे अभिनेता-अभिनेत्री सार्वजनिक तौर पर हिंदी के बजाय अंग्रेज़ी भाषा में बोल-बतिया कर उस भाषा का अपमान नहीं करते हैं, जिसने आपको यहां पहुंचाया है।’ सनी ने मेरे सवाल का जवाब अंग्रेज़ी में देना चाहा था लेकिन उन्हें बीच में ही टोकते हुए मैंने कहा था ‘माफ़ करें, मैंने आपसे हिंदी में सवाल किया है और जवाब भी हिंदी में ही सुनना चाहूंगा, अ‍ेग्रेज़ी में नहीं। आप अगर ऐसा नहीं कर सकते तो मुझे मेरे सवाल का जवाब नहीं चाहिए’। यक़ीन करें तब सनी देओल का चेहरा देखने लायक़ था। ग़ुस्से से तमतमता उठे थे वे। उन्होंने जो कहा वह क़तई मेरे सवाल का जवाब नहीं था। लेकिन मैंने इस मुद्दे पर उस दिन ज्Þयादा बहस करना मुनासिब नहीं समझा था। मुझे अपनी बात कहनी थी, वह मैंने कह दी थी और यक़ीन जानें उसके बाद वहां मौजूद तमाम लोगों ने (जिनमें संगीतकार आदेश श्रीवास्तव भी थे) सवालों के जवाब हिंदी में दिए।
    इसलिए उस दिन हिंदी के ज़रिए खाने-कमाने वालों ने अंग्रेजÞी में अपने विचारों को रखा तो मुझे बेतरह कोफ्Þत हुई। हालांकि विधु विनोद चोपड़ा की कुछ बातें मुझे अच्छझ्ी लगीं थीं। उन्होंने संघर्ष के उन दिनों को याद करते हुए ब्राडवे सिनेमा के मैनेजर की का स्मरण किया जो मुफ्त में उन्हें सिनेमा देखने की इजाजत देते थे। उन्होंने इस बात का ज़िक्र भी किया कि ग़ुरबत के दिनों में एक बार आडवाणी जी ने भी उनकी आर्थिक मदद की थी। भाषणों की इस औपचारिकता के बाद सभी लोग अपनी-अपनी सीट की तरफ़ बढ़े। इत्तफ़ाक़ से बोमन ईरानी मेरे पास से गुज़रे तो मैंने उनसे कहा- ‘बोमन साहब कभी हिंदी में भी बात करें। आप हिंदी फ़िल्मों में काम करते हैं, अंग्रेज़ी में नहीं।’ मेरी आवाज़ थोड़ी तेज़ भी थी और तल्ख़ भी। बोमन ने मुड़ कर मुझे देखा और कहा- ‘ज़रूर।’
    इतना कह कर वे आगे बढ़ गए और फ़िल्म शुरू हो गई। फ़िल्म अच्छी थी और बोमन ईरानी के साथ-साथ शरमन जोशी ने भी अच्छा अभिनय किया था। इंटरवल में हम बाहर निकले तो काफ़ी पीते हुए मैंने बोमन से फ़िल्म की तारीफ़ की और फिर हिंदी को लेकर अपना सवाल दोहराया। बोमन थोड़ा ख़ामोश रहे और उन्होंने मुझसे फिर वादा किया कि वे भविष्य में इसका ख़याल रखेंगे। इंटरवल में ही कई और लोगों से मुलाक़ात हुई। चाय-काफ़ी के बाद फ़िल्म फिर शुरू हुई। मध्य वर्ग के सपने और क्रिकेट की सियासत को केंद्र में रख कर   बनाई गई यह फ़िल्म विधु की दूसरी फ़िल्मों की तरह ही हमें गुदगुदाती भी है और भावुक भी करती है। आज की सियासत पर भी तंज़ कसे गए हैं। लेकिन फ़िल्म के केंद्र में क्रिकेट ही है। फ़िल्म कहीं अंदर तक उतर कर हमारे सामने जीवन के शोख़-चटक रंगों को भी रखती है और धूसर-मटमैलेरंगों को भी।
    फ़िल्म ख़त्म हुई तो शरमन सामने दिखे। उन्हें अच्छे अभिनय के लिए बधाई दी। वे भी गर्मजोशी से मिले। दूसरे लोग भी उन्हें बधाई दे रहे थे। लोगों की भीड़ कम हुई तो शरमन से मैंने हिंदी को लेकर सवाल किया। शरमन चुप। मैंने उनसे कहा कि हिंदी में फ़िल्म करने में उन्हें कोई समस्या नहीं है तो फिर बोलने में वे क्यों परेशानी महसूस करते हैं। शरमन के चेहरे पर एक शर्मिंदगी पसर गई थी। उन्होंने कहा- ‘सच कहें तो पहली बार हिंदी को लेकर किसी ने मुझसे इस तरह की बात कही है और यक़ीन करें भविष्य में मैं इस बात का ध्यान रखूंगा’। फिर बोमन दिखे। उन्हें भी बधाई दी और कहा कि आप तो कई जगह रुला देते हैं। बोमन मुस्कराए। मैंने बोमन के सामने फिर अपनी बात रखी ‘बोमन साहब, आप इसे मेरी गुज़ारिश समझें या कुछ और लेकिन हिंदी फ़िल्मों में काम करने की वजह से मैं आपसे इतना कहना चाहता हूं कि सार्वजनिक जीवन या समारोहों में आप कम से कम हिंदी में बात करें ताकि हिंदी और हिंदी वाले अपने को अपमानित महसूस नहीं करें’। मेरी यह बात शायद बोमन को चुभी थी। वे थोड़ी देर चुप रहे फिर उन्होंने कहा ‘मेरा यह आपसे वादा है कि भविष्य में मैं अपकी बात को याद रखूंगा और कोशिश करूंगा कि सार्वजनिक जीवन में हिंदी में बातचीत करूं’। इसके बाद थोड़ी देर तक फ़िल्म पर चर्चा होती रही। उनकी भूमिका के बारे में हम बात करते रहे। कुछ दूसरी फ़िल्मों की भी चर्चा हुई है। ख़ास कर ‘मुन्ना भाई एमबीबीएस’ और ‘थ्री इडयिट्स’ को लेकर बातें होती रहीं। फिर वे कुछ दूसरे लोगों के साथ बातचीत में लग गए।
    फिÞल्म के निर्देशक राजेश मापुसकर सामने दिखाई पड़े। यह उनकी पहली फिÞ ल्म है। उन्हें एक साफÞ-सुथरी अच्छी फ़िल्म बनाने के लिए मुबारकबाद दी। वे भी बहुत आत्मीयता से मिले। उनसे फ़िल्म को लेकर ही बातें होती रहीं। बातचीत में राजेश ठीक लगे थे। मिलनसार भी थे। विधु विनोद चोपड़ा के साथ वे पहले भी काम कर चुके थे। ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ और ‘थ्री इडियट्स’ से वे बतौर सह-निर्देशक जुड़े थे। ‘फ़रारी की सवारी’ की कथा उन्होंने विधु विनोद चोपड़ा के साथ मिल कर ज़रूर लिखी है, लेकिन कहानी का विचार पहले-पहल उनके मन में ही आया था। उन्होंने बताया कि ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ फिÞ ल्म बन चुकी थी। इसके विज्ञापन के लिए हम किसी महंगी कार की तलाश में थे। मुंबई में जब इसकी तलाश शुरू की तो हमें हर तरह की कारें देखने को मिलीं, लेकिन उन कारों में नहीं थी तो फ़रारी नहीं थी। बाद में उन्हें पाली हिल में एक फ़रारी दिखाई दी। तभी उनके मन में यह ख़याल उठा कि अगर इस गाड़ी को एक दिन के लिए चुरा लिया जाए तो क्या हो। राजेश ने इसके बाद इस विचार को आगे बढ़ाया और क़रीब साढ़े सात साल की मशक्Þक़त के बाद विधु विनोद चोपड़ा के साथ मिल कर उन्होंने फ़िल्म की पटकथा तैयार की। यह सब बताते हुए राजेश उत्साहित थे। देर तक उनसे फ़िल्म से जुड़े दूसरे पहलुओं पर भी बात होती रही।
    बातचीत का सिरा फिर मैंने हिंदी की तरफ़ मोड़ दिया। हिंदी को लेकर मेरा सवाल सुन कर राजेश थोड़ा शशोपंज में दिखे। उनके चेहरे पर लिखी इबारत से साफ़ था कि उन्हें मुझसे इस तरह के सवाल की उम्मीद नहीं थी। चूंकि मैंने सीधे उनसे सवाल किया था कि आप फ़िल्में तो हिंदी में बनाते हैं लेकिन हिंदी बोलने में आपको शर्म आती है, ऐसा कर क्या आप देश भर के उन हिंदी दर्शकों को अपमानित नहीं करते हैं जो आपकी फ़िल्में देखते हैं और उसे सराहते हैं। मेरा यह सवाल उन्हें परेशान कर गया। थोड़ी देर वे चुप रहे। फिर कहा- ‘सही कहा आपने लेकिन मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मुझे आपकी यह बात हमेशा याद रहेगी और मैं अगली बार सार्वजनिक तौर पर हिंदी में ही बातचीत करूंगा।’ राजेश मुझसे मेरा कार्ड लेते हैं। ग़ौर से नाम पढ़ते हैं। फिर कहते हैं आपको मैं भूल नहीं पाऊंगा। जब भी आप जैसे लोगों से अंग्रेज़ी में बात करूंगा तो आप याद आएंगे।
    मैं राजेश से विदा लेता हूं। हाल से बाहर आता हूं तो रात दिल्ली की सड़क पर पसर चुकी थी। हाल के बाहर भीड़ भी नहीं थी थी। रात थोड़ी आलसाई हुई थी। शाम में जो भीड़भाड़ थी वह छंट गई थी। मैं पैदल ही मेट्रे स्टेशन की तरफ़ चल पड़ा था...रास्ते में कई लोग फ़िल्मों के गीत गुनगुनाते हुए मिले...कई गीत सुनते हुए मिले...हिंदी सिनेमा बनाने वालों को पता नहीं ये लोग दिखाई देते हैं या नहीं, लेकिन सोचता हूं कि कोई एक बड़ी फ़िल्म को इन गलियों-सड़कों पर घूमने वाले नहीं देखते हैं तो फ़िल्म धड़ाम से गिर जाती है बाक्स आफिस पर। किसी भी बड़े सितारे को ये एक पल में टिकट खिड़की से बाहर कर देते हैं...ये वे लोग हैं जिनके साथ हिंदी बोलती, बतियाती और खिलखिलाती है...वे हिंदी में बोलते भी हैं और सोचते भी हैं...वे फ़िल्मवालों की तरह नहीं होते जो शोहरत, नाम, पैसा तो कमाते हैं हिंदी से और सभा-समारोहों में उसे कहीं कोने में बिसूरने के लिए खड़ा कर देते हैं।
    बोमन   ईरानी, शरमन जोशी, राजेश मापुसकर के सामने हिंदी की बात रख कर बेतरह संतोष हुआ था...उन्होंने भविष्य में हिंदी के इस्तेमाल की बात भी कही है... मुझे पता नहीं है कि वे ऐसा करेंगे भी या नहीं, लेकिन मुझे उनके हिंदी में बोलने-बतियाने का इंतज़ार रहेगा और शायद आपको भी!

    1 टिप्पणी:

    1. फिल्म अच्छी थी | मुझे कुछ स्थान बहुत ही भावप्रधान लगे | बोमन ईरानी के अभिनय में गंभीरता है | मैं इस फिल्म को ३/५ अंक दूंगा |

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