रचनाकार
...... हंसती गुदगुदाती हर दूसरे वाक्य में व्यंग्य मारती भाषा शैली का पता चलता है, जो बदस्तूर सभी लेखों में जारी रहता है. 110 पृष्ठों की इस किताब में अविनाश वाचस्पति के एक कम चालीस व्यंग्यों का संग्रह प्रस्तुत किया गया है. व्यंग्यों की विषय वस्तु आम जीवन से लिए गए हैं और जीवन के प्रायः तमाम पहलुओं को छुआ गया है.
..... अविनाश के व्यंग्यों में कहीं कहीं सामाजिक विद्रूपों को दूर करने की समझाइशें भी हैं. बेशक उनके व्यंग्य उतने मारक नहीं बन पाए हैं, मगर पढ़ते पढ़ते आपके चेहरे पर स्मित मुस्कान खींच लाने का माद्दा जरूर रखते हैं. और सबसे बड़ी बात यह है कि व्यंग्यों में पठनीयता बनी रहती है. भाषा कहीं भी बोझिल नहीं है.
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माननीय रवि रतलामी जी ने अपने ब्लॉग 'रचनाकार' पर 'व्यंग्य का शून्यकाल' की बेबाक समीक्षा पेश की है : पुस्तक क्रयादेश देने से पहले इसे अवश्य पढ़ लीजिए
Posted on by अविनाश वाचस्पति in
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व्यंग्य का शून्यकाल
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