रक्षा बंधन का दायरा व्यापक और प्रासंगिकता खतरों के हद दर्जे तक खतरनाक होने से बढ़ गई है। जिसके कारण सगा भाई भी रक्षा करने की हामी तो नहीं भरता परंतु धन खूब दे देता है। धन के कारण ही आबरू खतरे में है और धन ही इससे मुक्ति का वाहक बन गया है। रक्षा बंधन हो या भैया दूज, किसी भी त्योहार पर हम सुरक्षित रहने का दंभ नहीं भर सकते। सुरक्षित रखने का जो सूत्र बहन ने भाई को बांधा है, वह मेरी रक्षा तो करेगा किंतु कोई गारंटी नहीं कि मेरा वह भाई अन्यों के साथ भी अच्छा बर्ताव करे। अगर ऐसा हो रहा होता तो जिंदगी में कोई जोखिम न होता। आखिर सबकी बहनें हैं और वे अपने सभी भाईयों को राखी भी बांधती हैं, फिर भी खतरा कायम रहता है क्योंकि धन रक्षा का वायदा करने पर मिलता है।
सखि री, इन खतरों से मूर्तियां बची हुई हैं, उन्हें कोई खतरा नहीं है। खतरा उन्हें देखकर खुद डर जाता है, उनके हौसले को देखकर तो डर का पसीना निकल आता है। वह बात दीगर है कि कोई किसी मूर्ति की गरदन काट देता है, कोई मूर्तियों को तोड़ अपनी बहादुरी का परिचय देता है। रक्षा बंधन तो हाजिर है लेकिन भरपूर खफा है। आज उसकी तबीयत ढीली है, कोई थोड़ी देर भी बातचीत कर ले तो उसकी सांस फूलने लगती है, कहीं वह गुब्बारे सी न फट जाए, सब आशंकित हैं। आज लग रहा है कि पानी को ही हेपिटाइटिस हो गया है। अब वह क्या करे, बरसात के पानी को क्लीन करने और उसको जीवाणुविहीन करने के लिए तो इन्द्रदेव आर ओ की सुविधा जुटाने से रहे। हां, आर ओ के विज्ञापन में हेमा जी को देखकर मुग्ध अवश्य हो जाएंगे, परंतु बाजार के प्रभाव में आकर आर ओ नहीं खरीदेंगे।
सुन सखि, आज माहौल ऐसा बन गया है कि जीवित प्राणी की छोडि़ए, निष्प्राणों के भी प्राण खतरे में हैं। रक्षा की जरूरत आज सभी को है। सुरक्षा में लगाई जा रही सेंध चिंतित करती है। कदम-कदम पर दमदार सुरक्षा है किंतु इसका भी दम निकल गया, लगता है। सुरक्षा कभी खतरे पर हावी नहीं हो सकती। जरा सी चूक भरपूर सुरक्षा को धता बता देती है।
री सखि, रक्षा बंधन सिर्फ एक दिन मनाया जाता है। जिसे रक्षा बंधन सूत्र बांधा जाता है, उसकी खुद की सुरक्षा में भी दीमक लग चुकी है। सुरक्षा को चूहे नहीं कुतरते, विपरीत इसके कुत्ते सुरक्षा करते हैं किंतु दीमक तुरंत चट कर जाती है। फिर प्रत्येक जगह दीमक ही नजर आती है। ऐसे में दीमक को सभी राखी बांधना चाहेंगे, पर बांध नहीं पायेंगे क्योंकि इतनी सारी दीमकें हैं, खूब सारी राखी कहां से लायेंगे। बांधने की तो छोडि़ए, उन्हें उठाकर लाने में ही चुक जायेंगे।
सखि तू जान ले, दीमकें देश की सुरक्षा के लिए परमानेंट खतरा हैं। इन दीमकों से छुटकारा कभी संभव नहीं है क्योंकि कुछ तथाकथित इंसानों ने इन्हें महत्वपूर्ण मान, इनके जैसा आचरण करना आरंभ कर दिया है। नतीजा, आज जिंदा लोगों से प्राणवान को ही खतरा नहीं है, प्राणविहीन अधिक खतरा महसूस कर रहे हैं। एक अजीब सा माहौल है, जिनके पास प्राण नहीं हैं, उनके प्राण सबसे अधिक खतरे में हैं। इसे देखते हुए रक्षा को धर्म का स्वरूप प्रदान कर कानून सम्मत बना देना चाहिए। इस बात को तमाशा समझ कर हल्के में मत लीजिए, गंभीर चिंतन-मनन कीजिए। सुरक्षा कितनी ही चाक-चौबंद हो किंतु उसका लचीलापन उसी में बसा रहता है और इस लचीलेपन को कड़ा न करने की वजह से खतरा अधिक खतरनाक हुआ जाता है। इसके कितने ही किंतु, परंतु, शायद से हम रोजाना दो-चार-छह होते हैं और खूब रोते-बिसूरते हैं।
प्यारी सखि, यह वह दौर है जब इंसान की तो भली चलाई, ईश्वर भी सुरक्षित नहीं है। कण में छिपा तो नास्तिक वैज्ञानिकों ने खोज निकाला। जबकि आस्तिक उसे दिव्य-भव्य मंदिरों में खोजते रहे। आस्तिकों से तो बच न सका बल्कि नास्तिकों के फंदे में फंस गया और आस्तिक उसकी बंदगी करते रहे। वे यह भी कहते रहे कि ईश्वर सबके मन में समाया है। इससे भ्रम रहा कि ईश्वर को तलाशना इंसान के लिए संभव नहीं है। मन पर विजय तो विरले ही पाते हैं। इसी तरह सुरक्षा की भावना जज्बे में होती है और वह सबमें नहीं पाया जाता। हौसला कायम रहे तो सब जोखिमों से पार पा लिया जाता है। हौसलों की उड़ान भरने और जंग लड़ने वालों का ही सत्कार होता है।
सखि सुन, हौंसला जेंडर से तय नहीं होता, एक बच्चे के हौसले के आगे बड़े-बड़े सामर्थ्यवान पस्त होते देखे गए हैं। स्त्रियों के साहसिक कारनामे पुरुषों को शर्मिन्दा करने के लिए काफी हैं। इसका यह अर्थ भी मत लगायें कि साहसी पुरुषों का अभाव हो गया है। वे अब भी बहुतायत में हैं। तयोहारों का बाजारीकरण हो चुका है, रक्षा-सुरक्षा भी अब धर्म नहीं, बाजार का मर्म बन गई है। राखी व्यापार बन गई है, भेंट-त्योहार के नाम पर सभी उत्पादों पर छूट देकर लूटना जारी है और इन्हें खरीदना भाईयों की लाचारी है।
मान मेरी सखि, जिससे खतरा हो उसे ही सुरक्षा सौंप देनी चाहिए। यह मैं रक्षा बंधन के संदर्भ में नहीं कह रहा हूं। इससे तो भाई संदेह के दायरे में आते हैं बल्कि जिस वस्तु को जिससे बचाना हो, उसे उसके सामान में ही रख देने की नीति कारगर रहती है। सारे दुनिया जहान में ढूंढेगा ढूंढने वाला परंतु अपने सामान पर भी निगाह डालने का विचार उसके मन में नहीं आएगा।
अपने बचपन की सच्चाई बतलाकर इस आधुनिक रक्षा बंधन कथा को लेखक यहीं पर संपन्न करता है। मेरा एक सहपाठी मेरे पैन को हथियाना चाहता था, इसके लिए वह सभी उपाय कर चुका था परंतु उसके सारे उपाय उसे मेरे पैन तक इसलिए नहीं पहुंचा सके क्योंकि मैं वह पैन उस सहपाठी के बस्ते में ही, उससे नजर बचाकर छिपा दिया करता था और निकाल लिया करता था। आप आश्चर्य मानेंगे किंतु मेरा वह पैन अब भी मेरे पास है और उसी से मैं अपना लेखन कार्य करता हूं। चालीस बरस बीत चुके हैं और मेरा पैन सुरक्षित है, क्या आपका भी बचपन वाला पैन आपके पास सुरक्षित है, अवश्य जानना चाहूंगा।
रोचक विवरण रक्षा को विविध आयाम देता ..और बंधन आज तो हर कोई निर्बंध है .खुला खेल फरुख्खाबादी है .अन्न को लोग अन्ना समझ के भाग रहें हैं .१५ अगस्त को मौन सिंह लाल किले पे नहीं चढ़ पायेंगे उससे पहले ९ अगस्त है "बाबा राम देव दिवस "उनकी सुरक्षा को खतरा है ,जान को भी .इधर भारत सरकार अन्न से भी डरी हुई अन्न को अन्ना सुन रही है सूखे कीं तरह डर रही है ..रक्षा को ख़तरा असली है .साम्राज्ञी मौन हैं चुप्पी साधें हैं .एक राखी उन्हें भी बांधों भाई .
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।
जवाब देंहटाएंजियो जियो !
जवाब देंहटाएंअब जब सब लिख दिया हो सखि के लिये
सखा क्या करे बस क्या आ कर टिप्पणी करे?