हिंदी चिट्ठाकार और लेखक कह रहे हैं कि विश्‍व पुस्‍तक मेले में फिल्‍मी हस्तियों ने बड़ा दुख दीन्‍हा

वैसे पाठकों, प्रकाशकों और लेखकों के लिए पुस्‍तक मेला एक राहत की तरह आता है। मेला का नाम चाहे दिल्‍ली पुस्‍तक मेला हो, विश्‍व पुस्‍तक मेला हो या नेशनल बुक ट्रस्‍ट का मेला हो। लेकिन फिल्‍मकारों को छोड़कर  सबके लिए यह बहुत झमेले की बात है कि इस बार पुस्‍तक मेले पर भी फिल्‍मी हस्तियों ने कब्‍जा जमा लिया है। जब से उन्‍होंने फिल्‍में बनाने और उनमें अभिनय करने तथा पूरे बाजार पर अपना धंधा चमकाने के लिए अपनी अपनी पुस्‍तकें छपवाने और उन्‍हें रिलीज करने के लिए अपनी अपनी फिल्‍मी कमरिया को कस लिया है, तब से हिंदी के लेखकों, पाठकों और प्रकाशकों के दुर्दिन और गहरे हो गए हैं। कह सकते हैं कि पहले जो गड्ढे थे, फिर कुंए हुए, नदी हुए और अब समुद्र हो गए हैं। 
करना हमें यह है कि जिन्‍होंने हमें इन समुद्रों में डुबाने की साजिश रची है क्‍यों न हम उन्‍हें ही इन समुद्रों का वासी बनने के लिए विवश कर दें। वैसे यह बात भी ठीक है कि लेखन और फिल्‍मी दुनिया का चोली दामन वाला साथ है। आज की तकनीक में कहें तो कंप्‍यूटर और इंटरनेट के साथ की तरह है। आज इनके आपसी समन्‍वयन के बिना एक दूसरे की उपयोगिता नहीं रही है। फिर जब फिल्‍मी संसार पुस्‍तक मेले को भुना रहा है तो क्‍यों न कुछ चने लेखकों के भी फिल्‍मी दुनिया में भूनने की कोशिश की जाए। अब कोई इतनी आसानी से तो हमें चने भूनने नहीं देगा। अब वे अधिक सक्षम हैं और हिंदी का लेखक सचमुच में दरिद्र है और प्रकाशक दर्रिद्र होने का स्‍वांग करके अपने अपने उल्‍लुओं को सीधा कर रहा है। वैसे इनमें कुछ प्रकाशकों को कबूतर भी कहा जा सकता है। पाठक तो पिसने के लिए मजबूर है। 
पाठक को 25 रुपये में छपी हुई पुस्‍तक को 250 रुपये में खरीदने को बाध्‍य होना पड़ रहा है। पुस्‍तक के पन्‍ने रखे जाएंगे 40 और कीमत 400 जबकि आज के माहौल में यह कुछ नहीं है क्‍योंकि आज ही समाचार पत्रों में प्रकाशित एक समाचार बतला रहा है कि विश्‍व की सबसे महंगी पुस्‍तक एक लाख पच्‍चीस रुपये की प्रकाशित होकर बाजार में बिक रही है या बिकने को तैयार है। इसमें यह तो निश्चित है कि वह पुस्‍तक हिंदी में नहीं होगी। उसे हिंदी में होने पर 2500 रुपये में बिकने में भी सफलता नहीं मिलेगी और अन्‍य भाषा में होने पर महंगी होने पर भी साल भर में दो चार संस्‍करण निकल आएं तो क्‍या आश्‍चर्य ?
मूल मुद्दा पुस्‍तक मेले पर फिल्‍मी हस्तियों का कब्‍जा है। इससे पार पाना चाहिए। इनमें घुल मिल जाना चाहिए। घुलने मिलने में कैसे सफल हुआ जा सकता है। यह तो तय है कि वे साधारण हिंदी लेखकों और प्रकाशकों और पाठकों को भी भाव देने वाले नहीं हैं। जबकि इन सबकी सफलता से सीधे सीधे आम आदमी जो दर्शक अथवा पाठक के रूप में है, जुड़ा हुआ है। बड़े प्रकाशक भी उन्‍हीं की ओर लालायित निगाह से देखते हैं। उनकी चकाचौंध से चमत्‍कृत हो जाते हैं। उन्‍हीं के चंगुल में फंस जाते हैं। आम आदमी की कीमत पर आम आदमी का सौदा सरे बाजार किया जा रहा है। 
न्‍यू मीडिया यानी हिन्‍दी चिट्ठाकारी और सोशल मीडिया तथा माइक्रो ब्‍लॉगिंग इन दिनों हिंदी में अपने पूरे शबाब पर है परंतु कुछ तथाकथितों द्वारा अन्‍यों को इनका दुश्‍मन बतलाकर अपना मतलब सिद्ध किया जा रहा है। बाजार है लेकिन बाजार में नई वस्‍तुओं को भी तो अहमियत दी जानी चाहिए। राजधानी में विश्‍व पुस्‍तक मेले का भव्‍य आयोजन, हिंदी चिट्ठाकारिता की इसमें इस वर्ष उल्‍लेखनीय भागीदारी - दुख इस बात पर भी होता है राजधानी से प्रकाशित सभी अखबार पुस्‍तक मेले के समाचार छाप रहे हैं, उनमें फिल्‍मी भागीदारी को तो सुर्खियों में पेश कर रहे हैं परंतु जिन चिट्ठों से वे अपने अखबारों में रोजाना पोस्‍टें प्रकाशित कर रहे हैं, उन हिंदी चिट्ठाकारों की इस पुस्‍तक मेले में प्रकाशित और लोकार्पित पुस्‍तकों पर किसी ने कोई फीचर/रिपोर्ट प्रस्‍तुत नहीं की है। 
हिन्‍दी चिट्ठाकारों से यह बैर भाव किसलिए, किसकी कीमत पर और क्‍यों, क्‍या अखबार प्रबंधन, संपादकीय विभाग और हमारे सभी वे लोग जो इन चिट्ठों से सीधे अथवा टेढ़े तौर पर जुड़े हुए हैं, इस संबंध में जानकारी जुटाकर अपने अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित करेंगे। जिन हिन्‍दी चिट्ठाकारों की पुस्‍तकों का लोकार्पण इस अवसर पर किया जा रहा है, उनसे साक्षात्‍कार, उनके प्रकाशक और पाठकों से बातचीत को प्रमुखता देकर अपना कर्तव्‍य निभाएंगे या उनकी पोस्‍टों को अपने अपने अखबार में प्रकाशित करके, पारिश्रमिक देने से भी सदा की तरह बचते रहेंगे। 
चाहता हूं कि इस पर विशद चर्चा हो, हिंन्‍दी के वे प्रकाशक जो हिंदी चिट्ठाकारों की पुस्‍तकों का प्रकाशन कर रहे हैं, अपने अपने स्‍टाल पर ऐसी चर्चाएं आयोजित करें। ऐसे प्रकाशकों और लेखकों को अलग से चिन्हित किया जाए ताकि उन्‍हें मिलती अहमियत को देखते हुए इस दिशा में और सक्रियता आए। इसके लिए और किसी की नहीं हम सब हिंदी वालों की जिम्‍मेदारी बनती है कि इस पर अवश्‍य विचार करें और इस बारे में जानकारी जुटाकर एक जगह पर उपलब्‍ध करवाएं। 
चाहेंगे तो उनकी आवाज को इस चिट्ठे पर भी उठाया जाएगा। आप नीचे टिप्‍पणियों में या nukkadh@gmail.com पर अपनी बात कह सकते हैं। जिसे इस सामूहिक चिट्ठे पर प्रमुखता से प्रकाशित किया जाएगा। इसके लिए हमारे सभी लगभग 100 साथी लेखक विश्‍व भर में मुस्‍तेद हैं।

14 टिप्‍पणियां:

  1. aapne sateek bat kahi hai .prakashak bhi charcht hastiyon ko pramukhta dete hain aur aam aadmi ki upeksha .aasha hai aise jagrit karte aalekh in sabhi ko aaina dikhayengen .aabhar

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    1. आप अपने मंचों से भी इस पर संदर्भ देते हुए अपनी बात अवश्‍य कहिएगा।

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  2. जिन चिट्ठों से वे अपने अखबारों में रोजाना पोस्‍टें प्रकाशित कर रहे हैं, उन हिंदी चिट्ठाकारों की इस पुस्‍तक मेले में प्रकाशित और लोकार्पित पुस्‍तकों पर किसी ने कोई फीचर/रिपोर्ट प्रस्‍तुत नहीं की है...आपकी बात से पूर्णत: सहमत हूँ ... सार्थक एवं सटीक प्रस्‍तुति

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    1. अपने चिट्ठों पर आप इस बात को अवश्‍य लिखिएगा और कोई आश्‍चर्य मत कीजिएगा जब यही अखबार आपकी इन पोस्‍टों को भी प्रमुखता से प्रकाशित करेंगे।

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  3. "हिन्‍दी चिट्ठाकारों से यह बैर भाव किसलिए, किसकी कीमत पर और क्‍यों, क्‍या अखबार प्रबंधन, संपादकीय विभाग और हमारे सभी वे लोग जो इन चिट्ठों से सीधे अथवा टेढ़े तौर पर जुड़े हुए हैं, इस संबंध में जानकारी जुटाकर अपने अखबारों में प्रमुखता से प्रकाशित करेंगे। जिन हिन्‍दी चिट्ठाकारों की पुस्‍तकों का लोकार्पण इस अवसर पर किया जा रहा है, उनसे साक्षात्‍कार, उनके प्रकाशक और पाठकों से बातचीत को प्रमुखता देकर अपना कर्तव्‍य निभाएंगे या उनकी पोस्‍टों को अपने अपने अखबार में प्रकाशित करके, पारिश्रमिक देने से भी सदा की तरह बचते रहेंगे।"

    सहमत हूँ आपकी बात से...!

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    1. आप इस पोस्‍ट को परिकल्‍पना भी अवश्‍य प्रकाशित कीजिए रवीन्‍द्र भाई

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  4. दर-असल असली अपराधी तो हमारा 'नया मीडिया' है ,जिसमें गलाकाट-प्रतिस्पर्धा के चलते केवल अपने आर्थिक हितों के पोषण की बात है.उसे साहित्य से ,खासकर हिंदी से कोई लगाव नहीं है.ब्लॉगिंग को निःशुल्क और दोयम दर्जे में रखने में उसे सुभीता है !
    कुछ ही संवेदन-शील पत्रकार होंगे जो इस तरह की रपट बनायेंगे या फीचर देंगे !

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    1. संवेदनशील पत्रकार होने का धर्म भी हम हिंदी चिट्ठाकारों को ही निभाना होगा संतोष जी और क्‍या इस का विरोध न करने वाला, चुपचाप सहने वाला अपराधी नहीं है।

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  5. जानवरों के मेले में एक घोड़ी का भी हाल ही में कोई सवा करोड़ रूपया मांग रहा था... इस पुस्‍तक मेले से वही याद आ रहा है...

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    1. इस बात को वायरस की तरह पूरे अंतर्जाल जगत में फैलाएं वंदना जी

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    1. इस मत में अपना मत मिलाकर अपने अंतर्जाल जगत में प्रवाहित कीजिए अलबेला जी

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