मुसाफ़िर.....!!
इंजिन की तेज सीटी ने मुझे नींद से उठा दिया ... मैंने उस इंजिन को कोसा; क्योकि मैं एक सपना देख रहा था.. उसका सपना !!!
ट्रेन , पता नहीं किस स्टेशन से गुजर रही थी, मैंने अपने थके हुए बुढे शरीर को खिड़की वाली सीट पर संभाला ; मुझे ट्रेन कि खिड़की से बाहर देखना अच्छा लगता था !
बड़े ध्यान से मैंने अपनी गठरी को टटोला ,वक़्त ने उस पर धुल के रंगों को ओढा दिया था .उसमे ज्यादातर जगह ;मेरे अपने दुःख और तन्हाई ने घेर रखी थी और कुछ अपनी - परायी यादे भी थी ; और हाँ एक फटी सी तस्वीर भी तो थी ; जो उसकि तस्वीर थी !!!
बड़ी देर से मैं इस ट्रेन में बैठा था, सफ़र था कि कट ही नहीं रहा था, ज़िन्दगी कि बीती बातो ने कुछ इस कदर उदास कर दिया था की, समझ ही नहीं पा रहा था कि मैं अब कहाँ जाऊं..सामने बैठा एक आदमी ने पुछा, “बाबा , कहाँ जाना है ?” बेख्याली में मेरे होंठो ने कहा ; “होशियारपुर !!!” कुछ शहर ज़िन्दगी भर के लिए; मन पर छप जाते है , अपने हो जाते है ..! होशियारपुर भी कुछ ऐसा ही शहर था ये मेरा शहर नहीं था , ये उसका शहर था; क्योंकि, यही पहली बार मिला था मैं उससे !
बहुत बढ़िया लिखा है |
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