परिकल्‍पना समूह का सारस्‍वत सम्‍मान और दिलवालों की दिल्‍ली में दो दिन

परिकल्‍पना से रविन्‍द्र प्रभात जी के मेल आने के बाद से ही मन उत्‍साहित था कि 30 अप्रैल को उन सभी ब्‍लॉगर मित्रों से जिनसे सालों से आभासी संबंध हैं उनसे प्रत्‍यक्ष मुलाकात हो सकेगी। सम्‍मान तो एक बहाना था मित्रों से मिलने-मिलाने का। 29 अप्रैल को ललित भाई के पोस्‍ट के पब्लिश होते ही हम निकल पड़े दिल्‍ली की ओर ... 
यात्रा के दौरान नागपुर में सूर्यकांत गुप्‍ता जी नास्‍ते के पैकेटों और शीतल पेय के साथ स्‍वागत में खड़े मिले। मोबाईल कवरेज के संग पाबला जी हमारी यात्रा का अपने थ्री जी मोबाईल से वेबकास्‍ट करते रहे और हम लाईव दर्शकों की संख्‍या देखकर आनंदित होते रहे कि हमारी यात्रा का सीधा प्रसारण मित्र लोग देख भी रहे हैं। बीना के आसपास सुनीता शानू जी का फोन आया, उन्‍होंनें अधिकार स्‍वरूप आदेशित किया कि छत्‍तीसगढि़या ब्‍लॉगरों की सवारी उनके घर ही उतरेगी। हमारे यात्रा के प्रधान मूछों वाले शर्मा जी नें किंचित सकुचाते हुए हामी भरी, और कुछ अतिरिक्‍त शव्‍द जोड़े कि हम रामकृष्‍ण मेट्रो स्‍टेशन के सामने किसी होटल में रूकेंगें, प्रेश होने के बाद सुनीता जी के घर जायेंगें। पाबला जी के पोस्‍ट के साथ ही साथ गोंडवाना एक्‍सप्रेस छत्‍तीसगढ़ के पांच ब्‍लॉगरों मैं, बी.एस.पाबला जी, ललित शर्मा जी, जी.के.अवधिया जी एवं अल्‍पना देशपांडे जी को दिल्‍ली के निजामुद्दीन में लिफ्ट करा गई।
दिल वालों की दिल्‍ली में उतरते ही सभी के मोबाईल फोन लगातार घनघनाते रहे और हम तुरत-फुरत तैयार होकर बैठे ही थे कि सुनीता जी का फोन आ गया कि वे होटल के रिशेप्‍शन में आ गई हैं, दोपहर के भोजन के लिए हमें अपने घर ले जाने के लिए। तब तक ललित भाई से हुई चर्चा के अनुसार सतीश सक्‍सेना जी, दिनेशराय द्विवेदी जी, खुशदीप सहगल जी और शाहनवाज़ जी भी होटल पहुच गए। सुनीता जी के आदरपूर्वक आग्रह से वे सभी उनके घर आ गए। सुनीता जी के घर में भारी नास्‍ते के साथ मिले स्‍नेह को ललित भाई चित्रों और शव्‍दों में पिरोते गए और एक ठो पोस्‍ट ठेल गए। हम आश्‍चर्य से मेट्रो की व्‍यस्‍त दिनचर्या में दिल्‍ली वाले व्‍यवसायी दम्‍पत्ति को अपने कार्यालयीन समय को छोड़कर हमारी निस्‍वार्थ भाव से सेवा करते पाकर अभिभूत हो रहे थे, उनके संस्‍कारी बच्‍चों व माता-पिता का हमारे प्रति आदर व स्‍नेह इस कहावत को चरितार्थ कर रही थी कि दिल्‍ली दिलवालों की है। सचमुच सुनीता-पवन जी का हृदय विशाल है।
कुछ घंटे के ब्‍लॉगर मिलन के बाद सतीश सक्‍सेना जी, दिनेशराय द्विवेदी जी, खुशदीप सहगल जी और शाहनवाज़ जी हिन्‍दी भवन के लिए निकल गए और हम भी सुनीता शानू जी को सारथी बनाकर हिन्‍दी भवन की ओर निकल पड़े। कार्यक्रम स्‍थल पहुचने में मोबाईल कवरेज नहीं मिलने के कारण जीपीआरएस ने कुछ भटकाया और इसी बहाने हमने दिल्‍ली के हृदय से रक्‍त संचारित होती सी चौड़ी सड़कों सी धमनियों से परिचित होते रहे। पाबला जी के अगली सीट पर बैठे होने के कारण यान के एसी ने हम लोगों के साथ कट्टी कर ली थी किन्‍तु ललित जी के मूछों के बालों को उड़ते देखकर हम सब संतुष्‍ट थे कि एसी की हवा हम तक पहुच ही रही है। ... और उड़ते मूंछों को संवारते ललित भाई नें हिन्‍दी भवन को देख गाड़ी रूकवाई, हिन्‍दी भवन के बाहर दो-तीन नौजवान भरी गरमी में चहल-कदमी कर रहे थे, देखने से लग रहा था कि वे नवोदित ब्‍लॉगर हैं।
द्वितीय तल में पहुचने पर बाहर पुस्‍तकों का स्‍टाल लगा चुका था और अनजान चेहरे वहॉं मौजूद थे, जाहिर था कि वे हिन्‍दी साहित्‍य समिति बिजनौर के कार्यकर्ता थे। अंदर हाल में गहमा-गहमी का आरंभ हो चुका था और स्‍टेज में डॉ.गिरिराज अग्रवाल की पुत्री गीतिका गोयल कार्यक्रम संचालित कर रही थी। हमने परिचित-अपरिचित ब्‍लॉगर मित्रों की ओर मुस्‍कान बिखेरते हुए हाल के बीच रिक्‍त सीट में ललित जी और पाबला जी के अतिरिक्‍त हम सब जम गए, ललित जी और पाबला जी मित्रों से गले मिलते-हाथ मिलाते सामने की कुर्सियों की ओर बढ़ गए जहां स्‍नेहिल आंखें उनका इंतजार कर रही थी। हमारी आंखें परिचितों को ढ़ूंढ़ती रही, मंच के पास कुर्सियों की बायीं पंक्तियों में अविनाश वाचस्‍पति जी किसी से कानाफूसी करते नजर आये फिर रविन्‍द्र प्रभात जी कत्‍थई शेरवानी में मंच में चहलकदमी करते नजर आये। हमने लम्‍बी सांसें भरी कि चलो दो तो परिचित दिखे। फिर सामने कुर्सियों पर श्रीश शर्मा जी (ई पंडित) भी नजर आ गए, हमें अकचकाये इधर-उधर झांकते देखकर हमारी कुर्सी की अगली पंक्तियों में बैठे अजय झा ने हाथ मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ाया तो स्‍मार्ट चुलबुल पाण्‍डे को सामने पाकर अच्‍छा लगा।
कार्यक्रम आरंभ हुआ और श्रीश शर्मा जी (ई पंडित) एवं दिनेशराय द्विवेदी जी को मंच पर देखना-सुनना हमारी शुरूवाती ब्‍लॉगिंग के दिनों को याद दिलाती रही। मंच के नीचे सक्रिय रश्मि प्रभा जी पहचान में आ गई और दिल को सुकुन मिला कि उन्‍हें याद है कि हमने ही हिन्‍दी ब्‍लॉग जगत में उनका परिचय पोस्‍ट लिखा था, उनके स्‍नेह को मेरा प्रणाम। अविनाश वाचस्‍पति व जाकिर अली रज़नीश जी नें आगे बढ़कर हमसे हाथ मिलाया और अपनी-अपनी कुर्सियों की ओर बढ़ गए। डॉ.टी.एस.दराल जी और राजीव तनेजा जी रतन सिंह शेखावत जी के साथ ललित भाई नें फोटो खिंचवाया, परिचय करवाया। रतन जी से उबंटू के संबंध में बातें करनी थी किन्‍तु समय नहीं मिल पाया। जाने-अनजाने ब्‍लॉगर्स मित्र कुर्सी पंक्तियों के रिक्‍त स्‍थानों पर मिलते-मिलाते और मुस्‍कुराते रहे। हम चाहकर भी अपनी सीट में धंसे रहे क्‍योंकि आज पता चल रहा था ब्‍लॉग पोस्‍टों से अधिक अहमियत टिप्‍पणियों का टीपिया संबंधों का। जिनके पोस्‍टों को हम गूगल फीड रीडर से बरसों पढ़ते रहे वो हमसे अनजान रहे, टिपिया वालों को खुली बांहें इंतजार करती रही। आह ... खैर ... हमें सम्‍मानित किया गया।
कार्यक्रम के दूसरे सत्र के मध्‍यांतर में श्रीश बेंजवाल शर्मा जी (ई पंडित), अमरेन्‍द्र त्रिपाठी जी ने हमें पहचाना और साथ में क्लिक भी चमकवाए। सुनीता जी ने सुदर्शन नौजवान महफूज़ को हमसे मिलाया तो हम एकबारगी पहचान नहीं पाये और महफूज़ भाई नें प्रेम से झिड़का कि क्‍या भईया आपसे पच्‍चीसों बार फोन पर चर्चा हुई है फिर भी नहीं पहचान पाये। गांव में पेंड़ के सबसे उंचे और पतले डंगाल पर पांव को साधते हुए चढ़कर आम तोड़ने जैसी जद्दोजहद कर के नास्‍ते के दो प्‍लेट सम्‍हाले बाहर आया तो सुनीता जी नें पवन चंदन जी से मिलवाया, व्‍यंग्‍यकार महोदय हास्‍य रस में बतियाते हुए हमसे मिले फिर भीड़ में खो गए। मेरे सहित अनेक सम्‍मानित ब्‍लॉगर प्राप्‍त सम्‍मान पत्र, मोमेंटो, पुस्‍तकों को हाथें में सम्‍हालते-समेटेते विचरते रहे, हमने झोले का जुगाड़ चाहा पर नहीं मिल पाया, जाकिर अली रजनीश जी दो व्‍यक्तियों के सम्‍मान को रस्सियों में बांधकर हाथ में पकड़ने लायक जुगाड़ बनाकर अपने विज्ञान विषयक ब्‍लाग का याद दिला दिया था। वापस पुस्‍तकों के काउंटर पर प्रतिभा जी से किसी नें परिचय कराया, संजू तनेजा जी को हाथ जोड़कर नमस्‍कार करने पर उन्‍होंनें हमें पहचाना, राजीव तनेजा जी से पहले ही मुलाकात हो चुकी थी और वे हमारी तस्‍वीर हंसते रहो के लिए अपने कैमरे में सहेज चुके थे। भीड़ का एक हिस्‍सा बने हम द्वितीय सत्र के लिए अंदर हाल में आ गए। पवन जी हिन्‍दी भवन के द्वार पर सुनीता जी का इंतजार कर रहे थे, सुनीता जी को आवश्‍यक कार्यों से अपने घर निकलना था सो वे अपने घर के लिए निकल पड़ी।
हाल में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने कालजयी साहित्यकार रविन्द्र नाथ टैगोर की बंगला नाटिका 'लावणी' का हिंदी रूपांतरण प्रस्तुत किया, कसावट एवं अपनी सभी नाट्य खूबियों से परिपूर्ण इस प्रस्‍तुति नें सभागार में उपस्थित दर्शकों को मन्त्र मुग्ध कर दिया। नाट्य प्रस्‍तुतियों को थियेटर के अंतिम छोर पर बैठकर देखना मुझे सदैव भाता है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के छात्रों ने इस प्रस्‍तुति में अपनी प्रतिभा को सिद्व किया, मैं उनके उत्‍तरोत्‍तर सफलता की कामना करता हूँ. नाट्य प्रस्‍तुति के बाद मैं लगभग अलग-थलग बाहर निकला, ललित शर्मा जी एवं अल्‍पना देशपांडे जी के साथ आत्‍मीयता से चर्चारत संगीता पुरी जी को मैंनें इंटरप्‍ट करते हुए हाथ जोड़कर (ललित भाई से उनके पोस्‍टों के संबंध में अक्‍सर चर्चा होती रहती है इसलिये सम्‍मान स्‍वरूपअपना परिचय दिया पर संगीता पुरी जी नें उड़ती नजर हमपे डाली, कोई प्रतिउत्‍तर नहीं मिला तो हमने समझा कि विघ्‍न डालने के बजाए चलता किया जाय। उसके बाद से हम जिन्‍हें पहचान रहे थे उन्‍हें भी नमस्‍कार करने की हिम्‍मत ना जुटा पाये .... :) :)  संगीता जी अल्‍पना देशपांडे से चर्चा कर रही थीं, बीच-बीच में कई ब्‍लॉगर्स उनको नमस्‍कार भी कर रहे थे, जगह कुछ कम थी जहां सभी ब्‍लॉगर्स इकत्रित थे सो भीड़ भी था। हो सकता है कि संगीता पुरी जी इन्‍हीं कारणों से हमें ध्‍यान नहीं दे पाई, किन्‍तु हमने अपनी आस्‍था पूरी श्रद्धा से प्रस्‍तुत की। हमारे अधिकार का आर्शिवाद उनके पास जमा रहेगा फिर कभी मुलाकात होगी तो साधिकार लेंगें। 

नीचे रात्रि का भोजन लग चुका था और वक्‍़त थी कि भागे जा रही थी... तो हमने अमरेन्‍द्र त्रिपाठी जी को ढ़ूढा और हम भोजन लेने क्‍यू से जुड़ गए, भोजन करते हुए और शेष समय पर हम दोनों छत्‍तीसगढ़ी और अवधि पर ही बातें करते रहे, यह मेरी पूर्वनियोजित और आवश्‍यक चर्चा थी। जेएनयू में पीएचडी कर रहे अमरेन्‍द्र भाई की भाषा एवं ज्ञान का मैं कायल हूँ, अपने अध्‍ययन की अतिव्‍यस्‍तता के बावजूद स्‍थानीय भाषा के प्रति उनका जुनून मुझे गुरतुर गोठ में रमने को प्रेरित करता है। भोजन के समय ही यह तय हो चुका था कि गिरीश बिल्‍लोरे जी भी हम लोगों के साथ होटल चलेंगें सो हम उनका बाहर इंतजार करते रहे, हमें छोड़ने पद्मसिंह जी अपनी गाड़ी से पहले गांधी शांति प्रतिष्‍ठान फिर हमारे होटल की ओर आगे बढ़े। छत्‍तीसगढ़ की टीम नें शायद 'भूलन खूँद' लिया था इस कारण पद्मसिंह जी को घुमावदार रास्‍तों से हमें होटल पहुचना पड़ा।   क्रमश: ....



संजीव तिवारी 

8 टिप्‍पणियां:

  1. कैसे भूल सकती हूँ ... शुरूआती कदम रखना आपने ही सिखाया ब्लोगिंग में . आँखों देखा हाल बढ़िया है , शुभकामनायें

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  2. कानाफूसी शब्‍द की विवेचना भी कीजिए वर्तमान संदर्भों में, चाहे कोई पाठक टिप्‍पणीकार ही करें। संजीव जी का सजीव चित्रण।

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  3. hum bhi aaplogon ko dekhe to par sabse baat nahin ho paayee....ab agli baar.

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  4. वो यादें अविस्मरणीय थीं

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  5. अविनाश भाई, जब हम कार्यक्रम स्‍थल पहुचे तब कार्यक्रम में शुरूआती एनाउंस हो रहा था, और हम सभी का ध्‍यान मंच की ओर आकृष्‍ट कराया जा रहा था, ऐसे समय में ही आप वेबकास्‍ट हो रहे टेबल के पास नजर आये, शायद आप बेबाकस्‍ट या कार्यक्रम संबंधी कोई चर्चा कर रहे थे, माईक में आपकी आवाज न पहुचे इसलिये कान के पास बोल रहे थे।

    मैंनें पोस्‍ट लिखते हुए प्रवाह में यह नहीं सोंचा था कि आप 'कानाफूसी' पर ध्‍यान देंगें :) ..

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