पूर्णिमा

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  • कहने को तो पूर्णिमा बाजपेई इस कहानी की नायिका है, पर र्मैं उसे नायिका कैसे मान सकती हूं।मुझे तो हर दो की गिनती के बाद तीसरी लड़्की पूर्णिमाही नजर हीआती है।पूर्णिमा पूर्णिमा न होकर अनुराधा,योगदा,सलेमा,भाग्यश्रीया उपासना जो भी होती और बाजपेयी,न होकर वर्मा,सिंह,देका राभा,रेड्डी जो भी होती तो क्या उसकी जिन्दगी की किताब किसी और रंग से लिखी जाती।पर एक घटना को कहानी का रुप देने के लिये मैं उस बच्ची का नाम पूर्णिमा रख लेती हूं।

    हांपूर्णिमा मेरी बहिन थी,प्यार से उसे हम पुनिया कहते थे।सामान्य बुद्धि की बच्चीऔर भाई-बहिनोंजैसी उच्च शिक्षा तो न ले सकी,पर घरेलू कार्यों और व्यवहार में हम सबकोमात देती थी।विषयोंकी सैद्धांतिक जानकारी देतीमैं उसे विग्यान और गणित के सूत्र तो रटाती रही,,अंग्रेजी व्याकरण के टेंसों ों में उलझाये रही पर जीवन को जीने के दो चार गुण सरल भाशा में न समझा पाई।जो कुछ उसके पास था हम बड़े उसेजान ही न पायेे,अपने बड़्प्पन का लोहा ही मनवाते रहेऔर बात -बात में उसे बुद्धू करार देकर उसकी क्षमताओं को नजर अन्दाज करते रहे ।वह जैसी थी,हम उसे स्वीकर नहीं कर पाये और छैने हथोड़ा लेकर,दूसरों के जिन्दगी से उदाहरण ले -लेकर उसे मूरत की तरह गड़्ने की कोशिश में लगे रहे ।हर वक्त की आलोचनाओऔर् उपेक्षाओं के कारण बालमन इतना कुन्द हो गया कि विवाह के पश्चात उसेजो थोडी बहुत अवांछित् स्वतंत्रता मिली ेउसे वह स्वर्गिक सुख मान बैठी।सही गलत समझने की शक्ति तो उसने कहींउठाकर रख दी थी।चमकते बर्तनो में चेहरे की चमक् ढुंढती मेरी पुनिया अपना दर्द सीने में दबाये ,सिर बांधेपडी रही,सब कुछ सहती रही,पर मुख पर मुस्कराहट का मुखौटाा ओढे रही।
    जब तक उसने स्थितियों को समझना शुरु किया ,बात हाथ से निकल चुकी थी।मां के परिवार मेंउसकी आलोचना के मूल मेंउसका हित होता था,पर यहां उसकी सिधाई का शोषण शुरु हो गया था।पति के रुप मेंउसे ऐसा दरिन्दा मिला जौसे न मरने देता था न जीने ।उसकी भावनाओं को ब्लैक मेल किया जा रहा था।न जाने कितनी लिखित तहरीर ठीक जो उसने प्यार के आगोश में लेपुनिया सेे लिखबा ली थी।
    भोली बच्ची उस नाटकबाज के ढोंग को प्यार समझती रही,उसपर अपना सब कुछ लुटाती रही।और वह लुटेरा अपना मतलब साध बहुत जल्द उसे दूध में पडी मक्खी की तरह निकाल चुका था।तब उसके सिर बांधे पड़े रहने का औचित्य मेरी समझ से बाहर था। हर बार मां-बापु से कहती-इतने बैभव में भे पुनिया पनप क्यों नहीं रही है?" अब लगता है बचपना तो उस समय में कर रही थी,जो पुनिय के सुख को घर के पर्दों,सोफों,साड़ियों की गिनती और जेवरों की चमक में तलाश रही थी। जब तक असलियत जान पाई,बहुत देर हो चुकी थी।मेरी बच्ची जैसी बहिन एक दरिन्दे के हाथों की कठपुतली बन चुकी थी।

    योजना के अनुसार जब वह दरिन्दा ढील छोड-ता और पुनिया उसकी मांगों को लिये हमसे मिलती तो हम््पुनिया की कुशलता एक दो वाक्यों में पूछ अपने कर्तव्य की इतिश्री मान बैठते थे-पुनिया तू कैसी है,तेरा सल्लू कैसा है,राजा बेटा कैसा है? बस और हमारे प्रशनोंके उत्तर मेंवह सिर्फ मुसकरा देती थी।पीडा से भरी उस मुस्कराहट को हमने बहुत हल्के ढंग से लिया था।मां ने जब भी अपनी इस संतति को लेअपने चिंता जताई तो सभी ने यह कहकर उनका मुंह बन्द कर दिया,"अरे थोडी बहुत ऊंच नीच तो हर लड़्की के साथ लगी रहती है।हर लड़्की को को थोड़े बहुत दबाबों का सामना तो करना पड_ता है।"जब -जब् उससे मिलना होता ,मुलाकात नितांत औपचारिक हुआ करती थी।न वह अपना मन खोलती और हम अपनी व्यस्तताओं के घेरे मेंकेवल सामाजिकता का निर्वाह भारत कर देते थे ।जीवन की उंच -नीच और संघर्षों से डरती बच्ची इतना चुपा गई थीकि कभी अपने को किसी के आगे खोलना उसने मुनासिब नही।समझा।कह भी लेती तो हम क्या तीर मार लेते ।उसकी जिन्दगी के किस-किस मौड़ पर हाथ लगा लेते ।नितांत गोपनीय क्षणोंों कादमन वह किस् -किस को सुनाती।क्या सबसे यह कहतीकि पेश मुझसे अपना सुख लूट्मुझे खोखला कर रहा है।मेरी मर्यादा की उसकी निगाह में कोइ कीमत नहीं है,मैं उसके हाथों क खिलौना भारत हूंजिससे जब चाहता है खेलता है और जब चाहता है पटक देता है।हां,उस भूखे भेड़िये ने संतति को अपने कब्जे में कर उसे े पागल करार दे दिया था।पुनिया की लिखित तहरीरें अब उस दरिन्दें के काम आ रही थी।
    इन तर्कों के आधार पर उसे े पगली बता तलाक लेने की योजना बना ली।पहला कदम पुनिया को उसके मां-बप के घर पटकना था।संतति छीन ली गई,ढेरों आरोप लगाये गयेऔर बहुत कम बोलने बाली पुनिया को कोर्ट -कचहरी में ला खडा किया गया।बूढे मां-बाप सीमित साधनों में इस जंग के मोहरे बन गयेऔर पुनिया इतनी थुक्क्म -फजीहत के बाद भी इक टूटी आशा लिये रहीशायद मेरा पति, मेरा देवतामुझे अपने घर के एक कोने मेंपडा रहने देगा,जिससे मे री जिन्दगी गुजर जायेगी।पर कहां हो पाया ये सब?इस लम्बी लडाई में सब अपना- अपना हित देख ते रहे।सम्बन्धी अपनी सुरक्षा के लिये चिंतित थे,सबको लग रहा था कहीं यह आफत हम पर न आजाये।एक दो जो हिम्मत जुटा कर खडे थे,ढेरो6 आलोचनाओं का शिकार होकर बार-बार गिरते मनोबल के साथ दूसरी पंक्ति में मिलने को तैयार हो जाते थे।किस मुशकिल से संभली थी सारी स्थितियां।

    अथक प्रयासों के बाद पुनिया के हाथ ्केबल इस जंजाल से मुक्ति लगी थी।उसे खुश होना चाहिये था,पर इतनाकुन्द मन और थका शरीर लिये उससे खुश भी नहीं हुआ गया।जिस दिन सम्बन्धों के टुटने के समाचार पर सरकारी स्टाम्प लगी,पुनिया को अतीत रह -रह याद आया था।पुनिया ने बिस्तर पकड लिया था। हम उसे तन का कष्ट मान डाक्टरोतक दौडते रहे,नये-नये खिलोनों से उसका मन बहलाते रहे,पर वह तो जैसे बिल्कुल चुपा गयी थी।कभी बाजार भी जाती तो अपनी टूटी ग्रहस्थीके अंगो-उपांगों की साज-सज्जा की मांग धीमे स्वर मे रखतीऔर हम बडेउसका तुरंत विरोध कर -वहां सब खत्म हो चुका है,अब उस विशय में कुछ मत सोचो-कह कर उसे मौन कर देते थे।पर क्या निर्देश देकर आन्दोलित मन में ठहराब लाया जा सका?अन्दर ही अन्दर घुलतीपुनिया एक दिं न बिना कुछ्कहे बीमारी की आड मेंहम सबको छोड् गयी,सबको मुक्त कर गयी।कितने चिंतित रहा करते थे हम उसके भविश्य के लिये,इसका क्या होगा कैसे होगा,पर उसने हमें कुछ भी कहने-सुनने के लिये मौका नहींदिया।जब तक रही,एक कठपुतली की तरह जिन्दा रही।कहा तो खालिया,जागो तो जाग गई सो जाओ तो सो गयी-सब कुछ रिमोट वत करती रही।

    अब उसका बचपन रह-रह याद आता है।सिर मेंदूसरे बच्चे के द्वारा कंकड मारे जाने पर बहते खून को अपनी फ्राक में चुपाती पुनिया बडे होने तक अपनी इस प्रव्रति को भूली नहीं।जो भी दुख मिला उसे स्वयम मेंचिपा पीती गई।कभी लगता था स्थितियां इसी के कारण बिगड रही हैं,पर वह कभीमूल में थी ही नहीं।जो जो उसने चाहा,उसके लिये संघर्ष चाहिये था।आसुरी शक्तियों से संघर्ष तो विरले ही ले पाते हैंफिर उसने तो कभी अपनी छिपी शक्तियों को पहचाना ही नहीं।

    क्यों किया पुनिया तुने ऐसा?एक बार तो उठ कर खडी हो जाती,कहींएक व्यक्ति केजीवन से हटने से सब कुछ्समाप्त हो जाता है?अपना मनोबल ऊंचा रखतीपुनिया,तो तुझे वह सब मिलता जिसकी तू हक्दार थी।तूने एक कदम पीछे हताया तो दुनिया ने तुझे सौ धक्के और दिये। मेरा मन बार-बार धिक्कारता है,क्यों मैंपुनिया में आत्मविश्वास नहीं जगा पाई?मेरी पुनिया तो चली गई,पर अब कोशिश है कोइ और बच्ची पुनिया सा जीवन बिताने पर मजबूर न हो।बिगड्ती स्थितियों मेंनियति को दोशी न ठहरा कर हाथ पैर चलाये जायें,सम्भव है कुछ प्राप्त हो जायेऔर प्राप्ति न भी हो तो कम से यह संतोश तो रहे कि हमने कोशिश तो की थी।पुनिया:मेरा भी वादा है तुझसे कि मैंअब किसी बच्ची को पुनिया बनने से रोकने की कोशिश करूगीं।यही मेरी श्रद्धांजलि होगी तेरे लिये।

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