आदरणीय भाई अविनाश वाचस्पति जी।
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***सुशीलकुमार-
http://smritideergha.blogspot. com/
http://words.sushilkumar.net/
http://www.sushilkumar.net/
http://diary.sushilkumar.net/
मुकाम - हंसनिवास/कालीमंडा/ पो.- पुराना दुमका/दुमका/झारखंड(भारत)-814 101
मैं इस पत्र के द्वारा यह खुलासा करना चाहता हूँ कि हाल के दिन
मेरे जो दो लघु विचार-आलेख नेट पर साहित्य और नेट पर साहित्य -भाग दो नुक्कड़ पर आये थे
उनका मूल मक़सद नेट से जुड़े लेखकों की प्रतिक्रियाएँ जाननी थी कि नेट
पर साहित्य का विरोध करने और उसे परम्परागत प्रिंट साहित्य से कमतर
दिखाने से लोग क्या समझते हैं, या समझ सकते हैं। मैं अपने मंसूबे में सफ़ल रहा।
उनकी प्रतिक्रियाओं से मुझे नेट-साह्त्य पर अभिनव और महत्वपूर्ण काम कर रहे
लोगों की विचारधाराओं और योगदान के विषय में भीतर तक झाँकने का मौक़ा मिला और सर्वसाधारण
के सोच को वृहत्तर तरीके से जान सका।
पर जो हुआ वह खेदजनक है । मुझसे भूल यह हुई कि मुझे यह रहस्य आपके समक्ष
पहले ही उद्घाटित कर देना चाहिये था। खैर, इसके लिये मैं उन सभी जनों से क्षमा-प्रार्थी हूँ जिन्हें किसी -न -किसी
वज़ह से तक़लीफ पहुंची हो। आप तो जानते हैं कि मेरा अपना ही चार ब्लॉग है और मैं खुद नुक्कड़, साहित्यकुंज
और अनुभूति से अरसे से जुड़ा रहा हूँ ,फिर कैसे आपकी या पूर्णिमा वर्मन जी या वयोवृद्ध सुमन कुमार घई जी
का निरादर कर सकता हूँ? यह समझिए कि यह मेरे उस आलेख का आधार-वक्तव्य होगा जिस पर संप्रति मैं काम रहा हूँ
और उसे लिखने के बाद मैं आपको प्रेषित भी करूँगा।
धन्यवाद।मेरे जो दो लघु विचार-आलेख नेट पर साहित्य और नेट पर साहित्य -भाग दो नुक्कड़ पर आये थे
उनका मूल मक़सद नेट से जुड़े लेखकों की प्रतिक्रियाएँ जाननी थी कि नेट
पर साहित्य का विरोध करने और उसे परम्परागत प्रिंट साहित्य से कमतर
दिखाने से लोग क्या समझते हैं, या समझ सकते हैं। मैं अपने मंसूबे में सफ़ल रहा।
उनकी प्रतिक्रियाओं से मुझे नेट-साह्त्य पर अभिनव और महत्वपूर्ण काम कर रहे
लोगों की विचारधाराओं और योगदान के विषय में भीतर तक झाँकने का मौक़ा मिला और सर्वसाधारण
के सोच को वृहत्तर तरीके से जान सका।
पर जो हुआ वह खेदजनक है । मुझसे भूल यह हुई कि मुझे यह रहस्य आपके समक्ष
पहले ही उद्घाटित कर देना चाहिये था। खैर, इसके लिये मैं उन सभी जनों से क्षमा-प्रार्थी हूँ जिन्हें किसी -न -किसी
वज़ह से तक़लीफ पहुंची हो। आप तो जानते हैं कि मेरा अपना ही चार ब्लॉग है और मैं खुद नुक्कड़, साहित्यकुंज
और अनुभूति से अरसे से जुड़ा रहा हूँ ,फिर कैसे आपकी या पूर्णिमा वर्मन जी या वयोवृद्ध सुमन कुमार घई जी
का निरादर कर सकता हूँ? यह समझिए कि यह मेरे उस आलेख का आधार-वक्तव्य होगा जिस पर संप्रति मैं काम रहा हूँ
और उसे लिखने के बाद मैं आपको प्रेषित भी करूँगा।
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चलिए!...देर से आए...पर आए तो सही...
जवाब देंहटाएंगिर पडे़ कि "हर हर गंगे "
जवाब देंहटाएंयह तो सच में बहुत बड़े 'साहित्यकार' निकले !
जवाब देंहटाएंधन्य हो महाराज !
गुणी जनों को सादर प्रणाम
जवाब देंहटाएंहै नमन उनको कि जिनके सामने बौना.........जगत है!!!
जवाब देंहटाएंangoor khatte hai .... ha ha ha
जवाब देंहटाएंYE SAHI CHAL HAI ...... YA SABDON KA JAAL HAI.....
जवाब देंहटाएंPRANAM.
चलिये देर आये दुरुस्त आये………हर काम थोडा सोच विचार कर करने से गलतफ़हमियाँ नही पनपतीं इसका सभी को ध्यान रखना चाहिये और ब्लोग की मर्यादा का भी…………आखिर ब्लोग जगत एक परिवार है।
जवाब देंहटाएंदेर आयद, दुरुस्त आयद.
जवाब देंहटाएंसच को सच मानना .....सही है
जवाब देंहटाएंदेर आये दुरुस्त आये
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