थैली के चट्टे-बट्टे

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  • अमिताभ श्रीवास्तव
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  • जितना अपने चुनावी दांव-पेंच और मतदाताओं को उल्लू बना सकने में गंभीरता अपनाई और दिमाग लगाया जाता है उतना यदि देश के लिये कांग्रेस सोचे तो सच में आश्चर्यजनक बदलाव देखने को मिल सकते हैं, किंतु अफसोस यही है कि कांग्रेस का हर नेता देश के लिये नहीं बल्कि अपने चुनावी और अपने गठबंधन को ध्यान में रखकर अपनी काबिलियत सोनिया गांधी के सामने बघारने की कोशिश करता रहता है। अफसोस यह भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के लिये भी बढिया नेता होने का मापदंड यही है कि उक्त नेता कांग्रेस को कितना फायदा पहुंचा सकता है और जब भी गठबंधन में कभी गडबड हो तो चुनाव जीतने तथा मतदाताओं को बेवकूफ बना सकने में वो कितना पारंगत है? कांग्रेस यहां तो हमेशा सोच समझकर, आगा-पीछा देख कर कदम उठाती है, मगर जब भी देश की बात आती है तो टालमटोली करती दिखती है, यहां तक कि उसका प्रधानमंत्री यह कह कर टाल जाता है कि उन्हें कुछ भी पता नहीं था। थॉमस मामले में यही हुआ। महंगाई हो, या बढता भ्रष्टाचार यूपीए की ऐसी कोई नीति अभी तक देखने को नहीं मिली है जो इस पर अंकुश लगा सके। यह विडंबना है इस देश की कि जनता भी कांग्रेस की इस कुचाल में फंस जाती है और वह देश में कोई बडा बदलाव लाने की फिक्र से ऐन वक़्त मुंह मोड लेती है। सच यह भी है कि कांग्रेस भारतीय जनमानस को अच्छी तरह से जानती-समझती है। यही वजह है कि उसके जाल में वो पार्टियां भी अपना हित साधने के लिये फंस जाती है जो आये दिन उसका विरोध करती रहती हैं। जैसा कि हाल ही में देखने को मिला जब पीएम ने माफी मांगी और विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने उन्हें माफ कर दिया। यह मामला सिर्फ माफी मांगने और माफी देने तक का ही था क्या? उधर डीएमके कल तक कांग्रेस से अपनी सीटों के बंटवारे में एकमुश्त शर्त की बात कर रहा था और सरकार से अलग हट जाने की बात ताल ठोंक कर दर्शा रहा था, किंतु अचानक सबकुछ तय हो गया और डीएमके कांग्रेस के साथ हाथ मिलाते नज़र आने लगी। उधर आप समाजवादी पार्टी का उदाहरण ले लीजिये, जब डीएमके ने अपना हाथ खींचने की बात कही तो इसका राजनीतिक फायदा उठाने के लिये मुलायम सिंह यादव ने झट से यह घोषणा कर दी कि वो यूपीए गठबंधन के साथ बने रहेगे और सरकार को किसी अनहोनी का सामना नहीं करना पडेगा। सपा की नीति, उसका कार्य और उसकी विचारमीमांसा रहस्यवादी है, शायद वो नहीं जानती कि स्वार्थगत राजनीति में अपना भविष्य तलाशने वाली पार्टियों को कभी न कभी मुंह की खानी ही पडती है। खैर, फिलहाल सपा ने जो सोचा था कि वो सोनिया गांधी की नज़रों में विश्वासपात्र बन जायेगी, डीएमके के राजी होने के बाद उसका भी कचरा हो गया है। दरअसल यह सब इसलिये होता है कि आज यूपीए गठबंधन की हर पार्टी किसी न किसी घोटाले या विवाद से दो हाथ कर रही है और अगर कांग्रेस से वो अलग हट जाती हैं तो उनका सत्यानाश अवश्य संभव है, लिहाज़ा खिसायाते हुए सब नतमस्तक होते रहते हैं और सोनिया गांधी को खुश करने में ही अपनी राजनीतिक भलाई मानते हैं।
    बहरहाल, कांग्रेस-द्रमुक का गतिरोध लगभग खत्म हो चुका है, इससे जयललिता को भी झटका लगा होगा जो यह सोच कर बैठ गईं थी कि अब इस गतिरोध का फायदा उन्हें अपने राज्य में जरूर मिलने वाला है। प्रणब मुखर्जी का दिमाग और उनका कांग्रेस के प्रति समर्पित जीवन ही ऐसा रामबाण है जो करुणानिधि को साध गया। यह सोनिया गांधी भी जानती थी कि ऐसे समय उनके पास तुरुप का इक्का प्रणब मुखर्जी के रूप में मौजूद है, इसलिये ही वे द्रमुक की हवाबाजी से चिंतित नहीं हुई। डीएमके ने कांग्रेस को 63 सीटे दे दी। पिछली बार उसके खाते में 48 सीटे थी, आप सोच सकते हैं कि जो भी सौदेबाजी हुई होगी वो कितनी उच्चस्तरीय रही होगी। करुणानिधि की पत्नी भी 2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले की जांच दायरे में है और करुणानिधि चाहते हैं कि इस दायरे से उनकी पत्नी को दूर रखा जाये। मज़ेदार बात यह है कि यहां आपस में लडाई वो करते हैं जो खुद के गिरेबां में कलंकित है, और यह जानते हैं कि एकदूसरे की ही उन्हें जरुरत है। वे बस जनता को बेवकूफ बना सके और अपनी महत्ता को दर्शा सकने के लिये हाथ-पैर चलाते रहें, उनका यही परम कर्तव्य है।
    अब इस गतिरोध के बीच जयललिता को देखिये जिन्होंने कांग्रेस को अपने 9 सांसद देने की बात से राहत पहुंचाने का काम किया था। कांग्रेस जयललिता के फेंके जाल में फंस जाती मगर उसने देखा कि जयललिता ने अभिनेता विजयकांत की डीएमडीके को 41 सीटे दे रखी है तो उसे यह सौदेबाजी रास नहीं आई। 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विजयकांत से हाथ मिलाती इसके पहले यह बाज़ी जयललिता ने मार ली थी, विजयकांत की पार्टी तमिलनाडु राजनीति में डीएमके और एआईडीएमके के बाद तीसरी सबसे बडी पार्टी के रूप में उभरी थी। ऐसे में कांग्रेस के पास उस वक्त डीएमके से जुडना लाचारी थी, अब चूंकि उसने देखा कि जयललिता के साथ अगर वह हाथ मिलाती है तो चुनाव में इसका खामियाजा उठाना पडेगा, क्योंकि उसके हाथ से डीएमके जैसे दूसरी बडी पार्टी छूट जायेगी, उधर जयललिता चाहती थी कि यदि वह कांग्रेस को पटा लेगी तो इस बार के विधानसभा चुनाव में फिर सत्ता पर आसानी से काबिज हो सकती है। किंतु कांग्रेस के लिये यह फायदेमंद सौदा नहीं था सो उसने डीएमके को पकडे रखा, डीएमके के लिये भी कांग्रेस को खोना उसकी अपनी नींद हराम होने जैसा ही था, एक तो वामपंथी पार्टियों ने उसका दामन छोड रखा है, दूसरे जयललिता ने स्थानीय पार्टियों को अपने खेमे में ले रखा है, डीएमके के लिये अकेले चुनाव लडना आसान भी नहीं था, सो थोडी हुडकी देने के बाद कांग्रेस को कांग्रेस की शर्तों पर सीटे दे दी, जब जयललिता ने यह प्रेम-मोहब्बत देखी तो वो फिर से कांग्रेस की दुश्मन पार्टी बन गई हैं। एक तरफ दोस्ती का हाथ बढाया जाता है और जब मामला करवट बदलता है तो झट से हाथ खींच लिया जाता है या हाथ मलते हुए मतदाताओं को रिझाने के लिये तर्कों-कुतर्कों का सहारा लिया जाने लगता है। राजनीति इसीको कहते हैं। मुलायम हो या जयललिता जैसे नेता सत्ता और सत्ता में बने रहकर अपने खिलाफ कोई मुहिम न चल पडे जैसी सोच के तहत कांग्रेस के आगे झुकते रहते हैं। आप यह भी देखिये कि कांग्रेस कितनी पारंगत है, कितनी मंझी हुई है कि वो तमाम विवाद के बावजूद हमेशा जीत हासिल करती है, इसका एकमात्र कारण यह है कि इस देश में उसका कोई मज़बूत विकल्प नहीं है। एक भारतीय जनता पार्टी है किंतु वो भी अपने स्थान पर अडिग रहने वाली नहीं है। उसकी करवटों से देश भलिभांति परिचित है। पहले राममंदिर का मुद्दा था तो जमकर वोट कबाड लिये गये, अब वो मुद्दा उनकी प्राथमिकता से हट गया है। इंडिया शायनिंग का गुब्बारा भी फुस्स हो चुका है और वे विपक्ष में आ बैठी। अब जब उसके पास ढेरों अवसर हैं तो उसे भुनाने में भी वो देश को अपने स्वार्थ से पीछे धकेल कर सोचती है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सीवीसी के थॉमस मामले में लगभग फंस चुके थे और भाजपा ने जिस तरह से उसे प्रचारित करके अपनी छवि संसद में कठोर बनाई थी उसकी हवा पीएम की माफी मांग लेने से ही निकल गई। भाजपा में भी इस विचार के दो धडे हो गये हैं, सुषमा स्वराज के अचानक माफ कर देने वाले लहज़े को दूसरे कुछ नेता समझ नहीं पा रहे हैं। समझे भी कैसे जब आप किसी मुद्दे को देश के साथ जोडते हैं और संसद तक को ठप करके कार्यवाही चाहते हैं,तब अचानक उस मुद्दे को कैसे ठंडा किया जा सकता है? जबकि उसके लिये आपने देश के जनमानस तक को झंझोड कर रखा। क्या वो मुद्दा अपका निजी था? जो आपके माफ कर देने से खत्म हो गया? भाजपा ने इस मुद्दे को अंजाम अपनी स्वार्थगत राजनीति खेल कर दिया। कुलमिलाकर आज चल यही रहा है आप इस देश को, देशवासियों को किस तरह से चूना लगा कर उनकी भावनाओं के साथ खिलवाड कर सकते हैं, उनकी आंखों में धूल झौंककर अपनी रोटियां सेंक सकते हैं। आप इसमे जितने निपुण हैं उतने ही सफल हैं। और बेचारे सामान्य देशवासी? उनके लिये रोज अखबार पढना, चैनल देखना और किसी चौपाल पर बैठकर राजनीति की बहस कर लेना, फिर उसी महंगाई, रोज-रोज की आपाधापी में ही जीवन गुजार देना भर है। दूसरी ओर तमाम दल एक थैली के चट्टे-बट्टे से अधिक कुछ नज़र नहीं आते।

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