प्रचलित फिकरा ‘मजबूरी का नाम महात्मा गांधी’ से बदलकर ‘मजबूरी का नाम मनमोहन सिंह’ हो गया है। वैसे हैरत मत कीजिएगा अगर कल को मालूम चले कि वे इस उधेड़बुन में लगे हैं कि किसी प्रकार से भारतीय करेंसी पर उनका चित्र महात्मा गांधी के चित्र से रिप्लेस हो जाए। जो मासूम होते हैं, वे अवश्य ही दुम दबाकर दौड़ते हैं। पर ये दुम उठाये दौड़ रहे हैं। वैसे यह भी एक अद्भुत मिसाल बन गई है कि पीएम मजबूर हो सकता है। भारत की राजनीति में ही ऐसा होता है, अन्यत्र पॉसीबल नहीं लगता। मजदूर तो मजबूर होते हैं। तीर और तुक्का दोनों यही हैं। मजदूर या मजबूर हकीकत में तो पीएम आवास के बाहर भी डट नहीं सकते। मजदूर तब तक ही वहां डटते हैं,जब तक वे बिल्डिंग संबंधी कोई कार्य कर रहे होते हैं। उसके बाद वे भी वहां से डिलीट कर दिए जाते हैं, इसे मजदूरों की मजदूरी पूरा पढ़ने और राय देने के लिए मजदूरी रूपी क्लिक कीजिए
मजबूरी का नाम मनमोहन सिंह
Posted on by अविनाश वाचस्पति in
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व्यंग्य
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