नेट पर साहित्य - भाग -2 -सुशील कुमार।

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  • Sushil Kumar
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  • भईया , ब्लॉग पर आकर सिर्फ़ गाल बजाने से कुछ नहीं होगा। आप कुछ साहित्यकारों जैसे डा. नामवर सिंह,  सर्वश्री राजेन्द्र यादव, अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, ज्ञानेन्द्रपति, नरेश मेहता, एकांत श्रीवास्तव, विजेन्द्र, खगेन्द्र ठाकुर इत्यादि या आपको जो भी लब्ध-प्रतिष्ठ लेखक-कवियों के नाम जेहन में हैं, के नेट पर योगदान को बतायें और यहाँ चर्चा करें। पूरा खुलासा करें कि कौन-कौन सी चीजें नेट पर हिन्दी साहित्य में ऐसी आयी हैं जो अभिनव हैं यानि नूतन हैं और उन पर  प्रिंट के बजाय सीधे नेट पर ही काम हुआ है, । तभी आपके टिप्प्णी की सार्थकता मानी जायेगी और आपको ज्ञान-गंभीर पाठक माना जायेगा, केवल शब्दों की बखिया उघेरने और हवा में तीर चलाने से काम नहीं चलने को है, वर्ना "मैं तेरा , तू मेरा"  यानि तेरी-मेरी वाली बात ब्लॉग पर तो लोग करते ही हैं। मुझे ब्लॉग या मिडिया से विरोध ही है! मैं तो यह आशंका जता रहा हूं कि नेट पर साहित्य को अभी मानक मिलने में काफ़ी समय लगने की संभावना है क्योंकि साहित्य के पुरोधाओं ने इसे अब तक द्वितीय पंक्ति की चीज मान रखा है और जरुरत के मुताबिक इसका इस्तेमाल किया गया है। यहां केवल वे लोग अक्सर देखे जाते हैं जिनको सरप्लस समय है। सरप्लस पूंजी यानि कंप्युटर और मासिक नेट खर्च और बलॉग-पार्टी का उपयोग कर वे संभ्रांत जन में अपना प्रभाव जमाने के लिये इसका उपयोग-उपभोग करते हैं। इसलिये जो जन नेट पर समर्पित होकर काम कर रहे हैं, उन्हें यहां  निराशा ही  हाथ लगती है। यहाँ चीजे first hand अर्थात बिल्कुल नये रूप में उपलब्ध नहीं होती। पूर्णिमा वर्मन हो या सुमन कुमार घई जी  ,  इनको साहित्य की अद्यावधि गतिविधियों की जानकारियाँ नहीं रहती। इनकी दुनिया नेट पर संकुचित-सी  हो गयी है। हालाकि नेट पर इनका काम काफ़ी सराहनीय है पर यह इस जगह की ही विडम्बना है। अविनाश वाचस्पति जी को ही ले लीजिये, नेट पर समय देने को तैयार हैं अपनी स्वास्थ्य खराब करके भी , टिप्पणी सवा एक बजे रात में जगकर लिखने की क्या जरुरत थी उन्हें? पर उन्होंने यह मुगलता पाल रखा है  कि हिन्दी पर बहुत अच्छा काम नेट में हो रहा है। जितने भी आप्रवासी वेबसाईट हैं सब मात्र हिन्दी के नाम पर अब तक प्रिंट में किये गये काम को ही ढोते  रहे हैं, वे स्वयं कोई नया और पहचान पैदा करने वाला काम नहीं कर  रहे ,   कर सकते क्योंकि वह उनके क्षमता से बाहर है। पर ऐसा क्यों है, यही मूल चिंता का विषय है। इस पर बात न कर व्यैक्तिक आक्षेप करने से क्या बात बन जाएगी? विद्वान-सज्जन लोग बतायें मुझे । नेट की अपनी सीमायें हैं। भारत जैसा देश जो अब भी भूखमरी और गरीबी की मार झेल रहा है, विकास के नाम पर जहां जल ,जंगल और वन नेस्तोनाबूद कर दिये गये हैं  और आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे लोग जहां सत्ता के गलियारे में किसी न किसी तरह काबिज है वहां अब भी वह दिन निकट नहीं कि हर साहित्य-प्रेमी के पास कंम्प्युटर और नेट की सुविधा हो, यह अभी मात्र संभ्रातों तक ही सीमित है। इस पर भी विचार कीजिये हुजूर । संभ्रात विचार जनवाद-मानववाद और मनुष्य की जगह रूपवाद पर बल देता है । दरअसल, खतरा 'रुप' या 'इंद्रियबोध' से नहीं है। रुपवाद और इंद्रियबोधवाद से है। इंद्रियबोधवाद का सोच पश्चिम की देन है। इसने नवरीतिवाद का मार्ग प्रशस्त किया है जिसे नेट के कवि लेखकों ने विशेष रूप से प्रश्रय दिया है। इंद्रियभोगवाद की अंतिम परिणति प्रकृतवाद में होती है। अत: इससे बचने की आवश्यकता है। हमारे आलोचकों को भी मुक्त-मनीषा का भी  परिचय देना चाहिए। इधर पश्चिम का आतंक उन पर छाने लगा है। इसलिये ये लोग कथ्यबोध और तनाव से भरी ही कविता को `काव्यराग` का दर्जा प्रदान करते हैं। ऐसी कविताएँ केवल रुप  निहारती, हृदय की आहट नहीं सुनती। यह तभी संभव है जब उन लोगों का भी जुडाव नेट पर हो जो अभी ख्याति-प्राप्त हैं पर अंतर्जाल से अभी दूर -दूर का वास्ता भी नहीं हैं और जरुरत पड़ने पर इनका इस्तेमाल केवल अपने तरीके से करते हैं। - www.sushilkumar.net

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