कहानी से बाहर निकलती पटकथाएं : गोवा से

Posted on
  • by
  • अजित राय
  • in
  • Labels: , , ,

  • Director Fatih Akin

    पणजी, गोवा, 27 नवम्‍बर
    इस समय दुनिया भर में नयी पीढ़ी के जिन फिल्‍मकारों का जादू चल रहा है, उनमें तुर्की मूल के जर्मन फिल्‍मकार फतिह अकीन का नाम प्रमुख है। अपनी फिल्‍म ‘हैड-ऑन’ (2004) के लिए बर्लिन फिल्‍मोत्‍सव में गोल्‍डन बीयर तथा यूरोपियन बेस्‍ट फिल्‍म का यूरोपियन फिल्‍म अवार्ड पाने वाले इस फिल्‍मकार को ठीक तीन साल बाद ‘द एज ऑफ हैवन’ (2007) के लिए कॉन फिल्‍मोत्‍सव में सर्वश्रेष्‍ठ पटकथा का पुरस्‍कार मिल गया। गोवा फिल्‍मोत्‍सव में विशेष रूप से दिखाई गई उनकी नयी फिल्‍म ‘सोल किचन’ (2009) को भी बर्लिन फिल्‍मोत्‍सव में स्‍पेशल ज्यूरी अवार्ड मिल चुका है। यह फिल्‍म अपनी नयी सिनेमाई भाषा, उत्‍कृष्‍ट पटकथा, श्रेष्‍ठ संपादन और एक साथ कई जिंदगियों को देखने की चुटीली दृष्टि के कारण महत्‍वपूर्ण है। पारंपरिक कथा संरचना से बाहर निकलकर यह फिल्‍म आधुनिक यूरोप में नयी पीढ़ी की जिंदगी की नयी पटकथाएं प्रस्‍तुत करती है।
    जर्मनी के हैम्‍बर्ग शहर के कम भीड़-भाड़ वाले इलाके में कम आय वर्ग के लोगों के लिए एक रेस्‍त्रां है सोल किचन। इसका मालिक जिनोस ग्रीक मूल का जर्मन है तथा वह नेदीन से प्रेम करता है, जो एक पत्रकार है और उसे चीन के शंघाई शहर में स्‍थानांतरित किया जा रहा है। जिनोस का भाई इलियास एक गुमराह युवक है जिसे पैरोल पर जेल से छोड़ा गया है। एक पारिवारिक भोज के दौरान दूसरे रेस्‍त्रां में जिनोस श्‍यान से मिलता है, जिसे उसे मालिक ने शेफ की नौकरी से निकाल दिया है। जिनोस अपनी प्रेमिका नेदीन से स्‍काईप पर वीडियो चैटिंग से जुड़ा रहता है। रात के अकेलेपन में अपने लैपटाप पर अपनी प्रेमिका को विविध मुद्राओं में निर्वस्‍त्र देखते हुए वह अक्‍सर सपनों की दुनिया में खो जाता है। याद कीजिए कि अनुराग कश्‍यप की फिल्‍म ‘देव डी’ में माही गिल पंजाब से अपना निर्वस्‍त्र एमएमएस देव को लंदन भेजती है। यह संयोग नहीं है कि अनुराग कश्‍यप फतेह अकीन के जबर्दस्‍त प्रशंसक हैं। गोवा के एनएफडीसी फिल्‍म बाजार में उन्‍होंने फतिह अकीन के साथ एक विशेष सत्र का संचालन भी किया। बहरहाल जिनोस अंतत: फैसला करता है कि वह अपना रेस्‍त्रां बेच कर शंघाई चला जाएगा। नये शेफ श्‍यान के आने के बाद रेस्‍त्रां का भाग्‍य खुल जाता है। इस हालत में वह इलियास को मैनेजर बनाकर शंघाई का टिकट खरीदता है। हवाई अड्डे पर अचानक उसे नेदीन मिलती है, जो अपनी दादी की मृत्‍यु के बाद अपने चीनी ब्‍आय फ्रेंड के साथ लौटी है। उधर इलियास अपने अपराधी दोस्‍तों के साथ जुए में रेस्‍त्रां को हार जाता है। जिनोस भयानक कमरदर्द से पीडि़त है और उसकी मुलाकात एक सुंदर फिजियोथेरेपिस्‍ट अन्‍ना से होती है। उसका रेस्‍त्रां नीलाम हो रहा है, उसे बचाने के लिए जिनोस अपनी पूर्व प्रेमिका नेदीन से बड़ा कर्ज लेता है जो अब अमीर हो चुकी है। अंत में, हम देखते हैं कि सोल किचन के बंद दरवाजे पर ‘प्राइवेट पार्टी’ का बोर्ड टंगा है और भीतर केवल दो लोग हैं – जिनोस और उसकी नई सहयात्री अन्‍ना ।
    ‘सोल किचन’ में हमारा सामना तरह-तरह के चरित्रों से होता है जिनमें से अधिकतर जर्मनी में काम करने वाले विभिन्‍न देशों से आए मजदूर हैं। कई बार  कोई एक कहानी चल रही होती है, तभी दूसरी तीसरी चौथी शुरू हो जाती है। फिर पहली वापिस लौटती है तो पांचवीं शुरू हो जाती है। इस तकनीक का सबसे अच्‍छा इस्‍तेमाल मैक्सिको के फिल्‍मकार इना ऋतु अपनी फिल्‍मों ‘बावेल’ और ‘ट्वेंटी वन ग्राम’ में किया था। ‘सोल किचन’ का टोन, मूड और ट्रीटमेंट कॉमेडी का है। जो एक क्षण के लिए भी दर्शक को अपने जादुई प्रभाव से अलग नहीं होने देती। प्रेम और सैक्‍स के दृश्‍यों को बड़ी सुंदरता के साथ फिल्‍माया गया है। फिल्‍म का संपादन कमाल का है और अलग-अलग स्‍वभाव की छवियां अपने आप एक तार से जुड़कर पटकथा रचती हैं।
    फिल्‍म के विशेष प्रदर्शन के दौरान फतिह अकीन ने कहा कि ‘सोल किचन’ उसके और उसके मित्र के एक साझे रेस्‍त्रां के सच्‍चे अनुभवों पर आधारित है। इसका केन्‍द्रीय विषय है – ‘करें या न करें’। हमेशा यह दुविधा बनी रहती है। चाहे वह बिजनेस हो, प्रेम हो या सैक्‍स। फिल्‍म के अधिकतर चरित्र इस दुविधा से घिरे दिखाई देते हैं। गोवा फिल्‍मोत्‍सव में इस फिल्‍म को जबर्दस्‍त सफलता मिली है। हालांकि कुछ वर्ष पहले दिल्‍ली के ओसियान फिल्‍मोतसव में इसी फिल्‍मकार की ‘हैड-ऑन’ को भी काफी पसंद किया गया था। इन दोनों फिल्‍मों में आधुनिक यूरोप के राष्‍ट्रवाद के भीतर की उपराष्‍ट्रीयताओं की अस्मिता का संघर्ष भी दिखाया गया है। कोई भव्‍य और महंगी दृश्‍य-श्रंखलाएं नहीं हैं। समाज के तलछंट में जी रहे लोगों के जीवन के दुख, संघर्ष और खुशियों को कॉमेडी के मूड में दिखाया गया है। कई बड़े फिल्‍मकारों की तरह फतिह अकीन मानते हैं कि अभिनय तो फुटपाथ पर बिखरा पड़ा है, एक फिल्‍मकार को चाहिए कि वो अपने हिसाब से उसे चुनकर एक तस्‍वीर में बदल दे। फिल्‍म की शैली को देखकर नई पीढ़ी के पसंदीदा वरिष्‍ठ फिल्‍मकार वांग कार वाई (हांगकांग) की याद आती है, खासतौर पर उनकी चर्चित फिल्‍म ‘शूंग किन एक्‍सप्रेस’ की। 

    0 comments:

    एक टिप्पणी भेजें

    आपके आने के लिए धन्यवाद
    लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

     
    Copyright (c) 2009-2012. नुक्कड़ All Rights Reserved | Managed by: Shah Nawaz