वैसे तो यह सब सरकारी नीतियों की इबारत भर है ,इसका यथार्थ से क्या लेना देना | पर यह कभी नहीं समझ आता कि हम जिसके लिए इन योजनाओं का सूत्रपात करते है उन्हें शिक्षित होने बनानेका प्रयास क्यों^ नहीं करते | शिक्षित होना तो दूर की बात है असल में तोहम उन्हें साक्षर भी नहीं बनाना चाहते | हमने गरीबो जैसी एक जाति बना दी है और अब हम उन्हें कुछ लाभ दिलाने ेजैसी कवायद कर रहे है | हमारा किसी भी समस्या के मूलभूत पहलुओ से कोई लेना-देना नहीं होता |हम सदा फुलक को सीचने में ही अपना सारा श्रम लगा रहे है| हम कभी भी यह नहीं चाहते कि वह अपने पैरों पर खड़े हो सके ,बिना बैशाखियो के चल सके |हमारी हर संभव कोशिश रहती है कि वह हमेशा हमारे सहारे ही चलते रह| उनमे यदि विवेक जैसी चीज पैदा हो गई तो हमारे लिए खतरे की घंटी बज जायेगी | वह हमारे ऊपर निर्भर होना छोड़ देंगे | हम हमेशा उनके खैर ख्वाह बने रहना चाहते है | हम उन्हें कमाना नहीं सिखाते वरन उन्हें अपने हाथ की कठपुतली बनाए रखने में अपना गौरब मानते है| कैसे तो बदले ये स्थिति?
यदि केवल शिक्षा के ही आंकड़े लें ,तो तस्वीर कुछ इस तरह की नजर आती है | सब बच्चों को प्राथमिक शिक्षा का अनिवार्य अधिकार मिल् सकें,इसलिए इस शिक्षा के साथ मिड डे मील को जोड़ दिया गया | सोच तो बहुत अच्छा था पर तस्वीर ही बदल गई | माता-पिता अपने बालको कों पढने के लिए तो नहीं पर राशन मिलने के नाम पर उस एक विशेष दिन अवश्य भेजने लगे | मिड डे मील के साथ अनेक अनियमितताए जुड गई और यह कुछ लोगों के लिए खाने -कमाने का साधन बन गया|| इन बच्चों के लिए पुस्तके और कापिया मुफ्त दी गई तो हश्र यह हुआ कि इन पुस्तकों की कालाबाजारी शुरू हो गई | पढ़ाना - लिखाना तो दूर रहा ,अध्यापको केलिए अध्यापन कार्य से बचाबके लिए अनेक अवसर हाथ आ गए |बी.एड. वालो के लिए बिशिष्ट बी.टी.सी की व्यवस्था की गई ,,कोशिश कीगई कि हम सबको रोजगार देसकें पर स्थितिया तो और बदतर हो गई| न पढने वाले तैयार है और पढाने वाले तो अपनी समस्याओं से इतने अधिक घिरेहुए हैं कि पहले वह अपने कार्य स्थल तक सुरक्षित पहुँच जाए तब पढाने का नंबर आये|
आखिर हम करे क्या कि सब कुछ ठीक हो जाए|मेरी समझ से कुछ उपाय किए जा सकते है-
१. बच्चों कों शिक्षा देने से पूर्व अभिभावकों की मानसिक तैयारी करे|उन्हें यह महसूस कराये कि बच्चों की पढाई -लिखाई उनके स्वयं के परिवार के लिए आवश्यक है न कि सरकारी आंकडो कों पूरा करने के लिए |
२. बच्चोंको परिवार के कमाऊ सदस्य के रूप में तैयार करे |
३. ऐसे बालको की शिक्षा केतौर तरीके और पाठ्यक्रम में बदलाब बहुत जरूरी है |हम सब धान बाईस पसेरी सेरी वाली नीति अपनाएंगे तो परिणाम बहुत सुखद तो नही होंगे|
४. यदि संभव हो सके तो उनके पढाई के घंटे इस तरह से रखे जाए जिससे यदि वे कही अन्य अर्थोपार्जन का कार्य कर रहे हो तो वह बाधित न हो |
५.सरकारी योजनाओं के व्यावहारिक पक्ष जरूर देखे जाए|
६.जो अध्यापक इस कार्य में लगे है ,उन्हें बाल मनोविज्ञान का ज्ञान होना बहुत आवश्यक है लेकिन यह ज्ञान केवल सैद्धांतिक न हो वह अध्यापक इन बच्चों की समस्याओं कों समझाने का माद्दा भी रखते हो|
अंतत किसी भी योजना के प्रारूप कभी बुरे नहीं हुए करते पर उन के कार्यान्वन में जो चूक हो जाती है ,उसके प्रति सतर्क रहना
७.
क्या सबला योजना हमें वाकई सबला बना पायेगी ?
Posted on by beena in
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बीना जी,
जवाब देंहटाएंअपने बहुत सही मुद्दा उठाया है, देश के भावी नागरिकों को शिक्षित करने के लिए पहले उनके माता पिता को इसके महत्व को समझ आना चाहिए नहीं तो वे इसको एक कमाई का साधन मान लेते हैंकि बच्चों को अगर छात्रवृत्ति मिलती है तो कुछ दिन उसको भेज देते हैं और स्कूल भी कुछ बच्चों को देकर बाकी खुद डकार जाते हैं. जहाँ भी नजर डालिए वहीं तो कमियां और अनियमितता दिखाई दे रही है. अगर आज एम एस सी और बी टेक , एम सी ए और बी एम एस विशिष्ट बी टी सी के लिए फार्म भर रहे हैं तो इसके पीछे सिर्फ एक नियमित आमदनी और सुरक्षित भविष्य का लालच हैं , वे छोटे बच्चों को पढ़ाने की लियाकत तक नहीं रखते हैं. बाल मनोविज्ञान की बात तो दूर , कैसे विशिष्ट बी टी सी वाले पढ़ा रहे हैं और कैसे नौकरी चला रहे हैं इसके कई उदाहरण मेरे भी सामने हैं.
इतना ही क्यों? बालबाड़ी या आंगनबाड़ी भी बच्चों के हित कम और उसमें काम करने वाली महिलाओं के लिए आय का एक बढ़िया साधन हैं. नाच्चों के लिए आने वाला सामान बाजार में बेच दिया जाता है, वेतन तो ईमानदारी का हुआ और ये ऊपर की आमदनी भी आचार संहिता में शामिल हो गयी क्योंकि उनके ऊपर वाले भी तो इससे हिस्सा लेने वाले होते हैं. ये बड़ी मछलियाँ छोटियों का चारा खाए जा रही हैं फिर इसका निदान क्या हो?
एक सही और सामाजिक मुद्दे कि तरफ ध्यान दिलाया है आपने ..जिस देश में शिक्षा व्यवस्था ही सही नहीं होगी ..वहां की तस्वीर के विषय में क्या सोचा जा सकता है ..आज शिक्षा का ढांचा ही बदल चूका है , सिर्फ नारों के सिवा कुछ नहीं ..जो योजनायें चलाई जा रही हैं वो गिनती के सिवा कुछ नहीं ....सार्थक पोस्ट
जवाब देंहटाएंEk saarthak post
जवाब देंहटाएंकाफी सटीक बात कही आपने ।
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