असत्य पर सत्य की विजय ... हर्षोल्लास और प्रकाश के पर्व दीपावली का
पुनरागमन हुआ है ...मौसम सुहाना हो चला है… दशहरे से प्रारम्भ हो कर
दीपावली तक गुलाबी ठण्ड का मौसम रूमानी हो जाता है …. सुबह की सिहलाती
ठंडी हवा में हरे हरे पत्तों से लदी टहनियाँ उमंग के गीत गाती हैं …
कनेर की फुनगियों पर घंटियाँ लटकने लगी हैं मानो धन धान्य की देवी
लक्ष्मी की पूजा को आतुर हैं …धान की कटाई का मौसम भी आ गया है ... धान
की कटाई प्रारंभ होते ही गावों में जैसे कोई उमंग अंगड़ाई लेने लगती है…
कस्बों में मेले भरने लगते हैं ... जिनमे पिपिहरी बजाते तेल काजल किये
हुए गवईं बच्चे... ठेले पर ताज़ी गुड़ की जलेबी खरीदती मेहरारुएँ और ..बड़े
वाले गोलचक्कर झूले पर चीखती खिलखिलाती अल्हड़ छोकरियां..... कुछ बड़े
मेलों का रंग थोड़ा अलग होता है ... नौटंकी थियेटर की टिकट खिड़कियों पर
फ़िल्मी गानों का कर्कश शोर…और अंदर स्टेज पर चल रहे थिरकते उत्तेजक
नृत्य... जत्थे के जत्थे अपनी तरफ आकर्षित करते हैं ... जीवन के तमाम
झंझावातों में फंसा मन जाने क्यों इस मौसम के साथ बचपन की उमंग की बराबरी
नहीं कर पाटा लेकिन बचपन के अनुभव कभी भूले भी नहीं जाते .. … बचपन की
यादें… कहाँ तक याद करें …
कुछ सालों पहले गावों में ठण्ड जल्दी पड़ने लगती थी(शायद आज भी) … दशहरे
तक गर्म कपड़े निकाल लिए जाते थे … गरम कपड़े के बक्से निकाल कर धूप में
रखे जाते तो बड़े बड़े बक्सों में (छोटे छोटे हम) घुस कर अपने आप को उसमे
बंद कर लेते और देर तक खेलते रहते … हर साल बहुत से कपड़े एक साल में ही
छोटे हो जाते थे जिसे या तो कोई छोटा अपने लिए छांट लेता या फिर दुबारा
सहेज कर रख दिए जाते. शेष अनावश्यक कपड़े किसी जरूरतमंद को बाँट दिए जाते.
साल भर अपनी खेती बाड़ी में जुते रहने वाले नीरस से दिखने वाले गंवई लोगों
में से जाने कहाँ से रामलीला के कलाकार पैदा होते थे… हारमोनियम की करुण
तान पर, भाई लखन के लिए जब राम विलाप करते … तो दर्शक दीर्घा में लोगों
की आँखें छलछला जातीं .. हलवाई की दूकान करने वाले लखन नाई जब इन्द्रजीत
की भूमिका में उतरते तो रावण की लंका सजीव हो उठती… रामलीला की चौपाइयाँ
और हारमोनियम की सुर तरंगें ढोलक की थाप के साथ मिल कर एक अद्भुद सम्मोहन
पैदा करतीं…इस मुफ्त के मनोरंजन में तथाकथित संभ्रांत जन कम ही रहते …
लेकिन मजदूरों के बच्चे और औरतें एक फतुही लपेटे ठण्ड में गुरगुराते हुए
रात भर राम लीला देखने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे …. दशहरा से दीपावली तक मौसम धीरे धीरे ठण्ड और धुंध के आगोश में समाया करता
… सुबह घास की नोकों पर और टहनियों पर लगे मकड़ी जाले पर ओस की बूँदें
गुच्छा दर गुच्छा ऐसे लगती हैं जैसे किसी ने मोतियों की लड़ी पिरो रखी
हो…खेत की मेड़ों पर सुबह सुबह पैर ओस से तर हो जाते .... सुबह जल्दी उठ
कर खेतों की तरफ टहलने जाना, अलाव के सामने बैठ कर इधर उधर की चर्चा
करना, और ढेर सारी फुरसत .... धान की कटान से खेत और खलिहान में धान के बोझ के बोझ फैले रहते… सुबह
मुंहअँधेरे से ही मजदूर धान सटकने(निकालने) लग जाते…बड़ी देर तक रजाई में
पड़े पड़े सटाक... सटाक... की धुन सुनते रहते ... रास (राशि) तैयार होने पर
धान को बांटते समय मुझे टोकरीयों की गिनती करने के लिए बुलाया जाता… हो
राम…ये एक… ये दो… ये तीन… हर बारह टोकरी पर एक टोकरी धान मजदूरी दी जाती
थी… और सब से पहली टोकरी पुरोहित/ब्राह्मण को दान में देने के लिए अलग से
निकाली जाती. पूरा ढेर बंट जाने पर जमीन पर एक मोटी परत अनाज मजदूरों के
लिए अलग से छोड़ी जाती थी…दस पन्द्रह साल पहले तक नाई, कुम्हार, धोबी और
कहार आदि पैसे नहीं लेते थे … फसल होने पर इनके लिए अनाज की ही व्यवस्था
थी … इन्हीं के बदले पूरे साल अपनी सेवाएं देते थे… खलिहान की रौनक पूरे
दिन बनी रहती … ये सिलसिला दीपावली के बाद भी चलता रहता… दीपावली आने से पहले पूरे घर का कायाकल्प किया जाता… हफ़्तों सफाई, पुताई
और कच्ची फर्शों पर लिपाई से घर दमकने लगता… गमकने लगता … दीपावली के दिन
सुबह कुम्हार बड़े से टोकरे में ढेर सारे दिए, हमारे लिए मिट्टी की
घंटियाँ और छोटी छोटी मिट्टी की चक्कियाँ और घूरे पर जलाने के लिए कच्चे
दिए भी लाते…(वो कहते हैं न… कि कभी न कभी घूरे के भी दिन लौटते हैं) शाम
होते होते दीयों को पानी में भिगा दिया जाता जिससे दिए तेल नहीं सोखते…
सरसों और अलसी के ढेर सारे तेल से सारे दिए भरे जाते… बातियाँ लगाईं
जातीं और देर तक सब मिल कर छत पर दिए सजाते…नए कपड़े पहनते.. खील बताशे और
चीनी के खिलौनों के साथ मिठाई बाँटी जाती …. रात में देर तक पटाखे चलाते…
थोड़ी देर पढ़ाई करते( घर वाले कहते…. आज पढ़ोगे तो पूरे साल पढ़ाई अच्छी
होगी) कच्चे दिए पर बाती में अजवायन भर कर उतारे गए काजल सबको लगाए जाते
फिर सब सो जाते… सुना था कि दीपावली के दिन जिसका जो भी काम होता है उसे
जगाता है….मन में हर बार आता था ... क्या चोर, भ्रष्टाचारी और अनैतिक
लोगों की मंशा भी फलित होती है दीपावलि को ? समय के साथ साथ बहुत कुछ बदला है ... बदल रहा है ... दीयों की जगह चाइनीज़
बिजली की लड़ियों ने ले ली है ... शुभकामना सन्देश एस एम् एस से कितनी
तीव्रता से संप्रेषित हो रहे हैं.... और घर के मावे की मिठाइयों की जगह
नकली मावे और नकली दूध की मिठाइयों ने ले ली है ,... आस्था, परंपरा और
रिश्तों में बाजारवाद कहीं न कहीं चुपके से घर करता जा रहा है ....
परिवर्तन समय का नियम है ... परिवर्तन होते रेहेंगे... ईश्वर करे स्नेह,
प्रेम, संवेदनाओं और रिश्तों की ज़रूरत बनी बनी रहे ... किसी बहाने ही सही
... प्रकाश पर्व दीपावलि की शुभकामनाएं मेरे द्वार पर जलते हुए दिए
तू बरसों बरस जिए ...
आंधियां सहना
मगर द्वार पर ही रहना
क्योकि यही है
मेरी अभिलाषा
मेरी आकांक्षा
मेरी चाह कि सदा आलोकित करना
द्वार से गुज़रती हुई राह
क्योकि जब कोई राही
अपनी राह पायेगा
प्रकाश से दमकता कोई चेहरा
मुस्कुराएगा
तो उजाला मेरी बखार तक न सही
अंतर्मन तक जरूर आएगा
अंतर्मन तक जरूर आएगा .......आपका पद्म
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