हिन्दी ब्लॉग जगत एक लेखक के आईने में(सन्दर्भ छिनाल प्रकरण का है, यह खरे जी के लेख का एक हिस्सा है )
इस प्रकरण में कुछ ब्लॉगों ने सक्रिय, जोशीली, पक्षधर भूमिका निबाही है लेकिन हिंदी का ब्लॉग-विश्व भी अत्यंत संदिग्ध प्रतिक्रियावादियों, कुंठित ‘लेखकों’, ‘पत्रकारों’, ‘पाठकों’, खुदाईखिदमतगारों, प्रगतिविरोधी तत्त्वों और देश के चतुर्दिक पतन से खलसुख प्राप्त करने वालों से बजबजा रहा है। निस्संदेह कुछ अच्छे, सार्थक, विचारों के उत्तेजक टकराव वाले ब्लॉग भी हैं। लेकिन शेष अधिकांश हिंदी-समाज की गिरावट के प्रतिबिंब ही हैं। एक ही व्यक्ति अनेक नामों या अनामता से स्वयं अपने और दूसरों के ब्लॉगों पर ऑरवेलीय ‘डबलथिंक’ और ‘डबलस्पीक’ का लॅकैरीय ‘मोल’ या ‘डबल एजेंट’ बना हुआ है। कुछ महिलाओं के जाली नामों से लिख रहे हैं। कुल मिलाकर राय-कालिया जैसी उठाईगीर, बाजारू मानसिकता ने ब्लॉग जैसे सशक्त, कारगर माध्यम को कुछ ही समय में बर्बादी के कगार पर ला दिया है। वहां ‘छिनाल’ से भी ज्यादा अश्लीलता और चरित्र-हनन ‘माउस’ की एक ‘क्लिक’ पर कभी-भी, किसी के भी बारे में अवतरित हो सकते हैं। विडंबना यह भी है कि कंप्यूटर दुनिया हिंदी में आज भी बहुत सीमित है। लेकिन ठीक राय-कालिया और उनकी बिरादरी की तरह कई ब्लॉग-टिटहरियां यह समझ रहीं कि हिंदी भाषा, साहित्य और पत्रकारिता का आकाश जैसा भी है उन्हीं की डेढ़ टांग पर टिका हुआ है।
एक अजाचारी, समलैंगिक सुखभ्रांति चतुर्दिक व्याप्त है जिसमें आत्म-रति, अपना और अपने निरीह परिवार का विज्ञापन, गिरोहधर्मा अहोरूपम् अहोध्वनि, रूमानी भावनिकता, भेड़ियाधसान, पर्वतमूषकत्व आदि संचारी भाव हैं। कई ब्लॉग राय-कालिया मामले पर एक मौसेरे भाईचारे में चुप्पी साधे हुए हैं, क्योंकि उनके संचालकों को वृहत्तर अकादमिक और ज्ञानोदय-ज्ञानपीठ परिवार से अनेक आशाएं हैं। हिंदी में और अखिल भारतीय तंत्र में एक भयावह तत्त्व और है। यदि आप किसी भी क्षेत्र में मनसा-वाचा-कर्मणा वास्तविक नैतिक और विचारधारागत मतभेद रखते हैं तो आप न सिर्फ उस हलके में अवांछित (पर्सोना नॉन-ग्राटा) हो जाते हैं बल्कि आपका एक मौन-अलिखित बहिष्कार कुष्ठ या एड्सग्रस्त या अछूत दलित की तरह शेष हर क्षेत्र में होता जाता है। इसका आतंक अधिकांश भारतीयों को कायर, मौकाशनास, धूर्त और दोमुंहा बना देता है। दुर्भाग्यवश, आज के कठिन-सरल जीवन संघर्ष को देखते हुए अधिकांश युवा उसी की पनाह ले रहे हैं। इसलिए भी कि उनके अधिकांश वरिष्ठों ने उनके सामने कोई बेहतर उदाहरण नहीं रखा।
दैनिक जनसत्ता दिनांक 11 अगस्त 2010 में परीक्षा की घड़ी में लेखक शीर्षक से प्रकाशित लेख की दूसरी और अंतिम कड़ी का एक अंश
ye vahi vishnu khare hai, jo arjun singh par kavitaa likhate hai. sahity me ab isi kismke log nayak banane ki kooshish me hai,, lekin hai ve khalanaayak hi. inke chintan par keval hansaa ja sakataa hai. inki moorkhataon par rona fizool hai.
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