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14-15 फरवरी1989 को उच्चतम न्यायालय में हुए एक समझौते के अनुसार 1.73 लाख गैस पीड़ितों को अस्थाई, 80 को स्थाई विकृति तथा 3 हज़ार लोगों की मौत के मामले में 750 करोड़ रुपए का मुआवजा तय किया गया था.वैसे मध्यप्रदेश की तत्कालीन सरकार भी गैस पीड़ित वार्डों को चुनने में गफलत में रही, कई जगह ऐसा हुआ कि सड़क के एक ओर का वार्ड गैस पीड़ित है तो सामने की लाइन को अप्रभावित माना गया. बीसियों जोड़ी बूढी आँखों ने अदालतों की चौखटों पर तैनात सिपाहियों की घुड़कियाँ, बाबुओं की लताड और बाद में केवल अगली तारीख को भोगा है.
भोपाल की अदालत द्वारा इस मामले में दिये गए फैसले के कई वर्ष पहले ही यह तय हो गया था कि, आरोपियों को ज़्यादा सज़ा नहीं मिलेगी. दरअसल 13 सितम्बर1996 को सुप्रीमकोर्ट ने इस मामले के आरोपी केशव महिन्द्रा तथा अन्य की याचिका पर यह फैसला दिया था कि, इन अभियुक्तों पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304(भाग-2) की जगह 304(ए) के तहत मुकदमा चलाया जाए, 304(भाग-2) में जहां 10 साल की सज़ा का प्रावधान है वहीँ 304(ए) में अदालत केवल 2 साल की ही सज़ा दे सकती है.इधर इस मामले के मुख्य आरोपी बनाए गए वारेन एंडरसन को भारत सरकार लाने का कोई प्रयास नहीं कर पायी है इसके पीछे कूटनीतिक कारण हैं. एंडरसन का अमरीका के फ्लोरिडा में 111, कैटलिना सर्किट वेरो बीच का पता है मगर जब बात अमरीका की आती है तो हिन्दुस्तानी सरकार के हाथ-पैर फूल जाते हैं. यदि यही न्याय है तो इससे अराजकता बढ़ सकती है, महज़ एक रुपए के जुर्माने की सज़ा पर तो हत्याओं का सिलसिला बढ़ जाएगा.
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