इंसाफ की रस्मअदायगी

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  • कौन सी त्रासदी बडी, गैस हादसा या फैसला!

    बडे गुनाह की बारीक सजा

    पच्चीस साल बाद भी नहीं मिल सका न्याय

    बेशर्म डाव केमिकल फिर परास रही है पैर भारत में

    (लिमटी खरे)

    सन 1984 में 2 और 3 दिसंबर की दर्मयानी रात में देश के हृदय प्रदेश की राजधानी भोपाल में हुआ गैस हादसा हिन्दुस्तान ही नहीं वरन दुनिया का सबसे बडा औद्योगिक हादसा था। यूनियन कार्बाईड के डॉव केमिकल के कारखाने से निकली जानलेवा गैस ने पांच लाख से अधिक लोगों को अपनी जद में लिया और बीस हजार से ज्यादा काल कलवित हो गए थे। आश्चर्य इस बात का है कि इसके दोषी आज भी सलाखों के बाहर हैं। हिन्दुस्तान में पीडित न्याय की गुहार लगाते हुए बच्चे से जवान, जवान से प्रोढ, प्रोढ से बुजुर्ग और न जाने कितने बुजुर्ग तो दुनिया छोड चुके हैं। 26 साल का समय कम नहीं होता है। 26 साल में बच्चा समझदार होकर जवानी की दहलीज पर काफी आगे निकल चुका होता है। दुनिया की इतनी बडी औद्योगिक त्रासदी जो कि मानव निर्मित ही थी, के दोषियों की पहचान होने के बाद भी इसमें न्याय के लिए अगर भारत जैसे देश में इतना समय लग जाए तो यह निश्चित तौर पर हमें शर्मसार करने के लिए पर्याप्त ही माना जा सकता है।

    इस त्रासदी के उपरांत आज भी प्रभावित इलाके में भूजल बुरी तरह प्रदूषित है, इससे प्रभावित लोगों की आने वाली पीढियां बिना किसी जुर्म की सजा शारीरिक और मानसिक तौर पर भुगत रहीं हैं। विडम्बना तो यह है कि हजारों को असमय ही मौत की नींद सुलाने वाले दोषियों को 25 साल बाद महज दो दो साल की सजा मिली और तो और उन्हें जमानत भी तत्काल ही मिल गई। हमारे विचार से तो इस मुकदमे की सजा इतनी होनी चाहिए थी, कि यह दुनिया भर में इस तरह के मामलों के लिए एक नजीर पेश करती, वस्तुतः एसा हुआ नहीं। देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोईली खुद भी लाचार होकर यह स्वीकार कर रहे हैं कि इस मामले में न्याय नहीं मिल सका है। फैसले में हुई देरी को वे दुर्भाग्यपूर्ण करार दे रहे हैं। दरअसल मोईली से ही यह प्रतिप्रश्न किए जाने की आवश्यक्ता है कि उन्होंने या उनके पहले रहे कानून मंत्रियों ने इस मामले में पीडितों को न्याय दिलवाने में क्या भूमिका निभाई है।

    विश्व के इस सबसे बडे औद्योगिक हादसे का फैसला इस तरह का आया मानो किसी आम सडक या रेल दुर्घटना का फैसला सुनाया जा रहा हो। इस मामले में प्रमुख दोषी यूनियन कार्बाईड के तत्कालीन सर्वेसर्वा वारेन एंडरसन के बारे में एक शब्द भी न लिखा जाना निश्चित तौर पर आश्चर्यजनक ही माना जाएगा। यह सब तब हुआ जब इस घटना के घटने के महज तीन दिन बाद ही मामले को सीबीआई के हवाले कर दिया गया हो। सीबीआई पर लोगों का विश्वास आज भी कायम है। इस जांच एजेंसी के बारे में लोगों का मानना है कि यह भले ही सरकार के दबाव में काम करे पर इसमें पारदर्शिता कुछ हद तक तो होती है। इस फैसले के बाद से लोगों का भरोसा सीबीआई से उठना स्वाभाविक ही है। इस पूरे मामले ने भारत के ''तंत्र'' को ही बेनकाब कर दिया है। क्या कार्यपलिका, क्या न्यायपालिक और क्या विधायिका। हालात देखकर यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि प्रजातंत्र के ये तीनों स्तंभ सिर्फ और सिर्फ बलशाली, बाहुबली, धनबली विशेष तबके की ''लौंडी'' बनकर रह गए हैं।

    सीबीआई ने तीन साल तक लंबी छानबीन की और आरोप पत्र दायर किया था। इसके बाद आरोपियों ने उच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटाए थे। उच्च न्यायालय ने इनकी अपील को खारिज कर दिया था। इसके बाद आरोपी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में गए और वहां से उन्होंने आरोप पत्र को अपने मुताबिक कमजोर करवाने में सफलता हासिल की। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या सीबीआई इतनी कमजोर हो गई थी, कि उसने इस मामले की गंभीरता को न्यायालय के सामने नहीं रखा, या रखा भी तो पूरे मन से नहीं रख पाई। कारण चाहे जो भी रहे हों पर पीडितों के हाथ तो कुछ नहीं लगा।

    आखिर क्या वजह थी कि एंडरसन को गिरफ्तार करने के बाद उसे गेस्ट हाउस में रखा गया। इसके बाद जब उसे जमानत मिली तो उसे विशेष विमान से भारत से भागने दिया गया। जब उसे 01 फरवरी 1992 को भगोडा घोषित कर दिया गया था, तब उसके प्रत्यापर्ण के लिए भारत सरकार द्वारा गंभीरता से प्रयास क्यों नहीं किए गए! 2004 में अमेरिका ने उसके प्रत्यापर्ण की अपील ठुकरा दी गई तो भारत सरकार हाथ पर हाथ रखकर बैठ गई। क्या दुनिया के चौधरी अमेरिका का इतना खौफ है कि भारत में हुए इस भयानक दिल दहला देने वाले हादसे के बाद भी सरकार उसे सजा दिलवाने भारत न ला सकी। इतना ही नहीं जब उसने अपना केस खुद नहीं लडा तब उसे इतने कम भोगमान पर छोड दिया गया। सरकार वैसे भी पहले ही लगभग दस गुना कम मुआवजा स्वीकार कर अपनी मंशा को स्पष्ट कर चुकी है। क्या कारण थे कि भारत सरकार ने इस कंपनी को चुपचाप बिक जाने दिया। इस दर्मयान भारत गणराज्य के वजीरे आजम और प्रजीडेंट न जाने कितनी मर्तबा अमेरिका की यात्रा पर गए होंगे पर किसी ने भी अमेरिका की सरकार के सामने इस मामले को उठाने की हिमाकत नहीं की। अगर भारत के नीति निर्धारक चाहते तो अमेरिका की सरकार को इस बात के लिए मजबूर कर सकते थे कि वह यूनियन कार्बाईड से यह बात पूछे कि यह हादसा हुआ कैसे!

    भोपाल गैस त्रासदी और लंबे समय बाद आया उसका यह फैसला निश्चित तौर पर खतरे की घंटी से कम नहीं है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों विशेषकर अमेरिका के जूते साफ करने को आमदा लोग अगर देश में विदेशी निर्भरता वाले परमाणु उर्जा संयंत्र लगाने की अनुमति देते हैं, और ईश्वर न करे कि अगर कोई हादसा हो जाए तो भारत सरकार और उसकी जांच एजेंसी किस भूमिका में होगी इस बात का परिचाक है यह पूरा प्रकरण। स्थिति परिस्थिति को देखते हुए हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि सरकार और उसकी एजेंसियों की नजर में भारत की जनता की जान की कीमत कीडे मकोडों जैसी ही है। अगर यह हादसा अमेरिका में घटा होता तो डाव केमिकल और यूनियन कार्बाईड का नामोनिशान मिटने के साथ ही साथ अनेक बीमा कंपनियों के दिवाले निकल चुके होते। यही हादसा अगर दिल्ली में हुआ होता तो इसकी सूरत कुछ और होती। सवाल यह उठता है कि जब दिल्ली में उपहार सिनेमा में हुए हादसे के पीडितों को 15 से बीस लाख रूपए का मुआवजा मिल सकता है तो भोपाल गैस कांड के पीडितों को महज 25 - 25 हजार रूपए में क्यों टरका दिया गया।

    55 अरब डालर की हो चुकी है डाव केमिकल। भोपाल जैसे हृदय विदारक हादसे को अंजाम देने के बाद भी यह कंपनी भारत का मोह नहीं छोड पा रही है। भारत सरकार है कि इस कंपनी को देश में दूसरे हादसे के लिए उपजाउ माहौल भी मुहैया करवा रही है। इस कंपनी ने वियतनाम युद्ध में एक जहरीली गैस बनाकर कहर बरपाया था। अब इस कंपनी के निशाने पर तमिलनाडू, महाराष्ट्र और गुजरात सूबे हैं। इस कंपनी के प्रत्यक्ष और परोक्ष तौर पर अहसानों से दबे ही हैं केंद्र और सूबों के मंत्री, तभी तो ये डाव केमिकल की तारीफ में कशीदे गढने से नहीं चूकते। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वयं ही भोपाल में कंपनी के बंद पडे संयंत्र में जहरीले कचरे को छूकर कंपनी को सीधे तौर पर मदद करने का कुत्सित प्रयास किया था। इस कंपनी का महाराष्ट्र में मुंबई गोवा राजमार्ग पर एक संयंत्र आरंभ हो चुका है, जिसमें कीटनाशक बनता है। इसके अलावा गुजरात के दहेज में अगले साल यही कंपनी रसायनों का उत्पादन आरंभ कर देगी।

    बहरहाल इतना वक्त बीत जाने के बाद भी अब हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं है, जो भी होगा हम पाएंगे ही। इसलिए भारत सरकार को अब चेतना चाहिए। उपरी अदालतों में जाकर इसकी कमियां खोजकर नए सिरे से पहल करना आवश्यक है। इस मामले में सरकार को आगे आना होगा। इस मामले में सरकरों की मंशा आईने की तरह साफ है, जनता जनार्दन की कीमत उनकी नजरों में चुनावों के दौरान वोट से ज्यादा कतई नहीं है। स्वयं सेवी संगठनों द्वारा लंबे समय से लडाई लडी जा रही है, कुछ संगठनों पर निहित स्वार्थ सिद्धि के आरोप भी मढे जाते रहे हैं। मीडिया पहली बार खुलकर इस मामले में सामने आया है, जिसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करना होगा। सालों बाद पहली बार लगा कि प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ भी जीवित है। अगर माननीय उपरी न्यायालय स्वयं ही संज्ञान लेकर समय सीमा में इस मामले को निपटाने का प्रयास करे तो निश्चित तौर पर यह एक बेहतरीन नजीर बनकर सामने आ सकता है।

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    2 टिप्‍पणियां:

    1. अगर माननीय उपरी न्यायालय स्वयं ही संज्ञान लेकर समय सीमा में इस मामले को निपटाने का प्रयास करे तो निश्चित तौर पर यह एक बेहतरीन नजीर बनकर सामने आ सकता है।
      ......chintansheel vyaktvya... saarthak lekh..
      ...Umeed kee jani chahiye kee ek din janata jaagegi jarur...
      Janta janardhan ke aawaj uthane ke liye aabhar..

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