क्या इसी को इंसाफ कहते हैं?

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  • सुनील वाणी
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  • -सुनील
    आत्मा को झकझोर देने वाली और हृदय विदारक घटना भोपाल गैस कांड, न्याय की आस में आंखे तो पहले ही पथरा चुकी थी, रही सही कसर फैसला आने के बाद ने पूरी कर दी। हजारों लोगों के जुबान पर शायद यही बात रही होगी जब वर्षों बाद भोपाल गैस कांड का फैसला(जिसका शायद अब उन पीड़ित परिवारों के लिए कोई मतलब नहीं रहा) आया। जिस लापरवाही ने हजारों हजार जिंदगियो को लील लिया और जिसका खामियाजा आज भी वहां के लोग भुगत रहे हैं, उनके लिए यह फैसला उनके जखमों को फिर से हरा कर देने वाला है। हमारी न्याय प्रणाली की यह विवशषता ही है कि न्याय की आस में पीड़ित परिवार को वर्षों पल-पल जलना पीड़ित है, जो उसके दर्द को और दोगुना कर देता है। उस पर भी जब न्याय इस तरह का हो तो मृत आत्मा और पीड़ित परिवार के साथ इसे मजाक ही कहा जा सकता है। क्या उस त्रासदी को भुलाया जा सकता है, जब दफनाने के लिए जमीनें कम पड़ गई थीं, एक ही कब्र में कई लाशों को दफनाया जा रहा था। ट्रक भर-भर कर लाशों को नदियों में फेंका जा रहा था, जैसे कूडा उडेल रहे हो। स्थिति ऐसी कि मरने वालों के लाशों पर कोई रोने वाला नहीं बचा था, और जो थे उनकी आंखों के आंसू तक खत्म हो चुके थे। लाशों की नगरी बन चुकी शहर जिसमें बडे-बुढे, बच्चे-महिलाएं यहां तक की जानवर भी तडप-तडप कर मौत की आगोश में समा रहे थे। ऐसे में हजारों मौतों के लिए सिर्फ दो साल की सजा क्या न्यायोचित है? उस पर भी ऐसा कि सजा के तुरंत बाद दोषियों को बेल मिल जाए।
    मैं हमारे देश के न्यायपालिका व्यवस्था पर अंगुली नहीं उठा रहा। मैं इसका तहे दिल से सम्मान करता हूं। लेकिन फिर भी हाल के कुछ दिनों में ऐसे फैसले आए हैं जिनके लिए पीड़ित परिवार को वर्षों इंतजार करना पडा है। ऐसे में मन में बार-बार यह प्रश्न कौंधता है कि क्या कुछ खास घटनाओं को विशेष श्रेणी में रखकर उसका जल्द से जल्द निपटारा नहीं किया जा सकता, जिससे पीड़ित परिवारों के लिए न्याय का मान बना रहे और न्यायपालिका की गरिमा भी बरकरार रहे। आप क्या सोचते हैं?

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