बड़ी दर्दनाक बात है. मन दहल जाता है सुनकर. मुल्क में तमाम समस्याएं है. गरीबी की समस्या, महंगाई की समस्या, सरकार बनाने की समस्या और सरकार बन गयी तो उसे चलाने की समस्या. समस्याओं का अम्बार है. लगता है जैसे हम सब किसी समस्या महल में बैठे हैं या फिर हमारा मुल्क ही एक बड़ी समस्या है. सदियों से चली आ रही इन पारंपरिक समस्याओं के अलावा आजकल कुछ नूतन किस्म की समस्याएं भी सामने आ रहीं हैं.
लोग धडाधड ब्लॉग बना रहे हैं. अब ब्लॉग तो बन गया, लिखें क्या. लिखने की ज्वलंत समस्या है. इस समस्या पर कुछ मित्र विचार करने में जुटे हैं. वे क्या लिखें पर ही इतना लिख डालते हैं कि पढने की समस्या पैदा हो जाती है. पढने की आदत तो वैसे ही हमने बिगाड़ ली है. सोचते हैं कि बिना पढ़े काम चल जाय तो पढने की जहमत कौन मोल ले. नहीं पढने से भी कई बार समस्या पैदा हो जाती है. हमारे रूप चन्द्र शास्त्री जी ने अविनाशजी के नुक्कड़ पर नजर साहब के निधन की खबर पढ़ी और इतने दुखी हुए कि आनन्-फानन में खबर लिखने वाले को ही श्रद्धांजलि दे डाली. राजेश उत्साही मौके पर नहीं पहुचते तो शाहिद नदीम साहब को फिर से होश में लाना मुश्किल हो जाता.हाँ तो मैं लिखने की समस्या पर बात कर रहा था. अभी जनाब शाहनवाज सिद्दीकी ने इस पर गंभीर मंथन किया. उनके मंथन को हरिभूमि ने छापा. छापने के पहले किसी संपादक ने जरूर पढ़ा होगा. पता नहीं उन्होंने उसे नींद में पढ़ा या बिजली चली जाने के बाद जल्दी-जल्दी निपटा दिया. जो भी हो लेकिन जैसे छापा उससे लगता है कि वे भी न पढने की समस्या से पीड़ित होंगे. अगर पढ़ते तो शाहनवाज को इतना तो कहते कि भाई इसे मैंने रख लिया है, जो लिखा वो तो ले आओ?
असल में संपादक लोग भी आजकल केवल लिखते हैं, पढ़ते नहीं. लिखने से फुरसत मिले तब तो पढ़ें. उनका काम तो लिखना है, पढने में व्यर्थ समय क्यों गंवाएं. अगर वे पढ़ते होते तो अख़बारों में अंट-शंट कैसे छपता और अंट-शंट न छपता तो वे पिटते नहीं और पिटते नहीं तो उन्हें नेतागीरी का मौका कैसे मिलता . आखिर पत्रकारों को भी तो कुछ नेता चाहिए. देश कि अमूल्य निधि तो नेता ही हैं जो बिना पटरी और डिब्बे के अपनी रेल चला रहे हैं.
मैं बहक रहा हूँ. क्या करूँ, जबसे पलक जी के पुलकित हूँ मैं पर पहुंचा हूँ, तब से ऐसे-वैसे बहक रहा हूँ. पुल्लिंग और स्त्रीलिंग का भेद नहीं कर पा रहा हूँ. वैसे वे जो भी हों उनका लिखना बड़ा मरदाना है. बड़े-बड़े वहां घुटने टेक रहे हैं. फिजूल की घनचक्कर रस से ओत-प्रोत रचनाओ पर भी टिप्पड़ियों की बौछार लगी हुई है. उनकी रचनाएँ पढ़कर मैं पगला गया हूँ. कल दफ्तर की छुट्टी थी फिर भी मैं वहां पहुँच गया. घंटी बजाता रहा. किसी चपरासी के न आने पर नाराज हो गया. बाहर निकलने के लिए लिफ्ट में बैठा और उपरी तले पर जा पहुंचा. घर आया तो बहुत प्यास लगी थी, मैडम ने पानी के जग में कड़वा तेल रखा था, गटागट पी गया. फिर क्या हुआ, न पूछिए पर बड़ी हिम्मत करके लिखने बैठा हूँ. मेरी भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं मगर शाहनवाज की तरह आखिर तक चकमा नहीं दूंगा.
सोचता हूँ आप की इस समस्या का हल कर ही डालूं कि क्या लिखें. मेरी बात मानिये तो अगर कुछ नहीं लिखने को हो तो टिप्पड़ियां लिखिए. उसके फायदे हैं. आप जिसके ब्लाग पर टिप्पडी करेंगे, वह शरमाते-शरमाते आप की गली में भी आएगा ही. और आएगा तो कुछ न कुछ तो दे ही जायेगा. मुझसे भी समझदार लोग हैं. वे पहले से ही यह काम कर रहे हैं. आप चाहें तो एक सुंदर टिप्पडी किसी बड़े टिप्पडीखोर लिक्खाड़ से बनवा लें और उसे ही सब जगह पेस्ट करते चलें. आचार्यजी, ऐसा कर रहे हैं. चाहे आप ने कोई कविता लिखी हो, या राजनीति पर कोई लेख या फिर आतंकवाद पर कोई विचारोत्तेजक बात, वे आयेंगे और लिख जायेंगे--क्रोध पर विजय स्वाभाविक व्यवहार से ही संभव है, जो साधना से कम नहीं है. आप प्रेम की बात भी लिखिए और अपना अटल इरादा जताइए कि आप प्रेम के रास्ते से डिगने वाले नहीं हैं तो भी वे आप को क्रोध न करने की सलाह दे जायेंगे. है न ये असली बात-बेबात.
ऐसी ही एक टिप्पडी के लोमहर्षक लोभ में मैं एक दिन फँस गया. पलक जी लिख गयीं/ गए थे कि आज रात पढ़िए पता नहीं क्या याद नहीं. रात की बात थी सो मैं सकुचाते- सहमते चोरी-चुपके पहुँच ही गया. पर भाई साहब क्या बताऊँ, रात तो ख़राब हुई ही, एक टिप्पडी भी गंवानी पड़ी. गंवानी इसलिए पड़ी कि मैंने लिखी तो पर उन्हें क़ुबूल नहीं हुई. खैर बहुत रात हो गयी है, बिजली आ-जा रही है, मैं कोई चांस नहीं लेना चाहता. कहीं मेरी इस रचना का कबाड़ा न हो जाय, इससे पहले इसे सहेजता हूँ और चलता हूँ. ब्लागबाजी जिंदाबाद.
भाँति-भाँति प्रकार के ब्लॉगर्स हैं और वैसे ही लेखनी में विविधता है..बढ़िया आलेख..हम भी कह रहे है ब्लॉगिंग जिंदाबाद..
जवाब देंहटाएंये लो जी बिना पढे मेरी भी एक टिप्पणी
जवाब देंहटाएंप्रणाम
अविनाश जी नमस्कार ! कल आपसे मैंने नुक्कड़ में लेखन के माध्यम से योगदान करने की इच्छा जताई थी और आज आपका यह आलेख... लगता है मुझ पर ही व्यंग्य है ... वैसे आपने ठीक ही कहा है... लोग टिप्पणी पाने के लिया क्या क्या जुगत नहीं करते... सार्थक आलेख लेखक और पाठक के लिए
जवाब देंहटाएंसुभाष भाई आपकी यह बड़ी सी टिप्पणी पढ़कर सचमुच टिपयाने का मन करने लगा। आपने सही सही कह दिया सब कुछ । शुक्रिया।
जवाब देंहटाएंपर हम सब ब्लागर भी आखिर क्या करें। टिप्पणियां कहीं तो जो है कि हर पोस्ट पर शतक बनाती हैं। और कहीं जो है दहाई का अंक तो क्या पांच के पहले ही आउट हो जाती है। अगर टिप्पणियों के लिए उपाय नहीं करेंगे तो जीएंगे कैसे।
माफ करें कल शाम को मैंने भी गुल्लक पर ऐसी एक पोस्ट लगाई है जिसका अर्थ निकलता है कि हम टिप्पणियों के लिए कटोरा लेकर घूम रहे हैं। आप भी एक टिप्पणी करेंगे तो आभार मानूंगा। पर जैसा कि मैंने कहा हम क्या करें। हां मेरी पोस्ट प्रायोजित नहीं है।
आप अन्यथा न लें। अगर हम टिप्पणियों की ही बात करें तो नज़र साहब पर चार ब्लाग बात-बेबात,नुक्कड़,गुल्लक और मीडिया मंच पर पोस्ट शाया हुई। उनके लिए कुल मिलाकर दस लोगों के आंसू भी नहीं गिरे। आखिरकार हम कहां जा रहे हैं।
सुभाष भाई माफ करें, आप यूं रातों को गलियों में भटकना बंद करिए। वरना भाभी जी को खबर तो हम कर ही देंगे। और अब यह भी देखिए कि आपके इस लेख में जिस बात का जिक्र है उसका उदाहरण यहीं मौजूद है। यह लेख आपने लिखा है पर अरूण सी राय जी ने इसे अविनाशजी को समर्पित कर दिया है। सुभाष भाई मामला क्या है आखिरकार आपके नाम में कुछ समस्या है क्या। और यह बात इस बार भी मेरी ही नजर में आई। लगता है नजर डाक्टर से चेक करवानी पड़ेगी।
Are bhai Arun c royji, please see n. Meri galati ka theekara Avinashji ke sir kyon phod rahe hain. lagta hai aap kee bhi padhne ki aadat nahin hai. lekh maine likha hai, isse aap ke Avinashji se lekhan saude par koi asar nahi padane vala. (Avinashji se kshama yachna sahit)
जवाब देंहटाएंलीजिए सुभाष भाई वह गली ही गायब हो गई जहां आप कल रात भटक गए थे। अब आप चैन से सो सकते हैं।
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