मीठा है खाना, आज पहली तारीख है......

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  • उपदेश सक्सेना
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  • (उपदेश सक्सेना)
    टीवी चैनलों पर हर महीने की आखिर में एक विज्ञापन बड़ी धूम मचाता है,
    दिन है सुहाना, आज पहली तारीख है,
    खुश है ज़माना, आज पहली तारीख है,
    करो न बहाना, आज पहली तारीख है,
    मीठा है खाना, आज पहली तारीख है.....
    यह विज्ञापन किसके लिए है यह समझने के लिए मैंने समाज के कई तबकों के बारे में विचार किया. मुझे कोई भी ऐसा व्यक्ति नज़र नहीं आया जिसके लिए आज के इस दौर में पुराने गीत की इस पैरोडी को विज्ञापन के रूप में प्रस्तुत किया जाए.आज के समय का सबसे बड़ा काम है राजनीति. राजनेता के लिए वैसे ही महीने का हर दिन सुहाना होता है, ज़माना खुश हो न हो उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता, बहाने बनाने में भी राजनेताओं की कोई सानी नहीं हो सकती. अब बात मीठा खाने की, तो सत्तापक्ष के नेता इसलिए मीठे से परहेज़ करते हैं क्योंकि उनके एक मंत्री ने कहा है कि ज़्यादा मीठा खाने से डायबिटीज़ होने का ख़तरा बढ़ जाता है, वहीँ उनकी पार्टी ने तो यह तक कह दिया है कि, मीठा नहीं खाने वाले मर नहीं जाते. विपक्ष चूँकि सत्ता से बाहर है, इसलिए उनके पास मीठा खाने का कोई बहाना नहीं है, सो नेतागिरी में इस विज्ञापन का कोई खास महत्व नहीं है.

    सरकारी नौकरी करने वालों को सरकार गाहे-बगाहे वेतन वृद्धियां देकर मुंह मीठा करने का बहाना वैसे ही दे देती है, चूँकि नौकरी सरकारी है इसलिए कर्मचारी अपनी कुर्सी से गायब रहकर हर दिन सुहाना बना ही लेते हैं. सरकारी काम,सरकारी न रहे यदि बाबू उसमें बहानेबाज़ी न करे, आम जनता के काम के एवज़ में वे मुंह वैसे ही मीठा (सुविधा शुल्क वसूलकर) कर ही लेते हैं. इस श्रेणी में इंजीनियर, डॉक्टर, जैसे सभी अफसर आते हैं.
    निज़ी क्षेत्र में वकालत एक ऐसा पेशा है जहां उचित पढ़ाई के बाद “व्यवसाय” शुरू करने के लिए किसी इन्वेस्टमेंट की ज़रूरत नहीं होती, बस एक टेबल-कुर्सी से काम चल जाता है. वकील को अंग्रेज़ी में लायर कहा जाता है जिसका एक अर्थ झूठा भी होता है. तारीखों से उनका वास्ता पड़ता ही है, जितनी ज़्यादा तारीखें, उतनी ज़्यादा मुवक्किल से वसूली. जब मामला तारीखों से जुड़ा है तो तो इसमें कोई विशेष तारीख मायने नहीं रखती.
    इस ज़िक्र में आखिर में आम आदमी को भी ले ही लिया जाए, वैसे भी उसकी गिनती समाज के आखरी छोर से होती है. आम आदमी की जीभ पर कोई स्वाद नहीं होता. इसलिए मीठा-कड़वा-तीखा क्या होता है उससे पूछना बेमानी है.तिस पर महंगाई इतनी अधिक है कि वह त्योहारों पर भी मुंह मीठा करने से डरता है. आज़ादी के 63 साल में उससे किसी ने भूख-प्यास के बारे में नहीं पूछा तो उसे मीठा खाने की सलाह देना भी जायज़ नहीं है. आम आदमी के लिए कोई दिन सुहाना नहीं होता, घर-गृहस्थी के झंझट, बच्चों की पढ़ाई-नौकरी की चिंता, दफ्तर में अफसर की झिड़कियां, महंगाई, सामाजिक ज़िम्मेदारियां... उसके लिए कोई विशिष्ट दिन कैसे सुहाना हो सकता है, खुशियाँ हैं नहीं, बहाने बना नहीं पाता तो उसे मीठा खाने का हक़ कैसे हो सकता है? क्या आप मीठा खाना पसंद करेंगे.....?

    4 टिप्‍पणियां:

    1. ये ठीक है की पहली तारिख को मीठा खाना है ,पर ये चोकलेट होगी ये कौन मानेगा?ये सब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की चाल है .प्रसाद चढाने की परम्परा है पर वो चोकलेट शायद ही हो...

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    2. आम आदमी के लिए कोई दिन सुहाना नहीं होता, घर-गृहस्थी के झंझट, बच्चों की पढ़ाई-नौकरी की चिंता, दफ्तर में अफसर की झिड़कियां, महंगाई, सामाजिक ज़िम्मेदारियां... उसके लिए कोई विशिष्ट दिन कैसे सुहाना हो सकता है, खुशियाँ हैं नहीं, बहाने बना नहीं पाता तो उसे मीठा खाने का हक़ कैसे हो सकता है? क्या आप मीठा खाना पसंद करेंगे.....

      पसंद करने से क्या होता है ??????

      स्वाद तो कड़वा और कसैला हो चुका है..

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