नाटक ही तो है सब

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  • Subhash Rai
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  • मनुष्य के जन्म के साथ ही नाटक का जन्म हुआ होगा। भले ही हाव-भाव के प्रदर्शन और इस तरह खुद को अभिव्यक्त करने के विभिन्न तौर-तरीकों के लिए नाटक शब्द का प्रयोग बाद में हुआ हो लेकिन आदिम मनुष्य जब कभी बहुत प्रसन्न या बहुत दुखी होता रहा होगा तो अपनी मनोदशा की अभिव्यंजना के लिए वह जो तरीका उपयोग करता रहा होगा, वह नाटक ही तो रहा होगा।
    भारत आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत ही संपन्न रहा है। हमारे ऋषियों ने जीवन को ही नाटक की संज्ञा दी है। वे संपूर्ण जगत को एक रंग-मंच की तरह देखते हैं और स्वीकार करते हैं कि हर मनुष्य अपनी निश्चित भूमिका में है, वह भूमिका पूरी होते ही वह रंग-मंच से बाहर हो जायेगा। वह नाटक में इसलिए है क्योंकि उसे क्या करना है, यह वह तय नहीं करता है। उसकी पटकथा पहले से तैयार रहती है। उसी के हिसाब से वह अपने संवाद बोलता है, अपना अभिनय प्रस्तुत करता है। जो इस अभिनय को वास्तविकता मानकर चलते हैं, उन्हें कष्ट होता है। जो इसकी असलियत समझते हैं, वे दुखांत हो या सुखांत, हर स्थिति में प्रसन्न रहते हैं।

    जीवन में स्वतस्फूर्त ढंग से व्यक्त हो रहा नाटक ही कालांतर में साहित्यान्वेषियों द्वारा कला और साहित्य की एक विधा के रूप में स्वीकार किया गया होगा। नाटक के सर्वाधिक प्राचीन स्वरूप वेदों में मिलते हैं। यह पांच हजार वर्ष से भी ज्यादा पुरानी रचना है। बाद में ईंसा से तीन शती पूर्व आचार्य भरत मुनि और कई अन्य काव्यशास्त्रियों ने नाटक पर गंभीरता से विचार मंथन करके इसके सिद्धांतों की रचना की। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में नाटक के प्रकार, नाटक में रस, अभिनय कला, नाटक की आलोचना आदि विषयों पर विस्तार से चर्चा की। तब तक संस्कृत में श्रेष्ठ नाटक लिखे जाने लगे थे।

    पश्चिम में नाटक पर सोच-विचार बहुत बाद में शुरू हुआ। प्राचीन ग्रीस की राजधानी एथेंस में सबसे पहले नाटकों पर काम हुआ। ईसा से कोई दो शताब्दी पहले यूनानी विद्वानों ने नाटक को समझने और उसे परिभाषित करने का प्रयास किया। प्रारंभ में कामेडी और ट्रेजेडी अर्थात सुखांत और दुखांत, दो तरह के नाटक लिखे और अभिनीत किये जाते रहे। बाद के समय में इनमें विविधता आयी। तब तक भारत में नाटकों पर विशद काम हो चुका था और उच्च कोटि की नाट्यलेखन और अभिनय कला विकसित हो चुकी थी।

    प्रारंभ में नाटक काव्य के अंतर्गत ही था। संस्कृत साहित्य में ज्यादातर नाटक काव्य शैली में ही रचे गये और अभिनय भी गीत-संगीत से भरपूर हुआ करता था लेकिन कालांतर में यह साहित्य और कला की अलग विधा के रूप में विकसित हुआ। नाटक में अब भी काव्य जैसा आनंद निहित रहता है। यह कलाकारों के सामूहिक प्रदर्शन कौशल के रूप में सामने आता है। अब भी नाटकों में काव्यकला की अपनी भूमिका रहती है। यह गद्य और पद्य का मिश्रित साहित्य रूप है।

    समकालीन नाटकों में तमाम तरह के प्रयोग हो रहे हैं। थियेटर यद्यपि बाहर से भारत आया लेकिन किंचित अन्य रूप में वह बहुत पहले से भारत में मौजूद रहा है। प्राचीन काल से ही यहां विशाल रंग-मंच पर नाटक खेले जाते रहे हैं। आज के नाटकों में वर्तमान जीवन की दुरूहताओं, मनुष्यता पर आसन्न संकट, सामाजिक विकृतियों और राजनीतिक दांव-पेच को भी कथ्य बना कर नाटक को सामाजिक परिवर्तन के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। नाटकों का ही आधुनिक रूपांतर फिल्मों के रूप में हमारे सामने है। साहित्य में भी युगीन परिस्थितियों को समझने और बदलने के लिए नाटकों को सशक्त माध्यम के रूप में लिया जा रहा है। अब नाटक एक महत्वपूर्ण रचना विधा के रूप में अपनी जगह बना चुका है।

    4 टिप्‍पणियां:

    1. आपके आलेख से सहमत।
      जब आज की तरह मनोरंजन के विविध आयाम नहीं थे तब आम जनमानस की "रसनिष्पत्ति" का सबसे बड़ा प्रवाहक "नाटक" ही था।

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    2. एक बात समझ में नहीं आरही की इस एक ही पोस्ट को इतने लोग क्यूँ लिख रहें हैं

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    3. sahi kaha naatak bhi ek bhivyakti ka sashakt maadhyam hai....waise bhi ye duniya to ek rangmanch hai...

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    4. achcha blog hai.. i saw first blog in hindi.. m happy for it. :))

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
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