हिंदुस्तान जैसे विशाल देश के सामने पाकिस्तान की औकात क्या है? कुछ भी नहीं। न आर्थिक नजरिये से, न ताकत की दृष्टि से। यह बात कई बार साबित भी हो चुकी है। जब भी उसने सीधी रार छेड़ी, उसे मुंह की खानी पड़ी, पराजित होना पड़ा, झुक कर समझौते करने पड़े। उसकी इसी रार ने उसके दो टुकड़े भी करवा दिये। पूर्वी पाकिस्तान टूट कर अलग हो गया। बांग्लादेश बन गया। पर उसकी भारत को परेशान करने, उसे छेड़ते रहने की आदत नहीं गयी। हमारे नेताओं को, हमारी हुकूमतों को इसकी परवाह नहीं, इसकी चिंता नहीं।
जब पाकिस्तान कोई बड़ी साजिश अंजाम देता है, हम नाराज होते हैं, मुंह फुला लेते हैं, चेतावनी देते हैं, बातचीत बंद कर देते हैं पर यह सब बहुत लंबा नहीं चलता है। रक्षामंत्री ए के एंटनी कहते हैं, आखिर आप पड़ोसी तो नहीं बदल सकते, उसी के साथ रहना है, उसकी सारी उल्टी-सीधी हरकतों के बावजूद उससे हम पिंड नहीं छुड़ा सकते। और जब साथ रहना है तो बात तो करनी पड़ेगी। एंटनी कोई पहले नेता नहीं हैं, जो यह बात कह रहे हैं, हिंदुस्तान के नेता अक्सर इसी तरह की बातें करते रहते हैं।
हमले पर हमले सहकर भी भारत पाकिस्तान से बदल जाने की उम्मीद नहीं छोड़ता। यह व्यर्थ की उम्मीद लगती है। बंटवारे को 63 साल से भी ज्यादा हो चुके हैं। हम हमेशा दोस्ती का हाथ बढ़ाते रहे, वह पीछे से वार करता रहा। यह अलग बात है कि सीधी लड़ाई में हमने उसे हर बार पछाड़ा पर इससे उसका लड़ने का जुनून कहां खत्म हुआ। अब उसके खरीदे हुए सिपाही हिंदुस्तान से लड़ रहे हैं। हम तो उन्हें भी नहीं रोक पाते, जो हमारी मिट्टी में जन्म लेकर भी दुश्मनों के हाथ बिक जाते हैं। न केवल आतंकवादी हमलों के मामलों में बल्कि पाकिस्तान से छपकर आने वाले नकली नोटों के प्रसार में भी हमारे अपने लोग कमीशन के लालच में उनके जासूसों द्वारा खरीद लिये जाते हैं। अब तो बड़े अफसर भी उनकी गुलामी बजाते मिल रहे हैं। आखिर हम इतने गद्दार क्यों निकल रहे हैं, हम किसी के भी सामने अपनी बोली लगाने में क्यों तनिक संकोच नहीं करते?
क्या हो गया है, हमारे स्वत्व को, स्वाभिमान को, देशभक्ति को? और क्या हो गया है हमारी कानून-व्यवस्था की मशीनरी को, हमारी खुफिया सेवाओं को? वे क्यों गहरी नींद में रहती हैं? उनके हाथ हिंदुस्तानी कहलाने वाले गद्दारों के गिरेबान तक क्यों नहीं पहुंचते, उनको हमारी जमीन पर आकर षड्यंत्र का जाल बिछाने वाले दुश्मन के जासूसों और उपद्रवियों का सुराग क्यों नहीं मिलता?
हर हमले के बाद हम मुस्तैदी की बात करते हैं, सतर्कता के उपाय करते हैं, सीमाओं पर निगरानी बढ़ाने की स्कीमें बनाते हैं पर हमले रुकते नहीं। हर हमले के बाद हम पाकिस्तान को चेतावनी देते हैं, अब इसे दुहराया तो? मगर हमले रुकते नहीं। हम जानते हैं कि वे हमसे ही छीनी गयी जमीन पर आतंकवादियों को ट्रेनिंग दे रहे हैं, हमारे देश पर हमला करने वालों का सार्वजनिक सम्मान कर रहे हैं, भारत के खिलाफ उन्हें आग उगलने का मौका दे रहे हैं, पर हम निरुपाय हैं, लाचार हैं। हम बातचीत के अलावा कुछ नहीं कर सकते।
इतनी लाचारी भी ठीक नहीं। हमारे सत्तानायकों ने कई बार आतंकवादियों के आगे घुटने टेके हैं। उनसे लड़ने में देश के बहादुर बच्चों की मूल्यवान जिंदगियां निछावर होती रही हैं और हम अहिंसा और क्षमा के देवदूत बनकर बार-बार एक धूर्त और पाखंडी पड़ोसी को माफ करते आये हैं। आखिर बातचीत की क्या मजबूरी है? जब वह हमारी एक बात नहीं मान सकता कि आतंकवादियों को अपनी जमीन पर भारत के खिलाफ साजिश करने से रोके, कश्मीर छीनने के लिए बदमाशों को घूम-घूम कर चंदा मांगने से रोके, हमारे खिलाफ अपराध करने वाले उपद्रवियों को हमारे हवाले करे, तो उससे किसी भी तरह की बातचीत की क्या जरूरत है? यह समझना होगा कि जो बातचीत की भाषा समझता ही न हो, उसके सामने अपनी लाचारी प्रदर्शित करके हमें कभी कुछ हासिल नहीं होगा।
हिंदुस्तान इतना लाचार क्यों?
Posted on by Subhash Rai in
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