मूर्ख दिवस तो बीत गया बुद्धिमान दिवस आया है (अविनाश वाचस्‍पति)

मूर्ख दिवस से परहेज करने वालों

उस दिन पोस्‍टों न खोल कर पढ़ने वालों

आप बुद्धिमान बनने से रह गये हैं

उसमें जो कहा गया है

उसे नहीं मानेंगे तो

बुद्धिमान ही कहलायेंगे

पर बिना पढ़े कैसे पता लगायेंगे

कि क्‍या कहा गया है ?

इसलिए जानना जरूरी था

आज भी पढ़ सकते हैं

आज मान भी सकते हैं

आप अप्रैल तो है

पर अप्रैल फूल नहीं है

आज अप्रैल कांटे हैं

फूल तो सबने कल ही बांटे हैं।


सबने छांट लिए हैं

फूल भी उनकी सुगंध भी

उनके रंग भी

उनसे सीखे हैं ढंग भी

पर जो बुद्धिमान बनते हैं

वे रह गए हैं

सीखने में जानने में पीछे

जीवन की इस जंग को

जंग जो जीवन में लगी हुई है

लोहे में लगी जंग के माफिक

उसे छुड़ाना भी तो था किसी दिन

अप्रैल के दिन एक मौका मिला था

जो इस बरस का दूसरा था

पहला होली था

दूसरा फूल था

दोनों बीत गए

फूल जिन्‍होंने बिखेरे बटोरे

वे कांटों से जीत गए।

10 टिप्‍पणियां:

  1. मूर्ख बनने में भी बुद्धिमानी है .. और मूर्ख न बनने में ही बेवकूफी .. बढिया लिखा है आपने !!

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  2. सही कहा आपने. भला ये भी कोई बात हुई कि गिरने के डर से घोड़े ही पर न चढ़ें, मूर्ख बनने के डर से टीप ही न करें.

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  3. आज मूर्ख दिवस मनाने में इतना व्यस्त रहा कि कहीं किसी ब्लॉग पर जाना हुआ नहीं यद्यपि दिवस विशेष का ख्याल रख यहाँ चला आया हूँ और आकर अच्छा लगा. धन्यवाद!!

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति। सादर अभिवादन।

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  5. अविनाश जी !
    आज के समय में हँसना लगभग भूलते जा रहे हैं , और ख़ास तौर पर वयस्कों में तो यह दुर्लभ ही हो गया है ! "लोग क्या कहेंगे...." इस उम्र में भी हा ...हा......हा......." बच्चों की तरह दांत फाड़ना ...." आदि सामान्य प्रचलित वाक्यों ने समय से पहले हँसना छुड़ा दिया ! अफ़सोस है कि " बुद्धिमान " लोग इसे समझना भी नहीं चाहते वे अपने बड़प्पन में ही मस्त हैं ! उन्हें यह भी नहीं पता चलता कि मौत कुछ अधिक तेजी से उनके पास जल्दी आयेगी !
    आप एक बेहतर कार्य करने के नाते मेरी निगाह में आदरणीय रहेंगे !

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  6. कुछ लोग जानबूझ कर मूर्ख बनते हैं उन लोगों के लिए श्री अविनाश जी का व्यंग्य आलेख "खुश है ज़माना आज पहली तारिख है" बिलकुल सार्थक प्रतीक होता है. पता नहीं लोग क्यों लोग ऐसी मूर्खता को 'standard ' का नाम देते हैं. शायद वो इसीलिये जानबूझ कर मूर्ख बनते हैं कि कही बुद्धिमता उनका 'standard ' ना गिरा दे. और मार्केट हमारी इसी मूर्खता को भुना कर अपनी ' बुद्धिमता ' और हमारी ' मूर्खता ' से अपना 'standard ' बढाता है औरहम ख़ुशी-ख़ुशी मूर्ख बनते भी हैं...
    आपका आलेख बहुत अच्छा लगा...शुभकामनाएं और कोटिशः आभार!!

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  7. फूल तो सबने कल ही बांटे हैं।
    सबने छांट लिए हैं
    फूल भी उनकी सुगंध भीउनके रंग भी
    उनसे सीखे हैं ढंग भी
    पर जो बुद्धिमान बनते हैं
    वे रह गए हैं
    सीखने में जानने में पीछे
    जीवन की इस जंग को
    जंग जो जीवन में लगी हुई है
    लोहे में लगी जंग के माफिक
    से छुड़ाना भी तो था किसी दिन
    अप्रैल के दिन एक मौका मिला था
    in panktiyon me sab kuch kah diyaa hai avinaashjI aapne . bahut sunder likhaa hai . sachmuch jo kal khud ko budhiman samajkar rah gaye the poste padhne me ve aaj jaroor aanaa caahege . ek baat aur vo bhale hi aayege murkh bankar lekin kahalaayege vo budhiman hi..

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