-डा0 गोपाल शरण पाण्डेय
जीवन में हास्य की सत्ता और हास्य-रस उद्रेक में व्यंग्य की महत्ता अस्वीकारी नहीं जा सकती। किन्तु हास्य सदा व्यंग्यापेक्षी नहीं और न व्यंग्य सदा हास्य उद्रेकी होता है। हास्य मानव की प्रवृत्ति है, प्रकृति है और मानव के लिए हास्य और रोदन सहचर धर्म है। जो व्यक्ति कभी न हंसे उस व्यक्ति की कल्पना भी नहीं की जा सकती, अगर ऐसा होता है तो व्यक्ति के मन में तनाव, निराशा आदि की उत्पत्ति होती है। हंसने-हंसाने की क्रिया मानवीय अपेक्षा है, मानव के लिए हितकारी है। विश्व साहित्य में हास्यमूलक सर्जनाओं का अभाव नहीं, किन्तु हास्य रस की सृष्टि के लिए साहित्य शास्त्रियों ने और स्वयं व्यंग्यकारों ने व्यंग्य को एक मात्र उपजीव्य बतलाया है, किन्तु न सभी व्यंग्य हास्य के उपजीव्य बन सकते हैं और न केवल व्यंग्य हास्य के उपजीव्य हैं। जो हास्य की पूर्ण निर्भरता व्यंग्य पर मानते हैं वे भूल जाते हैं कि शृंगार में शास्वत आनंद के क्षण में मंद स्मित का प्रस्फुटन चाहे-अनचाहे अनायास होता है।
प्रेमी-प्रेमिका के मधुर मिलन के क्षण में आश्रय और आलम्बन के अन्तर्मन में सहज स्वाभाविक हंसी-खुशी की कलियाँ आनन के उपवन में विकसित होते किसने नहीं देखा? यह भी सच है कि व्यंग्य जनित हास्य के क्षण सीमित होते हैं, पल भर खिलखिलाने और क्षण भर हंस लेने के बाद हास्य तिरोहित हो जाता है। शायद यह स्थायी भी नहीं बन पाता है तो क्या व्यंग्य जनित हास्य उपेक्षणीय है? नहीं! नहीं! इसकी उपयोगिता क्षण भर के लिए ही सही पर तनावग्रस्त बोझिल मन को उनमन बनाने में है। दु:ख चिंता में डूबे व्यक्ति को हंसी की नदिया मे नहलाने में है। व्यंग्य का विषय और लक्ष्य सामाजिक हो सकता है, राजनैतिक हो सकता है, आर्थिक हो सकता है और इस लक्ष्य की पूर्ति व्यंग्यवाण से मन को आहत कर की जा सकती है पर व्यंग्य सदा हास्यजनक ही हो, हास्यपरक ही हो, यह नहीं हो सकता है।
कबीर के व्यंग्य जिसे कुछ लोगों ने व्यंग्य नहीं माना है क्या हास्य उत्पादक है? निराला जी का भिक्षुक और वह तोड़ती पत्थर में सामाजिक वैषम्य का यर्थाथ चित्र है, इसमें कवि की प्रगतिवादिता भी है पर क्या इसमें विषमता पर व्यंग्य नहीं है? व्यास का वचन है-मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। तो क्या इसमें मानव और मानवता पर व्यंग्य नहीं है। हाँ, यदि व्यंग्य है तो ये कविताएं विचारोत्तेजक हैं और करुण रस जनक हैं। कहने का अर्थ यह है कि जब व्यंग्यकार व्यंग्य के माध्यम से गुद-गुदाकर, हंसा कर, अनापेक्षित स्थितियों से उबरना-उबारना चाहता तो व्यंग्य हास्य-प्राण बन जाता है, किन्तु जब यथास्थिति केवल विकृति की प्रस्तुति करता तो व्यंग्य विचारोत्तेजक बन उठता है। व्यंग्य की हास्य धर्मिता रचनाकार की मानसिकता से प्रभावित होती है। इसी प्रकार शृंगारिक कवि जब शृंगार निरूपण में आश्रय और आलम्बन की प्रस्तुति में व्यैक्तिक आह्लाद या प्रसन्नता के भोग-अनभोगे क्षण की अभिव्यंजना करते हैं तो शृंगार रस के अन्तसलीला में चाहे-अनचाहे हास्य के कमल प्रस्फुटित होते हैं जो अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होते हैं। अतएव यदि भारतीय आचार्यों ने शृंगार के अंदर हास्य रस का उद्रेक माना है वे गलत नहीं हैं।
चाहे हास्य का उत्स व्यंग्य हो या शृंगार किन्तु हास्य जीवनापेक्षी है, नितान्त प्रकम्य है। अतः हास्य रस की सृष्टि साहित्य धर्म है। हमारा विश्वास है कि ज्यों-ज्यो भौतिकता आदि कारणों से जीवन-पथ में दुरूहता आती जाएगी, त्यों-त्यों हास्य की श्रीवृद्धि की अपेक्षा बढ़ती जाएगी। आये दिन हास्य सृजन का माध्यम जो भी हो किन्तु स्वातः सुखाय या ‘सुर सरि सम सब कह हित होई’ की कामना से प्रेरित साहित्यकार हास्य-रस की सृष्टि में अपनी गहन अभिरुचि का प्रदर्शन करेगा और इसी अर्थ में मुझे हास्य और व्यंग्य के सृजन का धरातल अत्यन्त उर्वर दिखाई पड़ रहा है। अस्तु।
हिंदी विभाग,
मार्खम कालेज आफ कामर्स
हजारीबाग (झारखंड)
सचलभाष-9431531196
बिल्कुल सही कह रहे हैं आप
जवाब देंहटाएंइससे रखता हूं पूरा इत्तेफाक
और इसी धर्म को निभा रहा हूं
चाहता हूं सभी निभाएं
हास्य-व्यंग्य को जीवन में मिलाएं
न कि इससे दूर हो कसमसाएं।