'मुश्फिक' की फिक्र

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  • अमिताभ श्रीवास्तव
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  • जी हां, गज़ल को लेकर पत्र-पत्रिकायें थोडी कंज़ूस तो रहती हैं किंतु गज़ल निर्बाध रूप से बह रही हैं, इसे भी स्वीकार किया जाना चाहिये। मुझे लगता है कि गज़ल को अपनी दिशा का भान है। उसके अपने दीवाने हैं। वर्ग विशेष होने का यह फायदा भी है कि उसके रूप, रंग, उसकी रवानी, फसाहत और कायदे पर अभी तक किसी प्रकार की ज्यादती नहीं हुई है, और विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि उसके मुस्तकबिल पर कभी कोई आंच नहीं आने वाली। बहरहाल, आज मैं आपका एक ऐसे शायर से परिचय करा रहा हूं जिनके बारे में आज की गज़ल प्रेमी पीढी शायद न जानती हो। जिन्होने रिवायती और क्लासिकी शायरी से हटकर समाज और मुल्की हालात को अपने मखसूस अन्दाज़ में पेश किया, जिनकी शायरी सेहतमन्द और संज़ीदा अदब से हमेशा लबरेज़ रही। जनाब मुस्तफा हुसैन 'मुश्फिक'। रायगढ (छत्तीसगढ) के गांजा चौक का एक जानापहचाना नाम। अखिल भारतीय कवि सम्मेलनों, आकाशवाणी आदि मंचों की रौनक। हिन्दी, ऊर्दू और छत्तीसगढी में समान गति से लिखने वाले शायर, गीतकार और कवि। गज़ल क्षेत्र की यह बहुत बडी क्षति है कि मुश्फिक साहब इस दुनिया में नहीं हैं। महज़ चौथी तक की शिक्षा और जीवनयापन के लिये टेलरिंग का व्यवसाय। ताउम्र गुरबत के साये में रहे, और शायद यही वजह रही कि उनके अनुभव ने जीवन को कलाम में बान्धकर कागज़ पर हूबहू उतार दिया। उन्हें कभी गोपालदास नीरज की बगल मिली तो कभी रूपनारायण त्रिपाठी, मुकुटबिहारी सरोज जैसे उम्दा फनकारों के बीच बैठ कर शायरी करने का मौका। यानी आप जान ही गये होंगे कि डिग्रियां हासिल कर लेने वाला ही पढा-लिखा नहीं माना जा सकता, बल्कि कबीर जैसे अनेक लोग भी साहित्य के पुरोधा हैं, उनमें से मैं मुश्फिक को भी एक मानता हूं। पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहने वाले मुश्फिक के लिये गज़ल पर कोई किताब टेडी खीर ही थी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में 26 दिसम्बर 1959 को पहली रचना प्रकाशित हुई थी, इसके बाद रचनाये छपती रहीं, गज़ले वे कहते, सुनाते रहे मगर उन्हें किताबी शक़्ल कभी नहीं दे पाये। चार दशक बाद यह सब भी हुआ। 1 मई 1998 को "मेरी फिक़्र शायरी" के नाम से उनका कलाम किताबी शक़्ल में शाये हुआ। इसके दो वर्ष पूर्व मेरे विवाह के अवसर पर वे भी शामिल हुए थे। मुझे नहीं पता था कि वो अंतिम मुलाकात होगी। खैर, उनकी किताब और स्मृतियां मौज़ूद हैं।
    जनाब मुश्फिक़ ने जैसी जिंदगी देखी उसे उतार दिया। मुझे लगता है कि आदमी मुख्तालिफ परेशानियों की गिरफ्त के बावज़ूद, अपनी जीने की ललक नहीं छोडता, वो मुसीबतों से दो चार होता है और हंसने की पुरजोर कोशिशे करता रहता है, मुश्फिक कहते हैं कि-

    " इस गरानी में भी, नातवानी में भी
    लोग जिन्दा हैं, जिन्दादिली देखिये।"

    गज़लों में यह खासियत तो सनी हुई है कि वो जीवन के करीब, बिल्कुल सट कर चलती है। खैर, मुश्फिक ने उम्र के करीब छह दशक बाद जब थोडी राहत महसूस की ही थी जहां वो कह सके कि-
    " कितने मलाल हमको जमाने से मिले हैं
    अब जाके लोग ठीक ठीकाने से मिले हैं।"

    कि सांसों ने उनका साथ छोड दिया। बहरहाल, आज उनकी वो गज़ल जो मुझे ज्यादा पसन्द है आप तक पहुंचा रहा हूं, शायद मेरी ही तरह आपको भी पसन्द आयें?


    इंसा भी मसीयत का अनमोल खिलौना है
    हर खेल का आखिर है और खेल भी होना है।

    फितरत का करिश्मा है जादू है ना होना है
    सोना कभी मिट्टी है मिट्टी कभी सोना है।

    जो दिल पे गुजरती है नग्मों में पिरोना है
    पत्थर के कलेजे को हंसना है न रोना है।

    गुजरी हैं कई सुबहें हर शाम गुजरती है
    हम खानाबदोशों का तकिया न बिछौना है।

    वीराना ही अच्छा है बदकार इमारत से
    सुख चैन की नींदे हैं और ख्वाब सलोना है।

    जिसने निबाह दी है हर गर्दिशे दौरां से
    उस सच को ढूंढना भी अपनों ही को खोना है।

    मुद्दत से ये हसरत है हो ताबे नज़र 'मुश्फिक'
    फिर उसके नज़ारों से हो जाये जो होना है।

    7 टिप्‍पणियां:

    1. जिस भी पंक्ति के अंत में ना है
      समझने वाले समझ रहे हैं कि
      वो ही असली सच्‍ची हां है।

      यह हां ही कभी हा हा हा
      तो कभी अहा
      कभी वाह वाह
      और कभी आह बन कर
      मानस से बाहर निकलती है।

      हर एक पंक्ति
      प्रत्‍येक शब्‍द
      हकीकत से
      रूबरू कराती है।

      वाकई यह कार्य स्‍तुत्‍य है अमिताभ जी का।

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    2. बहुत अच्छा लगा मुश्फिक जी के बारे में जानकर.

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    3. आभार जनाब मुस्तफा हुसैन 'मुश्फिक'से परिचय कराने का.

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    4. मुश्फिक जी और उनकी रचना से रूबरू कराने के लिए
      धन्यवाद!

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    5. इस पोस्‍ट को आज 5 फरवरी 2009 के दैनिक जनसत्‍ता में समांतर स्‍तंभ में पेज 6 पर भी देख सकते हैं। अमिताभ श्रीवास्‍तव जी को बधाई।

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    6. badhaai is NUKKAD ko/ jisake saath rahkar apne vicharo ko safalta poorvak pravaahit kiya jaa sakataa he...

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    आपके आने के लिए धन्यवाद
    लिखें सदा बेबाकी से है फरियाद

     
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