प्रथम दृश्य
‘अब तबियत कैसी है तुम्हारी’ आफिस से लौटते ही बिस्तर पर लेटी पत्नी पर नजर डालते हुए पति ने पूछा।
‘अभी कुछ ठीक है, बुखार तो दिनभर नहीं था , पर सर में तेज दर्द रहा’
’तुमने आराम नहीं किया होगा, दवाइयां नहीं खायी होगी, चलो डाक्टर के पास चलते हैं’
’दिनभर आराम ही तो किया है , पडोसी ने खाना बनाने को मना कर रखा था , स्कूल से आते ही बच्चों को ले गए , खाना खिलाकर भेजा , डाक्टर के यहां जाने की जरूरत नहीं , अभी आराम है’
’ठीक है, आराम ही करो, मैं होटल से खाना ले आता हूं’
’इसकी जरूरत नहीं, फ्रिज में राजमें की सब्जी है , थोडे चावल कूकर में डालकर सिटी लगा लेती हूं , आपलोग खा लेंगे’
’नहीं, हमें नहीं खाना चावल, आंटी ने बहुत खिला दिया है , हल्की भूख ही है हमें’ बच्चे चावल के नाम से बिदक उठे।
’ठीक है, तो चार फुल्के ही सेंक दूं , आटे भी गूंधे पडे हैं फ्रिज में’
‘नहीं मम्मा, रोटी खाने की भी इच्छा नहीं’
’तो फिर क्या खाओगे’
’बिल्कुल हल्का फुल्का’
‘ब्रेड का ही कुछ बना दूं’
’नहीं, नूडल्स वगैरह’
’ठीक है, दो मिनट में तो बन जाएगा, मैगी ही बना देती हूं’
‘अरे, क्या कर रही हो’ पतिदेव बाथरूम से आ चुके थे।
’कुछ भी तो नहीं बच्चों के लिए मैगी बना दूं’
’अरे नहीं, तुम्हें परेशान होने की क्या जरूरत, मैं ले आता हूं होटल से , तुम आराम करो भई’ उन्होने हाथ पकडकर पत्नी को बिस्तर पर लिटा दिया और सबका खाना होटल से ले आए।
द्वितीय दृश्य
सुबह से सर में तेज दर्द है , पर मजदूरी करने जाना जरूरी था। जाते वक्त मुहल्ले की दुकान से उधार ही सही , सरदर्द की दो दवाइयां ले ली थी , सबह और दोपहर दोनो वक्त उस दवाई को खा लेने का ही परिणाम था कि वह आज की दिहाडी कमा चुकी थी। कुल 60 रूपए हाथ में , पति की कमाई का कोई भरोसा नहीं , सारा पैसा शराब में ही खर्च कर देता है वह। 60 रूपए में क्या ले , क्या नहीं , 4 रूपए की दवा ले ही चुकी है वह। 18 रूपए वाले चावल ले तो उसमें कंकड नहीं होता , पर बाकी काम के लिए पैसे कम पड जाएंगे । 15 रूपएवाले चावल ही ले लें , कंकड तो चुने भी जा सकते हैं। दोकिलो चावल लेने भी जरूरी हैं, थोडा भात बच जाए तो बासी भात के सहारे बच्चे दिनभर काट लेते हैं। घर में तेल भी नहीं , दाल भी नहीं , सब्जी भी नहीं , ईंधन भी नहीं , 26 रूपए में क्या ले क्या नहीं। नहीं आज तेल छोड देना चाहिए , थोडे दाल ले ले , थोडे साग है बगीचे में , आलू है घर में , कोयला लेना जरूरी है और किरासन तेल भी। काफी मशक्कत करके वह 56 रूपए में उसने आज की सभी जरूरतें पूरी कर ही ली। आकर चूल्हे जलाए , चावल बीने , साग चुने। खाने के लिए चावल , दाल , साग और आलू के चोखे बनाए। दिनभर के भूखे बच्चे गरम गरम खाना खा ही रहे थे कि झूमते झामते पति पहुंच गया। उसका खाना भी परोसा गया , पर यह क्या , पहला कौर खाते ही मुंह में कंकड। पति का गुस्सा सातवें आसमान पर , पूरी थाली फेक दी और जड दिए चार थप्पड उसकी गालों पर। ‘साली खाना बनाना भी नहीं आता , आंख की जगह पत्थर लगे हैं क्या ? ‘ बेसुध पति को जवाब देकर और मार खाने की ताकत तो उसकी थी नहीं , रोकर भी समय जाया नहीं कर सकती , बच्चों को खिलाकर खुद भी खाना है , बरतन साफ करने हैं तबियत ठीक करने के लिए सोना भी जरूरी है , सुबह फिर मजदूरी पर भी जाना है।
नसीब अपना अपना
Posted on by संगीता पुरी in
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यथार्थ चित्रण नसीब का.
जवाब देंहटाएंकिसी को नही होता की वो कैसे जीवन बिताएगा..जैसा आपकी कहानी के दो दृश्यो मे स्पष्ट है.
सुन्दर है नसीब अपना अपना........
जवाब देंहटाएंसही बात है...अपने अपने नसीब की ही बात है.
जवाब देंहटाएंजीवन का यथार्थ एवं मार्मिक चित्रण...नसीब अपना-अपना
जवाब देंहटाएंdwiteey drushy padh nahee paayi...ruchi badh rahe thee..!
जवाब देंहटाएंhttp://shamasansmaran.blogspot.com
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wah zindegi in do dreshyon me mano simat si gayi ho ......
जवाब देंहटाएंadhbhut post....
सही कहा नसीब अपना अपना
जवाब देंहटाएंnaseeb apna apna..........sahi kaha.
जवाब देंहटाएंनसीब अपना अपना : समाज की दो कटु सच्छाई का आईना के साथ साथ समाज के निम्न वर्ग मे शराव का वर्चस्व को भी उजागर करता है.
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