सुशील कुमार का बहुचर्चित आलेख ‘मूल रचना बनाम अनुवाद’ अब भारतीय अनुवाद परिषद, नई दिल्ली की पत्रिका ‘अनुवाद’ पर भी।
Posted on by अविनाश वाचस्पति in
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साथियों
भाई सुशील कुमार का बहुचर्चित आलेख ‘मूल रचना बनाम अनुवाद’ एक चर्चित कवयित्री और एक अनुवादक की रचनाशीलता को आधार बनाकर लिखा गया एक ऐसा शोधपरक दस्तावेज है जो बड़ी- बड़ी पत्रिकाओं के दिग्ग्जों को पच नहीं पाया। इसलिये ‘हंस’- नई दिल्ली, वर्तमान- साहित्य-अलीगढ़, ‘अक्षरपर्व’- रायपुर जैसी कई पत्रिकाओं ने विवशता जा़हिर करते हुए उसे कुमार को वापस लौटा दिया क्योंकि वह आलेख न सिर्फ़ हिंदी साहित्य में अनुवादकों के साथ आजकल हो रही ज्यादतियों और वंचनाओं की ओर ईशारा करता है बल्कि हमारे आलोचकों और साहित्य के कई जाने-माने चेहरों की साहित्य में निर्णायक भूमिका पर भी प्रश्न चिन्ह लगाता है। जब सुशील जी निराश होकर बैठ गये तब एक दिन उन्हें अचानक ‘भारतीय लेखक’-संपाद्क हरिपाल त्यागी के मार्फ़त उनकी पत्रिका में छापने का स्वीकृति-पत्र प्राप्त हुआ। वहां रचना के छापे जाने के बाद इस गंभीर चर्चा भी हुई। तब अपने ब्लॉग ‘वातायन’ पर लगाने के लिये श्री रूपसिंह चन्देल जी ने भी सुशील जी से वह युनिकोड फॉन्ट में टाईपकर भेजने को कहा। वह आलेख वहां प्रकाशित हुआ माह फरवरी २००८में ,लिंक यहां है-
वातायन
इसके बाद यह आलेख जरूरी समझते हुए इसको गद्यकोश में देने के लिये श्री अनिल जनविजय जी ने सुशील जी से संपर्क साधा। वह आलेख गद्य-कोश में यहाँ छापी गयी है
गद्यकोश
इस पर सर्वश्री सुरेश सलिल., उद्भ्रांत जैसे कई साहित्य की मानी गयी हस्तियों के बीच बात-विमर्श-विवाद का भी दौर चला। पर सुशील जी ने यह आलेख भारतीय अनुवाद परिषद की अनुवाद पर केन्द्रित गंभीर पत्रिका ‘अनुवाद’,जो केन्द्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के सहयोग से दिल्ली से निकाली जाती है में छपवाने के उद्देश्य से लिखी थी । किन्तु २००७ में डा. हरीश कुमार सेठी जो ‘अनुवाद’ पत्रिका के कोर ग्रुप के सदस्य हैं, का पत्र उन्हें प्राप्त हुआ था कि अगर वे इस आलेख में कतिपय संशोधन कर दें तो उसे ‘अनुवाद’ में छापा जा सकता है। पर सुशील कुमार ने ऐसा करने साफ़ मना कर दिया। फलत: यह रचना वहां फाईल में छपने की बाट लम्बे अरसे तक जोहती रही और अब जाकर ‘अनुवाद’ के जनवरी-मार्च- २००९ अंक- १३८ में हु-ब-हु छापी गयी है जिसका स्कैन किया हुआ पेज नुक्कड़ के साथियों के पढ़ने के निहितार्थ उपलबध करायी जा रही है आप भी अनुवाद पर आधृत इस गंभीर आलेख को पढ़ें और अपनी टिप्पणी टिप्पणी-बक्से में जाकर डालें।
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हिंदी भाषा को अन्य भाषाओं से जोड़ने और उन भाषाओं के लेखकों, अनुवादकों को प्रोत्साहित करने के लिए पुरस्कार आदि दिए जा रहे हैं, जिससे हिंदी जगत में निराशा भी फैल रही है। साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कारों को सभी अन्य भाषाओं के साथ हिंदी लेखक को भी रखा जाता है जब कि हिंदी लेखन समस्त भारत में लिखा जाता है और अन्य तो क्षेत्रिय सीमित होती हैं। अच्छा हो कि पुरस्कारों का विस्तार proportionate हो ताकि हिंदी लेखक इन पुरस्कारों से वंचित न हों।
जवाब देंहटाएंhindi ko aam jan ke liye rozgaar parak bhaashaa banaanaa hogaa .hamaare desh main jaisaa razaa vaisee prazaa kaa chalan hai isiliye moujudaa dour ke raazaaon ko apne aachran me hindi ko laanaa hogaa.aanko kaa khel khel karhindi ko aage badne serokaa hi jaa rahaa hai.
जवाब देंहटाएंjhallevichar.blogspot.com
मानस के मोती पर शमा के की प्राप्त ई मेल अविकल प्रस्तुत है :-
जवाब देंहटाएंमै ना तो पूरा आलेख पढ़ पायी, ना वहां पे टिप्पणी ही दर्ज कर पायी..किसी कारन, वो खुल्ही नहीं रहा..मेरा मतलब है, एक पन्ने के बाद..
बात सही है...मैंने अपनी कथाएँ तथा चंद आलेख,इनका स्वयं ही अनुवाद किया है...येभी अनुभव हुआ,कि, स्वयं अनुवाद करके भी( इंग्लिश में ), एक संपादक ने उसका नास पीट दिया..!
खुद समझ सकती हूँ, कि, अनुवाद काफी मुश्किल होता है...कई बार, दूसरी भाषामे पर्याय वाची शब्द ही नहीं मिलता...या अस्तित्व मेही नहीं होता! बेहतर यही हो,कि, अनुवाद के प्रकाशित होने से पूर्व, अनुवाद मूल लेखक या लेखिका को बता दिया जाय...या फिर अनुवाद के लिए मूल लेखक या लेखिका ही अपनी ओरसे, किसी अन्य लेखक या अनुवादक को नियुक्त करे.
मैंने अपनी मूल हिंदी कथा," नीले, पीले फूल" का मराठी में अनुवाद किया...अव्वल तो शीर्षक बदलना पडा, क्योंकि, अनुवाद में वही शीर्षक कानों को भद्दा लगता था..शीर्षक दिया," एक निरंतर क्षण"...लेकिन फिरभी, चूँकि, मूल कहानी, हिंदी भाषिक प्रदेश में स्थित थी, उसकी नज़ाकत, और काव्यात्मकता मराठी में नहीं उतार पायी...जबकि, मै खुद मराठी में काफी लेखन करती हूँ. परिणामत:,उसका मराठी में प्रकाशन मैंने लिया ही नहीं...!
समस्या ये है, कि, गर अनुवादक को, जिस भाषामे अनुवाद करना है/होना है, वो भाषा,आतीही , न हो तो क्या किया जाय?
कोई मेरी उपरोक्त कथा का पंजाबी में अनुवाद करना चाह रहा है..किसी पत्रिका के लिए...अब मुझे पंजाबी न पढ़नी आती है,ना लिखनी..! मैंने, इजाज़त तो देदी, लेकिन, एक दोस्तके हैसियत से...मुझे ना उससे कोई मुआवजा हासिल है, ना कुछ..लेकिन मनमे ये शंका ज़रूर है,कि,क्या कथाके साथ न्याय होगा?
इसलिए, अंतमे यही, कहूँगी, कि, अनुवाद करना बेहद मुश्किल काम है! गर अनुवाद में मूल कथ्य का सार और नजाकत मौजूद हैं, तो अनुवाद बहुमोल है...अनुवादक भी बहुमोल है...लेकिन, अनुवाद से पूर्व, अनुवादक ने भी सोच लेना चाहिए,कि, जिस रचनाका अनुवाद वो करने जा रहा है, उसे वो न्याय दे पायेगा या नहीं?
शास्त्र विषयों पे अनुवाद इतना कठिन नहीं, लेकिन जहाँ, भावनाएँ शामिल हैं, वहाँ बेहद मुश्किल...एक उदाहरण के तौरपे अपनी कथा "नैहर" ही लेती हूँ..."नैहर" का अनुवाद इंग्लिश में हो और वोभी, इंग्लैंड या americans के लिए हो,तो, बेकार है...! वहाँ, "नैहर" का 'कांसेप्ट' ही अस्तित्व में नहीं है!! ससुराल और नैहर इन शब्दों से क्या सन्दर्भ दिमाग में आ सकते हैं/आने चाहियें, ये उन मुल्कों के पाठक समझ ही पाएँगे!
आप इसे प्रकाशित करना चाहें, तो ज़रूर करें..मै उस पोस्ट पे जाके प्रकाशित नहीं कर पा रही हूँ!
निर्मला कपिला ने मानस के मोती को भेजी ई मेल में लिखा :-
जवाब देंहटाएंavinash ji namaskar lekh padhne ke liye link nahin khul saka dhanyvad
रचनाओं को पढ़ने के लिए पन्नों पर क्लिक करते जाएं और पढ़ते जाएं। कोई समस्या आने पर सुशील कुमार जी को ई मेल पर sk.dumka@gmail.com सूचित करें।
जवाब देंहटाएंसुशील कुमार जी ने कुछ लिंक दिए हैं जिन्हें दुरुस्त कर दिया है अब वहां पर क्लिक करके भी आलेख पढ़ा जा सकता है। पाठकों को हुई असुविधा के लिए खेद है। पुन: पधारें।
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