मानवीय संवेदनाओं को खँगालती अशोक सिंह की कवितायें - सुशील कुमार

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  • अपने समय की सामाजिक चिंताओं पर केन्द्रित युवा कवि अशोक सिंह की कवितायें मात्र उनके रचनात्मक उद्यीपन या हुनर का परिणाम नहीं, उनके आत्मसंघर्ष का एक स्वाभाविक हिस्सा भी है। अधिक से अधिक क्रूर और अमानवीय होती व्यवस्था में शोषण और जहालत की ज़िन्दगी जीते हाशिये पर पड़े लोगों के सामाजिक-आर्थिक राजनीतिक विडंबनाओं की अभिव्यक्ति अशोक सिंह के कलम की सार्थकता है। यहाँ उनकी 'पेड़' कविता को “नुक्कड़” के सुधीजनों के लिये प्रस्तुत करते हुये हमें अपार हर्ष हो रहा है। यह इनकी बहुचर्चित कविता है जिसमें 'पेड़' जो प्रकृति का एक अमूल्य वरदान और उपादान है, पर मानवीय भावों का अनूठा प्रत्यारोपण कर कवि ने जिस आत्मीयता और निष्ठा से अपनी प्रकृतिगामी संवेदना को एक पेड़ में अथवा कहो जंगल, में लक्ष्य किया है, उसको पढ़ने से हम सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आदमी ही नहीं, हम प्रकृति के साथ भी कितनी क्रूरता से पेश आये हैं! कविता के केन्द्र में उस आदिम पशुता के मूक विरोध का स्वर लक्षित है जो दुनिया से हरीतिमा मिटाकर पृथ्वी को भी अन्य उपग्रहों की भाँति जीवनरहित और मृतप्राय बना डालना चाहता है। यह कविता साहित्य अकादमी की पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य', रायपुर की बहुप्रतिष्ठ पत्रिका 'अक्षरपर्व' ,दिल्ली की पत्रिका 'कथन' और उदयपुर की आदिवासी पत्रिका' अरावली उद्घोष' में अपनी उपस्थिति दर्जकर इतनी लोकप्रिय हुयी कि दिल्ली में पर्यावरण दिवस पर इस कविता की पोस्टर लगायी गयी। साथ ही अंग्रेजी में एक प्रमुख पत्र में इसका अनुवाद भी किया गया है। आईये, हम भी अशोक सिंह की बारह खंड की इस बेहतरीन कविता 'पेड़' से रु-ब-रु हों -



    पेड़
    ---
    एक
    ---

    पेड़ के बारे में कुछ जानना हो तो पेड़ से नहीं
    उसपर घोंसला लगाये बैठे पक्षियों से पूछो
    पूछो उस थके-हारे मुसाफिर से
    जो उसकी छाया में बैठा सुसता रहा है

    उसकी शाखाओं से झूला बाँध झूलती
    लड़कियों से पूछो
    उन लड़को से भी जो उसकी फुनगी पर बैठ
    चाभ रहे हैं फल
    लकड़ी बिनती लकड़हारन से भी पूछो
    पहाड़ तोड़ती पहाड़न से पूछो
    यहाँ बैठ पगुराती गाय-बकड़ियों से पूछो
    और पूछना हो तो
    अभी-अभी चालिस कोस पालकी ढोकर ला रहे
    चारो कहारों से पूछो
    सबसे पूछो मगर
    पेड़ के बारे में पेड़ से मत पूछो
    क्योंकि याद रखो, पेड़
    आदमी की तरह खुद कभी
    अपना बखान नहीं करते।


    दो
    --


    पेड़ कहाँ नहीं है
    जंगल नदी पहाड़ से लेकर
    घर के आगे-पीछे और
    सड़कों के किनारे-किनारे तक


    जहाँ जाओ वहाँ
    दिख ही जाता है कोई न कोई पेड़


    क्योंकि पेड़ जानता है
    कि आदमी को हर कहीं उसकी जरुरत पड़ती है
    इसलिये हर जगह उपस्थित होता है वह उसके लिये


    तीन---

    पहाड़ पर रहने से
    पेड़ का दिल पत्थर नहीं हो जाता
    और न ही विषधर के लिपटे रहने से विषैला

    बभनटोली में हो या चमरटोली में
    पेड़, पेड़ ही रहता है
    वह पंडिताई का दंभ नहीं भरता
    और न ही चमरौंधी की हीनता आती है उसमें

    पेड़ कभी जाति नहीं पूछते
    और न ही किसी का धर्म जानने की
    होती है उसमें जिज्ञासा
    चाहे मुसलमानों के मुहल्ले में रहे या हिन्दूओं के !

    चार----

    यह सच है कि
    आदमी की तरह उसकी आँखे नहीं होती
    पर इसका मतलब यह तो नहीं कि
    पेड़ अन्धे होते हैं, कुछ देख नहीं सकते
    सुन नहीं सकते, बोल नहीं सकते
    हँस-गा नहीं सकते, रो नहीं सकते पेड़ ?


    अगर तुम ऐसा मानते हो
    तो क्षमा करना
    पेड़ों का मानना है कि तुम आदमी नहीं हो !

    पाँच---

    पेड़ों का कहीं कोई घर नहीं होता
    बल्कि पेड़ स्वयं होते हैं एक घर
    पशु-पक्षी से लेकर आदमी तक के लिये

    आँधी-पानी हो या बरसात
    पेड़ रक्षा करते हैं सबकी
    पर अफ़सोस
    पेड़ सुरक्षित नहीं हैं अपने-आप में !

    वे आग से नहीं डरते, आँधी-पानी से नहीं डरते
    चोर-बदमाशों से नहीं डरते
    खतरनाक़ आतंकवादियों से भी नही लगता उन्हें डर

    वे डरते हैं -
    आदमी के भीतर पनप रहे सैकड़ों कुल्हाड़ियों से !

    छ:--

    पेडों ने सबको सब कुछ दिया
    चिरैयाँ को घोंसला
    पशुओं को चारा
    मुसाफ़िर को छाया
    भूखों को फल
    पुजारी को फूल
    वैद्य को दवा
    बच्चों को बाँहों का झूला
    चुल्हों को लकड़ी, घर को दरवाजा, छत, खिड़कियाँ
    नेताओं, अफसरों को कुर्सियाँ


    बदले में इन सबने पेड़ो को
    अब तक क्या दिया ?

    नहीं चाहकर भी आज
    इसका हिसाब माँगते हैं पेड़ !

    सात
    ---

    इधर कविताओं में कम पड़ते जा रहे है पेड़
    कम होती जा रही पेडों पर लिखी कवितायें

    पेडों को दु:ख है कि
    उस कवि ने भी कभी अपनी कविताओं में
    उसका जिक्र नहीं किया
    जो हर रोज़ उसकी छाया में बैठ
    लिखता रहा देश-दुनिया पर अपनी कविताएँ

    पेडों को दु:ख है कि
    उस हाथ ने काटे उसके हाथ
    जिस हाथ ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाये
    और मारे उसने उसके सिर पर पत्थर
    जिसको अक़्सर अपनी बाँहों में झूलाता
    देता रहा अपनी मिठास

    दु:खी हैं पेड़ कि
    उस हाथ ने किये उसके हाथ जख्मी
    जिसके जख्मी हाथों पर मरहम का लेप बन
    सोखता रहा वह उसकी पीड़ा

    पेड़ दुखी है कि
    उनका दु:ख कहीं दर्ज नहीं होता
    और न ही अखबारों में आदमी की तरह
    छपती हैं उसकी हत्या की खबरें!

    दु:खी है पेड़ कि
    सब दिन सबका दु;ख बाँटने के बावजूद
    आज उसका दु:ख कोई नहीं बाँटता!

    यहाँ तक कि उसकी छाया में बैठकर
    वर्षों पंचायती करने वालों ने भी
    कभी उनकी पंचायती नहीं की!

    आठ--

    पेड़ पर लिखते-लिखते
    कई लोग पेड़ हो गये
    और बोलते-बोलते पेड़ की तरह मौन

    पर अफ़सोस!
    पेडो़ को लेकर
    वर्षों से चल रही बहस में शामिल लोग
    आज पेड़ क्यों नहीं हो जाते ?

    नौ---

    पेड़ों की भी अपनी दुनिया है
    अपना एक समाज
    उन्हें भी भोजन चाहिये, पानी चाहिये
    हवा चाहिये,धूप चाहिये
    और चाहिये तनकर खड़ा होने के लिये
    थोड़ी -सी जगह

    अपना सुख-दुख बतियाने के लिये
    रिश्ते-नाते, पड़ोसी भी

    निरंतर अकेले पड़ते जा रहे पेड़
    पूछते हैं हमसे
    अगर उनकी तरह हमें भी
    बिना रिश्ते-नाते-पड़ोसी के
    अकेले रहना पड़े कहीं
    तो कैसा लगेगा हमें?

    दस--

    औरों की तरह पेडो़ को भी
    ईश्वर से शिकायत है

    शिकायत है कि
    ईश्वर ने उसे पेड़ क्यों बनाया?

    अगर बनाया ही तो
    क्यों नहीं दिये हाथ-पैर-जुबान
    ताकि डँटकर कुल्हाड़ियों का सामना कर सकते
    कर सकते जबाब-तलब
    आदमी से आदमी की तरह !

    खैर जो दिया सो दिया
    इतना तो कर ही सकता है ईश्वर अभी भी
    कि उस आदमी के हाथों का फल-फूल
    स्वीकार नहीं करे कभी
    जिन हाथों ने कभी कोई फल-फूल तक के
    पेड़ नहीं लगाये !

    ग्यारह-----

    पेड़ आत्मकथा लिखना चाहते हैं
    बयान देना चाहते हैं आदमी की तरह
    आदमी की अदालत में

    दिखा-दिखाकर अपना जख्म
    दर्ज कराना चाहते हैं अपनी शिकायत

    यूनियन बनाना चाहते हैं पेड़
    हड़ताल पे जाना चाहते हैं

    आन्दोलन करना चाहते हैं
    आदमी के बढ़ते जुल्म के खिलाफ़
    हथियार उठाकर

    पर अफ़सोस!
    ऐसा कुछ कर नहीं पा रहे पेड़
    क्योंकि पेड़, पेड़ हैं
    आदमी नहीं!

    बारह---

    एक ऐसे समय में
    जब पेड़ आदमी नहीं हो सकते
    और न ही आदमी पेड़

    पेड़ आदमी से पूछना चाहते हैं
    विनम्रता से एक बात कि -
    अगर उसकी जगह आदमी होता
    और आदमी की जगह वह
    तो आज उस पर क्या बीत रही होती ?

    कहो न! चुप क्यों हो?
    क्या बीत रही होती तुम पर
    अगर आदमी के बजाय तुम पेड़ होते?

    ( कविता:: अशोक सिंह, प्रस्तुतकर्त्ता- सुशील कुमार)

    3 टिप्‍पणियां:

    1. "बभनटोली में हो या चमरटोली में
      पेड़, पेड़ ही रहता है"

      वाकई सोचने को मजबूर करती हैं ये कवितायेँ.
      इन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद.

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    2. nishabd kar diya ..................sochne ko majboor.....................athah dard aur peeda.........kya kahoon isse jyada.

      जवाब देंहटाएं

    आपके आने के लिए धन्यवाद
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