मँहगाई है जहाँ, आन-बान-शान है वहाँ

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  • अविनाश वाचस्पति
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  • सृजनगाथा अंगस्‍त अंक में प्रकाशित व्‍यंग्‍य

    मँहगाई है जहाँ, आन-बान-शान है वहाँ

    मेरे सुबह सैरिया मित्र पवन चंदन आज एक लंबे अरसे बाद मिले थे इसलिए मूड में थे। दो घंटे चली धुँआधार बारिशने समूची दिल्ली को धो दिया। पर उन्हें एक अज़ब ग्लो दिया। आज जब वे सैर पर क़दम बढ़ा रहे थे तो महँगाई की तरह तेज़ी दिखा रहे थे। वे बिजली-सी द्रुत गति से बोलते जा रहे थे। बिजली और पानी को ब्रेक तो लगता है पर मेरे मित्र अनब्रेकेवल हो गए और इससे महँगाई का जो मनमोहना, मनमोहक़ चित्र उन्होंने खींचा उससे आप भी आनंद विभोर हो लो। कहने लगे कि महँगाई की महिमा अपरंपार है। इससे भी बहुतों को प्यार है, दुलार है। महँगाई कहती है मत शर्मा रे, तू जम कर कमा रे। अंधाधुंध जुटा और संतान तेरी देगी सब कुछ लुटा। एक कवि की पंक्तियाँ हैं कि चढ़ जाओ चढ़ जाओ महँगाई की तरह, क्यों शरमाते हो लुगाई की तरह। कवि की इन चंद लाईनों में बहुत कुछ बल्कि सब कुछ कह दिया गया है।



    वैसे महिला और महँगाई सिंह राशि हैं। सिंह की शक्ति से सभी परिचित हैं। इनकी महिमा बखानने के लिए इतना ही काफी है। कॉफी के रेट चाय से अधिक चढ़ चुके हैं। जितने ढोल महिलाओं के बजते हैं - घर, दफ़्तर और दुकान में, उससे ज़्यादा बजते हैं महँगाई के श्मशान में। मुर्दे जो लकड़ी ख़रीदते हैं, वे गीली भी हैं और महँगी भी। वैसे मुरदे लकड़ी नहीं ख़रीदते। मुर्दों के लिए लकड़ियाँ ख़रीदी जाती हैं उनके हितचिंतकों द्वारा। महँगा हो चाहे सस्ता बिल वही चुकाते है। यह वो महंगी चीज़ है जो मरने के बाद फ्री मिलती है, जितनी ज़्यादा हो उतनी आसानी से बॉडी जलती है। जलाने वाले भी सोचते हैं कि पचास या सौ किलो ज़्यादा ख़रीद लेंगे तो श्मशान से ज़ल्दी किनारा हो लेंगे। उतनी ज़ल्दी चिता की गर्मी से मुक्ति मिलेगी। वो अलग बात है बिल की चिंता सिर पर सवार मिलेगी।



    महिला भक्ति और महँगाई की शक्ति छिपाए नहीं छिपती। इसकी धुन मन में ही है बजती। जो ज़ोर से शोर मचाते हैं, वे मुख्यमंत्री की नसीहत पाते हैं। मुख्यमंत्री भी महिला हैं। बस खैर यह रही है कि उनका नाम 'म' से नहीं शुरू हुआ है। उससे क्या फ़र्क पड़ता है, मुख्यमंत्री न सही, प्रधानमंत्री ही सही - वे मनमोहन भी हैं और महँगाई मोहन भी हैं। सुनने में आ रहा है कि यह वही छूट है कि महँगाई सबको रही दिनदहाड़े लूट है। यह एक ऐसी लूट है कि जिसकी रपट भी पुलिस में नहीं लिखाई जा सकती।



    हमें तो लूट लिया गोरे-गोरे गालों ने, काले काले बालों ने, की जगह नए गानों की रचना में गीतकार व्यस्त हैं हमें तो लूट लिया महँगाई बालों ने, फिर भी रपट न लिखी पुलिस वाले सालों ने। वैसे इस लाईन में संशोधन ज़रूरी है क्योंकि सब जानते हैं कि पुलिस वाले साले नहीं, मामे होते हैं और मामू ही बनाते हैं। वे अगर साले होते तो महँगाई के ऐसे रिसाले नहीं होते। उनके घर में वैसे भी महँगाई का प्रवेश वर्जित है। जनता जानती है कि वे मूल भी नहीं चुकाते, इसलिए महँगाई उनसे बचती है, वे महँगाई से क्यों बचें ? एक पुलिस और दूसरे नेता - महँगाई इन्हें छूभर नहीं जाती और महिलाएँ बच नहीं पातीं। कितने ही किस्से चैनलों पर सरे दिन और पूरी रात ज़ोर शोर से दिखाए जा रहे हैं।दर्शक देखने को विवष हैं। यह ऐसी विवषता है कि बिना विष के बरबस पूरी हो रही है। यह नहीं देखे तो सास बहू के एकता वाले किस्से मज़बूरन देखने पड़ेंगे, अब चाहे मज़ा आए या न आए। उन किस्सों में महिलाएँ हैं पर महँगाई नहीं है।



    वैसे महँगाई की तुक शहनाई से मिलती है पर शहनाई बजने के बाद महँगाई ही खलती है। इसी की वजह से दो प्यार करने वालों की उम्र ढलती है। मेरे एक कवि मित्र का तो यहाँ तक कहना है कि जहाँ-जहाँ महँगाई जाएगी वहाँ वहाँ गरीबी भरपूर छाएगी। पर मेरी श्रीमती जी की सोच इससे बिल्कुल उलट है, चिरकुट है - जहाँ जहाँ महँगाई जाएगी, वहाँ वहाँ से ग़रीबी भाग जाएगी। जो महँगा बेचेगा, मुनाफाखोरी करेगा, दाम सोलह गुने वसूलेगा, भला वहाँ गरीबी का क्या काम ? वहाँ तो लक्ष्मी बंद दरवाज़ों में भी बलात् घुसी चली आएगी। उसकी खन खन खनक कानों में मिश्री घोल देगी। छन छन छनक मुँह में स्वर रस की फुहार देगी।



    महँगाई के चढ़ने से इस बार नया इतिहास बना है। इधर महँगाई बढ़ रही है उधर शेयर बाज़ार की नानी मर रही है। सेंसेक्स रोज बिना सेक्स के दिखाई दे रहा है। महँगाई की तुक बेवफाई से भी ज़ोरदार ढंग से मिलती है, पर बेवफाई सिर्फ़ गरीब के पल्ले ही पड़ती है।



    अपने कवि के विचारों का मैं समर्थक हूँ क्योंकि महँगाई और ग़रीबी का चोली-दामन का साथ है। जहाँ-जहाँ पर होगी महँगाई वहाँ वहाँ पर गरीबी भी अवश्य पड़ेगी दिखाई। वो फ़िल्मी गाना है न, तू जहाँ-जहाँ रहेगा, मेरा साया साथ होगा। तो जहाँ पर होगी महँगाई, वहीं से ग़रीबी की आवाज़ आई। बहुत ज़ोर से आएगी। सिर्फ़ साया ही नहीं, सुरसा के मुँह की तरह सब्जियाँ, दाल, चावल, तेल, सभी अपनी बढ़ती क़ीमतों का ढिंढोरा पीट रही हैं। आपके कान भी इन्हें अवश्य महसूस कर रहे होंगे। महसूस तो ज़ेब भी कर रही होगी। ज़ेब के साथ पेट को न पता चले, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। सबको पता है, पर सब मज़बूर हैं। अब मज़बूरी का नाम महात्मा गांधी नहीं, मनमोहन सिंह है। है कोई शक ?



    महँगाई के सुर में सुर मुख्यमंत्री मिला रही हैं। महँगाई की दमदार पैरवी कर रही हैं। वे अभी भी महँगाई के चतुर्मुखी विकास से संतुष्ट नहीं हैं। उनके अनुसार महँगाई का सोलहमुखी और यह भी कम लगे तो चौंसठमुखी विकास आज के भारत की आवश्यकता है। आप चाहे चीखो-चिल्लाओ चाहे जितना, परंतु महँगाई का विकास नहीं है रुकना। रुकेगा भी कैसे और रोकेगा भी कौन, इन्हें सिंह राशि का जबरदस्त समर्थन मिला हुआ है। दिल्ली की सिंहनी मुख्यमंत्री का वरद हस्त और भारत के सिंह प्रधानमंत्री का आषीर्वाद इनके साथ है। है किसकी ताकत भला जो इसको रोके। वो ख़ुद ही नहीं रुक जाएगा। इतनी क्लास ली जाएगी कि महँगाई के आगे झुक झुक जाएगा, महिला के आगे तो वैसे भी झुका ही हुआ है। अभी तक गरदन में जो बल पड़ा है, वो ऐंठ नहीं जा पा रही है। ऐंठन इतनी कि सबको नजर आ रही है। लेकिन उसके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठाई जा रही है, और जो चंद आवाजें उठती भी हैं तो उन्हें तूती नहीं मिलती, अपनी आवाज नक्कारखाने में गुंजाने के लिए। और गूंज भी गई तो बेअसर ही रहेगी।



    मुख्यमंत्री का शोर मचाना जायज़ है कि शोर मचाया जा रहा है जितना, महँगाई नहीं बढ़ रही है उतना। इसके निहितार्थ हैं कि शोर करो, चाहे चौगुना करो पर महँगाई को भी तो उसी रेशो में बढ़ने दो। महँगाई की उन्नति से जलन क्यों ? सब उन्नति में समभाव बनाये रखना मानव धर्म है, इसका पालन जी जान से किया जाना चाहिए। मुख्यमंत्री के लिए कहा जा रहा है कि न बिजली है न पानी है यह तो राजधानी है, अरे सिर्फ़ राजधानी नहीं महँगाई का किस्सा कहानी है।



    महँगाई का जादू रजाई से बाहर निकल सेंसेक्स के सिर पर कुलाँचे मार रहा है। महँगाई से भले आम जनता त्रस्त है पर सटोरिये तो मस्त हैं। उनकी यही मस्ती नेताओं का भला करती है, भला लाभ का दर्पणीय चित्र है और नेताओं का मित्र है। किसी के मस्त होने के लिए किसी का त्रस्त होना भी आवश्यक है, यही प्रकृति का सनातन सत्य है। महँगाई के रंग चटकदार हैं, चमकदार हैं, उजले हैं - नेताओं के धवल वस्त्रों की तरह। महँगाई है वो जीना, जिसकी तरफ़ देखते ही छूटता है गरीबों का पसीना और बहुत कम लोगों को महँगाई नजर आती है एक हसीना। जो मादक है, जिसके पाने पर मोदक वितरण का मन अनायास ही हो आता है।



    महँगाई उन्नति का वर्तमान चरित्र है। एक रूपया पाँच रूपया दस रूपया का जमाना नहीं है। जमाना तो सौ रूपया का भी नहीं है। आज जमाना है पाँच सौ के नोट का, एक हज़ार के नोट का। महँगाई इसी तरह बिना शर्माए सोलह दूनी चौंसठ की रफ्तार से बढ़ती चढ़ती रही तो पाँच सौ और एक हज़ार के नोट को चलन से बाहर होने में देर नहीं लगेगी और सरकार को ज़ल्दी ही पाँच हज़ार और दस हज़ार रूपये के नोट जारी करने होंगे। फिर महँगाई की आन बान और शान पर कोई सिरफिरा उँगली नहीं उठा सकेगा, महँगाई भारत की शान होगी और इसी से निकट भविष्य में भारत की पहचान होगी। जिसमें फिलहाल कोई शक नहीं है।

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