पगडंडी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पगडंडी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

आधुनिक पगडंडियां मेट्रो हैं (कविता)

पगडंडियां बनाते थे पग
जब भरते थे डग
कहीं से भी कहीं भी होकर
गुजर जाते थे
मंजिल पर जल्‍दी
पहुंच जाते थे
अनुसरण करते थे सारे
शार्टकटीय नजारे।

अब दिखती नहीं
मिलती नहीं
बना नहीं पाते पगडंडियां
गांव में अब भी मिलती हैं
ऐसी खूब सारी पगडंडियां

शहर में नई पीढ़ी की नई पगडंडी
सिर के ऊपर से या जमीन के भीतर दौड़ती मेट्रो है
कालोनी में गुंजायश नहीं है
ऐसे लगता है जरूरत भी नहीं है
जगह जरूरत की जननी है

मेट्रो दिलाती है उनको याद
पगडंडियों की जिन्‍होंने बनाई हैं
पगडंडियां अपने पैरों से  कभी
जानते हैं वे
पगडंडियों का विकसित स्‍वरूप
अब सबकी प्‍यारी मेट्रो है
जो जाम से बचाती है
उसके डिब्‍बों के भीतर
पाया जाता है जाम
जाम से बचने की कवायद
जाम में फंसकर
फंसना ही है बचना

जो नहीं जानते हैं
उन्‍हें बतलाने का लाभ नहीं
क्‍या होती हैं पगडंडियां
कैसे बनती हैं पगडंडियां
आज सड़कों पर चल जाती हैं डंडियां
जरा सा हो जाए जाम
गोलियां भी  चल जाती हैं
गालियां सरेआम दी जाती हैं


सड़कों पर कारों के भीतर
जब तप जाता है मन
सुलग जाता है तन
तब एक तन को
दूसरे का तन कहां सुहाता है
मारलीला मचाता है
मन में नहीं सृजित हो पाती हैं
तो जमीन पर अब कहां बनेंगी
अब तो सिर के ऊपर
या जमीन के भीतर
मेट्रो ही चलेगी।

मेट्रो ही पगडंडी की
आधुनिक परिकल्‍पना
बनी वास्‍तविकता है।


विशेष : डंडियों को डंडे,  जहां जरूरत हो वहां पर पाठक पढ़ सकते हैं।

Read More...
 
Copyright (c) 2009-2012. नुक्कड़ All Rights Reserved | Managed by: Shah Nawaz